Atmadharma magazine - Ank 025
(Year 3 - Vir Nirvana Samvat 2472, A.D. 1946)
(Devanagari transliteration).

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: १६ : भगवान श्री महावीर निर्वाण महोत्सव अंक कारतक : २४७२
वर्तमान जेटलो मंदकषाय छे तेटलुं अंतरमां आकूळतानुं वेदन ओछुं छे.
(३) परद्रव्यनो संयोग–वियोग ते जीवना भावने आधीन नथी. जीवने दयाना भाव होय छतां
बहारमां तेना शरीरने पशुओ खाई जता होय तेवी हिंसा बने एटले जीव शुभभाव करे तेथी बहारनो संयोग
पण अनुकूळ ज होय–एम नथी. जीवना भावनी क्रिया स्वतंत्र छे अने संयोगी परद्रव्यनी क्रिया स्वतंत्र छे. एक
जीव खूब अशुभ भाव करे छतां वर्तमान शरीर तन्दुरस्त होय अने बीजा जीवने शरीरमां रोग होय अने खूब
शुभभाव करे, तो तेथी कांई रोग टळी जाय नहि. संयोग–वियोगनुं कारण पूर्वना पुण्य–पाप छे परंतु
वर्तमानमां केवा भाव करवा ते जीवना पुरुषार्थने आधीन छे.
(४) जीवने पोताना भावनुं वेदन वर्तमानमां ज छे. बाह्यमां पुण्यना फळनो अनुकूळ संयोग होय छतां
जो जीव वर्तमान तीव्र पाप भाव करे तो तेने तीव्र आकूळतानुं वेदन थाय, अने कोई जीवने नरकनी तीव्र
प्रतिकूळता होय छतां अंतरमां शुभभाव वडे ओछी आकूळतानुं वेदन होय. आ रीते बहारमां गमे तेवा संयोग
होय छतां जीव पोते वर्तमानमां जेवा भाव करे ते अनुसार तेने सुख दुःख होय छे.
भूख्या सिंहे मनुष्यने खाधो अने तेनी क्षुधा मटीने तेने शांति थई–एम जे उपलक–द्रष्टिए देखाय छे
तेमां मूळ स्वरूप आ प्रमाणे छे–(१) सिंहने वर्तमान मनुष्य खावानी ईच्छारूप जे तीव्र पापभाव तेना तीव्र
दुःखनुं वेदन छे. (२) भूख मटी ते पूर्वनी सातानो उदय छे. (३) वर्तमान मनुष्य शरीर खावाथी शांति थई–
एम लागे छे ते खोटी वात छे. मनुष्यने खाधो ते कारणे शांति थई नथी परंतु–पहेलांं मनुष्यने खावानी जे
तीव्र हिंसक ईच्छा हती ते ईच्छाना कारणे तीव्र दुःख हतुं अने पाछळथी ते तीव्र हिंसकभाव चाल्यो जवाथी तथा
ते संबंधी ईच्छा चाली जवाथी कषायनी अने ईच्छानी मंदता थई छे तेथी तेने मंद आकूळता छे अने ते मंद
आकूळता पण दुःख ज छे परंतु अज्ञान भावथी मंद आकूळतामां सुख मान्यु छे. वास्तविकपणे तो स्वभावना
भानपूर्वक ईच्छानो अभाव ते ज सुख छे, तीव्र ईच्छा ते तीव्र दुःख छे, अने मंद ईच्छा ते मंद दुःख छे. आ
प्रमाणे, परवस्तुनो संयोग थवाथी पोतानुं दुःख मटयुं नथी पण पोतानी ईच्छा टळवाथी दुःख मटयुं छे–एम जो
जीव जाणे तो ते पोतानुं दुःख टाळवा माटे पर पदार्थ तरफ लक्ष नहि करतां पोताना परिणाम तरफ लक्ष करे,
अने पोताना परिणाममां पण ईच्छा के जे क्षणे क्षणे बदलती जाय छे तथा जे आकूळता ज उत्पन्न करनारी छे
तेनो आश्रय न माने अने पर लक्षे जे मंद ईच्छा करी शके छे तेना स्वभावमां ईच्छा ज नथी तेथी ते
ईच्छारहित स्वभावना लक्षे संपूर्ण ईच्छा टाळी शकाय छे–एम जाणीने ते स्वभावनी ओळखाणपूर्वक ईच्छा
टाळवानो पोताना भावमां पुरुषार्थ करे अने जेम जेम ईच्छा टळती जाय तेम तेम साचुं निराकूळ सुख प्रगटतुं
जाय; तेथी.
(१) पर पदार्थोथी आत्मा जुदो छे,
(२) संयोग–वियोगनुं तेने दुःख नथी, पण ईच्छानुं दुःख छे.
(३) ईच्छा क्षणिक छे अने ते टळी शके छे
(४) ईच्छारहित आत्मानो स्वभाव छे तेने ओळखवो जोईए अने पोताना ईच्छा भावने टाळवानो
प्रयत्न करवो जोईए. आ ज सुखनो उपाय छे........
कर्ता अने भोक्ता
[समयसार गाथा – १०२ ना व्याख्यानमांथी]
ज्ञानी पुण्य–पापनो कर्ता थतो नथी तेथी ज्ञानी तेनो भोक्ता पण नथी. अज्ञानी पुण्य–पापना भावनो
कर्ता थाय छे ते ज समये ते भावने तेणे भोगव्या छे. आत्मानी शांतिनी ऊलटी अवस्थारूप आकूळताने ते ज
समये अज्ञानी भोगवे छे. जडना संयोगने तो कोई आत्मा भोगवी ज शकतो नथी, पोते वर्तमान जे समये
पुण्य–पाप करे छे ते समये ज तेनुं आकूळतारूपी फळ ते भोगवी ज रह्यो छे, पण अज्ञानी ते जाणी शकतो नथी
केमके तेनी द्रष्टि बाह्य संयोग उपर छे. जे समये विकारभाव कर्यो त्यारथी ज ते भावनुं दुःखरूप वेदन शरू थई
गयुं छे अने ज्यां सुधी स्वभावनुं भान करीने ते भाव टळे नहि त्यां सुधी ते दुःखनुं वेदन रह्या करशे. साची
श्रद्धा वगर ऊंधी मान्यताना महादुखनुं वेदन रह्या ज करे छे. अज्ञानी पर संयोगने भोगवतो नथी पण ते
संयोग उपर लक्ष करीने विकारीभाव करे छे अने तेने ते भोगवे छे. शरीर अने आत्मा जुदा छे एम जाण्युं
नथी तेथी अंदरमां ‘शरीरनी क्रिया हुं करूं’