Atmadharma magazine - Ank 025
(Year 3 - Vir Nirvana Samvat 2472, A.D. 1946)
(Devanagari transliteration).

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कारतक : २४७२ भगवान श्री महावीर निर्वाण महोत्सव अंक : २३ :
पोतानी स्वाधीन सत्तानी महत्ता नहि देखता थका अज्ञानी एम माने छे के–मारा सुख माटे देव–गुरु–
शास्त्र जोईए, हुं एकलो शुं करूं? शरीर निरोगी जोईए, बाह्य त्याग अने शरीरनी क्रिया वडे धर्म मेळवुं. आ
रीते अज्ञानी पोताने नमालो, रांको, शक्तिहीन, तूच्छ गणी काढे छे, बधा परने माने पण हुं कोण ते न जाणे.
बधा परनी ताकातथी मारूं सुख थाय–एटले मारामां कांई ताकात नथी–एम अज्ञानीनी मान्यता छे. परंतु
तारामां नथी तो आवशे क्यांथी?
हुं एकलो माराथी पूर्ण छुं, अनंतगुणनो शाश्वत स्वाधीन भंडार छुं, मारे मारा सुख माटे कोई बीजानी
जरूर नथी, देव, गुरु, शास्त्र तरफना शुभ विकल्पनी पण जरूर नथी–एम प्रथम स्वाधीन स्वभावने ओळखीने
हा तो पाड. हजी तो सत्यनो स्वीकार करवानी, साची ओळखाण करवानी आ वात छे. पोताना घरनी वात छे,
लोकोए धर्मने मोंघो कल्पी राख्यो छे, सत्य सांभळ्‌युं नथी, रुचि करी नथी तेथी अमने न समजाय एम पहेलेथी
आड नाखीने आत्मानी दरकार करता नथी.
बधा आत्मा स्वतंत्र भगवान छे, क्षणिक विकार जेटला नथी, पण पोते जे स्वभावे छे तेनाथी बीजारूपे
कदी थनार नथी एम जो स्वभावने नक्की करे तो पोते जे धर्मरूपे छे ते ज अवस्थारूपे पोताने थवुं छे, तेमां
कोई पर निमित्तनी के रागनी अवस्थारूपे थवानी जरूर नथी. एटले के धर्म स्वाधीन छे.
मारे धर्मरूपे–सुखरूपे थवुं छे. धर्मरूपे थवानो मारो स्वभाव छे. पुण्य–पापना विकारी भावने ठीक
मानवां अने तेमां सुख मानवुं ते ऊंधी मान्यता ज महापापरूप, अधर्म अने दुःख छे.
धर्मरूपे मारे थवुं छे, कोई पर चीज मारा धर्मने करनार नथी पण हुं ज धर्मरूपे मारा वडे थनार छुं. मारे
एकलाए धर्मरूपे थवुं छे, धर्मथी जुदुं पडवुं नथी–एटले देव–गुरु–शास्त्रादि कोई मारारूपे अने हुं ते पररूपे
थनार नथी. सम्यक्श्रद्धा–ज्ञान–चारित्रनी अवस्थारूपे थनार हुं एकलो ज छुं, ते माटे मारे पर साधननी जरूर
नथी तेम ज कोईनी वाट जोवी पडे तेवुं मारूं स्वरूप नथी. हुं स्वाधीन छुं, मारा धर्मथी हुं कदी खाली नथी. आ
प्रमाणे ओळखाण ते ज धर्म छे.
विकाररूपे थवामां संयोगनी रुचि छे–तेमां दुःख छे. अने धर्मरूपे एटले के सुखरूपे थवामां असंयोगी
अविकार स्वभावनी रुचि छे. “मारे धर्मरूपेे थवुं छे” तेमां एम पण आव्युं के हुं वर्तमान प्रगट धर्मरूप थयो
नथी. शक्तिरूपे धर्मस्वरूप पूर्ण छे. आत्मामां बेहद ताकात अनंत अक्षय सुखरूप धर्म भर्यो छे ते स्वभावने
ओळखीने तेमां एकाग्र थतां धर्मरूप पर्याय प्रगटे छे अर्थात् आत्मा पोते धर्मरूपेे थाय छे.
आ निर्जरानो अधिकार छे. शुद्ध अखंड धु्रव आत्मस्वभावनी साची द्रष्टिना जोरे शुद्धतानी वृद्धि अने
अशुद्धतानी हानि ते निर्जरा छे. नीचली साधक दशामां निरालंबी स्वरूपनी श्रद्धा–ज्ञान बराबर छे पण
वीतरागपणे संपूर्ण स्थिरता करी शकतो नथी त्यां अशुभ पापरागथी बचवा साचा देव, गुरु, शास्त्रनी भक्ति,
पूजा, प्रभावना वगेरेमां शुभराग थाय छे परंतु भावना तो अरागीपणे स्थिर रहेवाना पुरुषार्थनी छे अर्थात्
पुण्य–पापना विकल्पो रहित पूर्ण धर्मरूपे थवानी छे.
परना संबंध वगर अने क्षणिक पुण्य–पापनी लागणी रहित अक्षय सुखरूप–धर्मरूप थनार हुं एकलो
छुं–एम नक्की करतां कोई सामग्री तरफ जोवानुं न रह्युं. पराश्रय रहित पोताना स्वाधीन स्वभावनी पहेलांं
प्रतीत करे तो जेवो स्वभाव छे ते रूपे थवा माटे पोताना स्वभावमां जोवानुं रह्युं. कांई शुभाशुभ भाव थाय
त्यां एम जाणे के ते भाव मारा पुरुषार्थनी वर्तमान नबळाईथी बाह्य लक्ष वडे थाय छे, परंतु मारा धर्मरूपे ते
भाव थतो नथी. मारा धर्मस्वरूपना अंतर लक्षे एकाग्रता करीने ढळुं तो हुं ते धर्मरूपे थाऊं छुं. पर चीज,
देहादिनी क्रिया ते सर्वे तेनापणे
[परपणे] थाय छे, मारापणे ते थनार नथी. पुण्य–पापनी लागणी ते दुःख छे,
आकुळता छे, क्षणिक विकार छे, हुं त्रिकाळ अविकारी छुं, ते क्षणिक विकारपणे हुं थनार नथी.
आ प्रमाणे बधामांथी सुखद्रष्टि उपाडी लईने निरूपाधीक धर्म स्वरूपना लक्षे टकनारो स्वयं