Atmadharma magazine - Ank 025
(Year 3 - Vir Nirvana Samvat 2472, A.D. 1946)
(Devanagari transliteration).

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: २२ : भगवान श्री महावीर निर्वाण महोत्सव अंक कारतक : २४७२
: : : परम पज्य सदगरूदव श्र कनजी स्वमन प्रवचन : : :
सुखनुं स्वरूप ने तेनो उपाय
श्री समय प्राभृत गाथा २१८ – २१९ २४७१ भाद्रपद सुद २ शनिवार ता. ८ – ९ – ४५
जगतना बधा जीवो सुख चाहे छे अने ते सुख टळे नहि एवुं कायमी चाहे छे: हवे कोई जीवो एम माने छे के
‘मारे सुख जोईए छे’ अने कोई एम माने छे के ‘मारे सुख रूप थवुं छे’ आ बे मान्यता वच्चे फेर छे. पोते स्वयं
शाश्वत सुखरूप स्वधीन छे तेनी जेने खबर नथी ते तो ‘सुख जोईए छे’ एवी मान्यताथी–असंतोषथी बहारमां सुख
शोधे छे; अने ते सुखना साधन–उपाय पण पराश्रयथी माने छे तेथी तेनी द्रष्टि पर संयोग उपर ज रहे छे, ए पराधीन
द्रष्टिवाळो स्वाधीन सुखनो अंश पण पामी शकतो नथी ए अहीं कहेवामां आवे छे.
धर्म जोईए छे एम जेणे मान्युं छे तेनी संयोग उपर द्रष्टि छे एटले के–बहारथी धर्म करी लऊं, परनी
दया करूं, रक्षा करूं, कोईना आशीर्वाद मेळवुं तो कल्याण थाय, घणा पुण्य करूं तो सुख थाय एम पर वस्तु वडे
धर्म (सुख) मागे छे अने तेथी ते जीव पर संबंध रहित सुखस्वरूपे थई शकतो नथी; पण ज्यारे जीव पोते ज
पोताने शाश्वत सुखस्वरूपे ओळखे अने मारा सुखस्वरूपी आत्मानी श्रद्धा, तेनुं ज्ञान अने तेमां रमणता वडे हुं
ज स्वयं सुखरूपे थई जऊं–एवो मारो स्वभाव छे. एम आत्मभान करे त्यारे स्वाधीन द्रष्टि थाय एटले तेने
सुख माटे कांई ईच्छवानुं रहेतुं नथी.
पुण्य–पापना विकारथी सुख नथी, दया, पूजा वगेरे पुण्यराग अने हिंसा वगेरे पापराग ते बधी विकारी
लागणीओ छे तेमांथी सुख मेळववानुं जे माने छे ते जीव ऊंधी मान्यतावाळा छे. आत्मा ज नित्य सुखरूप छे,
संयोग अने क्षणिक विकाररूपे आत्मा नथी, तेथी विकारमां आत्मानुं सुख नथी. ‘मारे सुखरूप थवुं छे’ एमां
एम आव्युं के पोताथी ज पोते सुखरूप छे, कोई पर पदार्थनी सुख माटे जरूर नथी. सुखरूप थनारो पोते
एकलो; तेमां पुण्य जोईए, पर जोईए, बीजानी मदद जोईए–ए बधुं होय तो पोते सुखरूप थाय एवुं कांई न
आव्युं, पण पोते जेवा स्वरूपे छे तेवा स्वरूपे समजीने ठरे तो सहज आनंदरूप प्रगटदशा थाय एटले के पोते
सुखरूप परिणमे.
अहीं श्री समयसारजीनी २१८ मी गाथामां सुवर्णनुं द्रष्टांत लीधुं छे. जेम परमाणुओमां सुवर्णरूप
अवस्थानो स्वभाव ज एवो छे के शुद्धरूपे पोते ज सोनापणे स्वयं थाय छे तेम ज्ञानीनो स्वभाव एटले के
आत्मा ज्ञानानंद मूर्ति छे एना भानरूप ज्ञान अवस्थानो स्वभाव ज नित्य स्वतंत्रपणे ज्ञान आनंदरूपे स्वयं
थवानो छे.
अहीं अवस्थाना स्वभावनुं वर्णन कर्युं छे. वर्ण, गंध, रस, स्पर्शनी अवस्थापणे परमाणु ज थनार छे,
ते पोते ज ते रूप थाय छे. वर्णादि गुण अने तेने धारण करनार गुणी–वस्तु ते कायमी टकनार छे अने ते ज
नवी अवस्थारूपे सुवर्ण–वगेरे रूपे थाय छे, तेने ते रूप बहारथी मेळववुं पडतुं नथी–स्वभावे ज ते रूप थाय छे.
जेमां छे ते प्रगट दशारूपे थाय छे. बहारथी मेळववुं पडतुं नथी. माटीने घडारूपे थवामां परनी जरूर नथी,
परमाणुओ माटीपणुं पलटी घडारूपे स्वयं थाय छे. जो घडारूपे थवामां तेने परनी जरूर होय तो कुंभार–चक्रादि
पर वस्तुमांथी घडापणुं आवे, ए रीते पराधीनता थाय. पण पराधीन कोई चीज त्रण काळमां नथी. माटे
परमाणुओमां घडारूपे थवानी शक्ति छे ते स्वयं प्रगट थाय छे. वस्तुनी क्रमबद्धपर्याय थाय छे तेमां निमित्तनी
वाट जोवी पडती नथी. सोनानो स्वभाव दागीनारूपे थवानो छे माटे ते स्वयं थाय छे. सोनुं ज दागीनारूपे
परिणमी जाय छे. परमाणुओ पलटतां पलटतां एनी मेळे सोनारूपे थाय छे. ते सोनानो स्वभाव ज अलिप्त छे.
सुवर्णने कादवमां नाखो तो पण ते कादवथी खरडातुं नथी. ते सुवर्णरूपे रहे छे–कादवरूपे थतुं नथी. तेम ज
कादववडे सुवर्णमां मलिनता थती नथी. तेम ज्ञानी पोताना त्रिकाळी स्वतंत्र स्वभावने सर्वथी जुदो जाणे छे,
पोते ज सुखस्वरूपे छे तेथी बहारथी कांई मेळववा मागतो नथी; परना संयोगमां रह्यो होवा छतां ज्ञानीने
कोई पर अज्ञानरूप करवा समर्थ नथी. ज्ञानी स्वयमेव ज्ञानरूपे ज थाय छे. अज्ञानीओनी बाह्य संयोग उपर
द्रष्टि छे तेथी सुख माटे तेओ संयोग मेळववानी ईच्छा कर्या करे छे, परंतु असंयोगी तत्त्वने सुखस्वरूपे तेओ
जाणता नथी.