: २४ : भगवान श्री महावीर निर्वाण महोत्सव अंक कारतक : २४७२
एकलो सुखरूपे थाय छे, अने ते ज वर्तमान धर्म छे. धर्मरूपे थवा माटे आत्माने परनी जरूर पडती नथी.
ज्ञानीने परथी जुदा पोताना स्वभावनुं ज्ञान श्रद्धान होवाथी ते पोते ज ज्ञानरूपे परिणमेल छे, तेने कोई
संयोग अज्ञानरूपे करवा समर्थ नथी–आ वातने अहीं द्रष्टांतपूर्वक विस्तारथी समजावी छे.
जेम पुद्गलनी सुवर्णरूप अवस्थानो स्वभाव कादव वगेरेथी मलिन थवानो नथी, तेथी सुवर्ण अन्यना
संयोग टाणे पण सुवर्णपणे ज परीणमे छे, कादवनो संयोग तेने मलिनतारूपे करवा समर्थ नथी, तेम धर्मी
एटले के आत्मानी धर्मरूप थयेली अवस्थानो स्वभाव स्वयं सुखरूप अने ज्ञानरूप ज थवानो छे. त्रिकाळ
अनंत गुणनी मूर्तिपणे छुं, क्षणिक रागनी लागणीपणे नथी तेम ज परथी बगडुं–सुधरूं एवो नथी–एम
स्वाधीन धर्मनी श्रद्धाना बळ वडे ज्ञानी सुखरूप पोते थाय छे. सुख माटे कोई पर क्षेत्र के काळ उपर जोवानुं
रहेतुं नथी.
लोको पण धर्मनी व्याख्या करतां कहे छे के:–
धर्म वाडीए न नीपजे धर्म हाटे न वेचाय
धर्म विवेके नीपजे जो करीए तो थाय...
धर्म करीए–एनो अर्थ धर्मरूपे थईए. स्वतंत्रपणे करे ते कर्ता छे, एटले के जे स्वतंत्रपणे कार्यरूपे थाय
ते कर्ता छे. आत्मा धर्म करे एटले के आत्मा स्वयं धर्मरूप थाय. सत् स्वरूपने ओळखी निरूपाधिक धर्मरूप कार्य
करनार पोते धर्मरूपे थाय के कोई बीजो? कोई देव–गुरु के शास्त्र तारा धर्मरूपे थनार नथी.
प्रथम श्रद्धामां परिपूर्ण सुख स्वरूपने स्वाधीनपणे नक्की करे अने परमां सुखबुद्धिरूप मिथ्या मान्यतानो
सर्वथा त्याग करे तो ते पोते श्रद्धामां धर्मरूप थाय एटले–पूर्णताना लक्षे अंशे निर्मळतारूप जे स्वभाव प्रगट
कर्यो ते रूपे पोते थयो. हवे जेटली अधूरी अवस्था रही तेने स्वरूप स्थिरताना जोरे पलटीने पूर्ण निर्मळतारूपे–
सुखस्वरूपे ज थवानुं पोताने रह्युं, पण कोई शरीर–मन–वाणी वगेरे पररूपे के शुभाशुभरागरूपे थवानुं पोताने
सुख माटे रह्युं नहि. जेनी आवी द्रष्टि थई ते धर्मी जीव गमे तेवा संयोगमां होय छतां कोई पर तेने लाभ–
नुकशान करवा समर्थ नथी, तेना ज्ञानने अज्ञानरूप करवा कोई समर्थ नथी; आत्मामां ज सुखरूप द्रष्टि थई छे
तेथी परमां ते अनुकूळता–प्रतिकूळता जोतो नथी. पुण्य अने पुण्यना फळने पण ते ईच्छतो नथी, तेथी
स्वभावथी ज ते धर्मरूप थाय छे.
जेम कोई पाप भाव छोडी पुण्य भाव करे तेना फळमां देवादि पद मळे छे अने पापभाव करे तेना
फळमां नरकादि मळे छे– ते बंने विकार भाव जेम सफळ छे तेम पुण्य–पापना विकार रहित निरालंबी ज्ञायक
स्वभावने पूर्ण सुख स्वरूपे ओळखी तेनी श्रद्धारूपे जे कोई थाय छे तेने धर्मनी शरूआत पोतामां थाय छे–तेथी
ते पोतामां सफळ छे. पुण्य–पाप बंने विकार होवाथी तेनुं फळ बाह्य संयोगमां जाय छे अने साची श्रध्धा–ज्ञान
ते स्वभाव होवाथी तेनुं फळ स्वमां आवे छे.
पोते जे–रूपे थई शके छे ते स्वरूपने ओळखवाथी पोते ते–रूपे थाय छे, ते पोतानुं स्वरूप होवाथी पोता
पासे रहेशे. अने जे पोतानुं स्वरूप नथी ते विकारभावरूपे पोते थतो नथी अर्थात् ते विकारभाव पोता पासे
रहेता नथी. शरीर–मन–वाणीरूपे के देवपदनी धूळरूपे तुं थई शकतो नथी माटे तेनी रुचि छोड तो ते तारी पासे
नहि रहे. अहीं एम आशय छे के–रागभाव वडे परनो संबंध मळे, परंतु स्वभावभावथी–गुणथी बहारनुं कांई
न मळे, अंदर छे ते स्वरूप प्रगट थाय.
जे जीव पोताने पराश्रयवाळो माने छे अने विकारीभावरूपे थनारो पोताने माने छे तेनी द्रष्टि पराश्रीत
संयोग तरफ होवाथी ते पर तरफनी पुण्य–पापनी विकारी लागणीरूपे बदल्या करे छे अने पराश्रयपणुं मारूं
स्वरूप नथी, हुं स्वाधीन सुखस्वरूपे छुं–एम त्रिकाळ असंग स्वभावनुं जे जीव भान करे ते जीव स्वयं
आत्मधर्मरूपे थाय छे. पोते ज ज्ञानानंदथी परिपूर्ण छे एवी द्रष्टिने घूंटता क्षणिक विकारनो क्षय थतो जाय छे
अने आत्मा पोते ज सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूपे तथा वीतरागता अने केवळज्ञान अवस्थारूपे थाय छे. जे–
रूपे पोते थाय ते स्वरूप पोताने पूरेपूरो मानवो तथा अवस्थाए ते रूपे थवानी श्रध्धा करवी
सुधारो–अंक–२४
‘आत्मधर्म’ अंक २४ पानुं १९५ कोलम १ मां “श्रद्धाथी धर्मीपणुं छे–त्यागथी धर्मीपणुं नथी” एवुं
मथाळुं छे तेने बदले आ प्रमाणे सुधारीने वांचवा विनंति छे–“साची श्रद्धा वगरना त्यागथी धर्मीपणुं नथी.”