: २८ : भगवान श्री महावीर निर्वाण महोत्सव अंक कारतक : २४७२
रूप थाय छे] तेम अज्ञाननी क्षणिक अवस्थारूपे थयेला अज्ञानीनो वर्तमान अवस्थामां पराश्रित द्रष्टिथी
विकाररूप थवानो स्वभाव छे. कोई परद्रव्य तेने विकाररूप करतुं नथी पण पोते ज स्वाधीन लक्षने चूकेलो
होवाथी पराश्रये विकारी थाय छे. ‘हुं अविकारी असंग स्वरूपे त्रिकाळ छुं’ एनी अज्ञानीने खबर नथी अने
पर प्रत्ये राग–द्वेषरूपे हुं थनार छुं, मने परथी सुख–दुःख थाय छे, संयोगना फेरफारे मारा भावमां फेरफार थाय
छे–एम ते पोताने पराश्रित माने छे अने परने लीधे हुं विकाररूप थाउं छुं एम जेणे मान्युं तेणे पोताने परथी
जुदो न मान्यो, तेथी पर लक्ष छोडीने स्वरूपमां ते ठरी शके नहि, माटे ते अज्ञानीनो स्वभाव सर्व पर द्रव्यो
प्रत्ये राग करवानो छे. एक तरफ परिपूर्ण स्व अने बीजी तरफ सर्व पर–एम बे भाग पाडी वहेंचणी करीने
भेदविज्ञान ज अहीं करावे छे. आजनी वात बहु ज सरस शैलिथी आवी छे, आजना न्यायो वारंवार विचारीने
ओगाळवा जेवा छे, अंतरमां मनन करी निर्णय करवानो छे.
दरेक पदार्थ पोताना स्वरूपे छे अने परना स्वरूपे त्रणकाळमां नथी–ए मूळ सत्य छे. दरेक आत्मा परथी
त्रिकाळ जुदा छे माटे परवडे कोईने कोई रीते लाभ–नुकशान थई शके नहि. बधा आत्मा पोताना स्वरूपथी
भगवान ज्ञानानंद पूर्ण सामर्थ्यवान छे, क्षणिक विकार पूरता नथी, विकाररूपे थनार नथी. वर्तमानमां मोक्ष–
स्वरूप छे; आवी आत्मस्वरूपनी वात पोताना आत्मामां बेठी छे एवा घणा जीवो तैयार थया छे, मुक्तिनी
मंडळी तैयार थई छे. आ तो सनातन सत्य जाहेरमां मूकाय छे. बधा आत्मा स्वभावे मोक्षस्वरूप छे ते
स्वभावनी श्रद्धा–ज्ञान अने तेनी अरागी स्थिरतारूप थनार हुं स्वयं छुं एवी श्रद्धा करीने आत्मामां पर
मानंददशानी प्रसिद्धि करवानो ढंढेरो पीटाय छे.
अज्ञानीनी द्रष्टि संयोग उपर छे तेथी ते पोतानुं स्वाधीन सुखस्वरूप वास्तविकपणे कबुली शक्तो नथी.
जेवुं स्वरूप छे तेवुं जोतो नथी. जेवुं परिपूर्ण पोतानुं स्वरूप छे तेवुं ज जाणवुं–मानवुं अने तेमां जराय
विपरीततानो स्वीकार न थवा देवो ए ज जागृतिरूपे आत्मधर्मनो अनंत पुरुषार्थ कर्या करवानी सत् क्रिया छे.
आत्मा अंतरंग ज्ञानानंद स्वरूपे छे, देहादिरूपे के पुण्य–पापरूपे नथी. एनी रुचि अने प्रतीत अज्ञानीने नथी
तेथी तेनुं लक्ष पर उपर छे, पररूपे थनार छुं एम पोताने माने छे तेथी सुख माटे ते संयोग मागे छे.
पेटमां रोटला पडे तो शांतिथी धर्म थाय, सारूं वातावरण होय तो सद्दविचारो आवे, पण रसोईना काम
करतां करतां कांई सारा भाव आवे? जो भगवाननी प्रतिमा पासे जईए तो शुभभाव थाय–ए वगेरे प्रकारे
अज्ञानी निरंतर परालंबी द्रष्टि वडे पोतानुं सुख पराधीन माने छे. अनादिनी एवी पराश्रित द्रष्टि वडे साक्षात्
तीर्थंकरनी धर्मसभामां गयो त्यां पण स्वाधीन स्वरूपमां सुख छे एवी स्वाधीन तत्त्व द्रष्टि करी नहि, अने
कंईक पुण्य जोईए तथा अमुक संयोग होय तो ठीक एवी पराश्रित बुद्धिरूप ऊंधी मान्यतानी पक्कड छोडी नहि,
तेथी ज दुःखी थईने रखडयो.
जे परथी पोताने सुख माने ते पर उपरथी द्रष्टि केम उठावशे? पर उपरथी द्रष्टि उपाड्या वगर अज्ञान
टळे नहि. अने अज्ञानभावे जे जे पदार्थोने अनिष्ट–खराबपणे जेणे मान्या ते बधा प्रत्ये द्वेष करवा जेवो तेणे
मान्यो छे. परपदार्थना कारणे जेणे नुकशान मान्युं तेणे परपदार्थ मने द्वेष करावे एम मान्युं छे तेथी ते द्वेष
टाळी शकशे नहि. अज्ञानी अनंत परपदार्थोमां अनुकूळ–प्रतिकूळपणाना भागला पाडीने सर्व प्रत्ये राग–द्वेष करे
छे तेथी वर्तमान अज्ञानदशानो स्वभाव (लोढाना द्रष्टांते) सर्व प्रत्ये राग–द्वेष करी कर्मथी लेपावानो छे,
अज्ञानी रागनी रुचि छोडतो नथी, अज्ञानीनुं लक्षण ज रागने कर्तव्य मानवानुं छे. जेणे परथी पोतामां सुख
दुःख मान्युं तेणे पर मारामां पेसी मारा पणे थाय छे अने मारा गुण परमां जाय छे एम मान्युं छे, पण
वस्तुनी स्वाधीनताने तेणे मानी नथी.
निमित्त एटले परवस्तु. परवस्तुथी लाभ नुकशान मान्युं तेणे, निमित्तो हुं सारा मेळवुं तो मने सुख
थाय, परनुं ग्रहण–त्याग हुं करी शकुं, परने मारा ताबे करीने तेनी व्यवस्था राखी शकुं एटले के परपदार्थोनो
संबंध मेळवीने ते बधा साथे राग–द्वेष कर्या करूं–एम मान्युं, ते ऊंधी द्रष्टिरूप महा अज्ञानमां चैतन्य स्वरूपनी
अनंती हिंसा करनार महापाप छे, अने ते महापापरूप द्रष्टि ज संसारना अनंता जन्म–मरणना गर्भमां
गळावानुं मूळ छे.
आ वात बहु सरस छे, आत्मस्वरूपनी वात अपूर्व छे, समजवा जेवी छे. रुचिपूर्वक एक कलाक
सांभळवामां ध्यान राखे तोय महा पुण्य बंधाय अने तेना फळमां फरी आत्म हितनी परम सत्य वात
सांभळवाना