शाश्वत सुखरूप स्वधीन छे तेनी जेने खबर नथी ते तो ‘सुख जोईए छे’ एवी मान्यताथी–असंतोषथी बहारमां सुख
शोधे छे; अने ते सुखना साधन–उपाय पण पराश्रयथी माने छे तेथी तेनी द्रष्टि पर संयोग उपर ज रहे छे, ए पराधीन
द्रष्टिवाळो स्वाधीन सुखनो अंश पण पामी शकतो नथी ए अहीं कहेवामां आवे छे.
धर्म (सुख) मागे छे अने तेथी ते जीव पर संबंध रहित सुखस्वरूपे थई शकतो नथी; पण ज्यारे जीव पोते ज
पोताने शाश्वत सुखस्वरूपे ओळखे अने मारा सुखस्वरूपी आत्मानी श्रद्धा, तेनुं ज्ञान अने तेमां रमणता वडे हुं
ज स्वयं सुखरूपे थई जऊं–एवो मारो स्वभाव छे. एम आत्मभान करे त्यारे स्वाधीन द्रष्टि थाय एटले तेने
सुख माटे कांई ईच्छवानुं रहेतुं नथी.
संयोग अने क्षणिक विकाररूपे आत्मा नथी, तेथी विकारमां आत्मानुं सुख नथी. ‘मारे सुखरूप थवुं छे’ एमां
एम आव्युं के पोताथी ज पोते सुखरूप छे, कोई पर पदार्थनी सुख माटे जरूर नथी. सुखरूप थनारो पोते
एकलो; तेमां पुण्य जोईए, पर जोईए, बीजानी मदद जोईए–ए बधुं होय तो पोते सुखरूप थाय एवुं कांई न
आव्युं, पण पोते जेवा स्वरूपे छे तेवा स्वरूपे समजीने ठरे तो सहज आनंदरूप प्रगटदशा थाय एटले के पोते
सुखरूप परिणमे.
आत्मा ज्ञानानंद मूर्ति छे एना भानरूप ज्ञान अवस्थानो स्वभाव ज नित्य स्वतंत्रपणे ज्ञान आनंदरूपे स्वयं
थवानो छे.
नवी अवस्थारूपे सुवर्ण–वगेरे रूपे थाय छे, तेने ते रूप बहारथी मेळववुं पडतुं नथी–स्वभावे ज ते रूप थाय छे.
जेमां छे ते प्रगट दशारूपे थाय छे. बहारथी मेळववुं पडतुं नथी. माटीने घडारूपे थवामां परनी जरूर नथी,
परमाणुओ माटीपणुं पलटी घडारूपे स्वयं थाय छे. जो घडारूपे थवामां तेने परनी जरूर होय तो कुंभार–चक्रादि
पर वस्तुमांथी घडापणुं आवे, ए रीते पराधीनता थाय. पण पराधीन कोई चीज त्रण काळमां नथी. माटे
परमाणुओमां घडारूपे थवानी शक्ति छे ते स्वयं प्रगट थाय छे. वस्तुनी क्रमबद्धपर्याय थाय छे तेमां निमित्तनी
वाट जोवी पडती नथी. सोनानो स्वभाव दागीनारूपे थवानो छे माटे ते स्वयं थाय छे. सोनुं ज दागीनारूपे
परिणमी जाय छे. परमाणुओ पलटतां पलटतां एनी मेळे सोनारूपे थाय छे. ते सोनानो स्वभाव ज अलिप्त छे.
सुवर्णने कादवमां नाखो तो पण ते कादवथी खरडातुं नथी. ते सुवर्णरूपे रहे छे–कादवरूपे थतुं नथी. तेम ज
कादववडे सुवर्णमां मलिनता थती नथी. तेम ज्ञानी पोताना त्रिकाळी स्वतंत्र स्वभावने सर्वथी जुदो जाणे छे,
पोते ज सुखस्वरूपे छे तेथी बहारथी कांई मेळववा मागतो नथी; परना संयोगमां रह्यो होवा छतां ज्ञानीने
कोई पर अज्ञानरूप करवा समर्थ नथी. ज्ञानी स्वयमेव ज्ञानरूपे ज थाय छे. अज्ञानीओनी बाह्य संयोग उपर
द्रष्टि छे तेथी सुख माटे तेओ संयोग मेळववानी ईच्छा कर्या करे छे, परंतु असंयोगी तत्त्वने सुखस्वरूपे तेओ
जाणता नथी.