: ३० : भगवान श्री महावीर निर्वाण महोत्सव अंक कारतक : २४७२
आ संबंधमां आगळ ४२ मां श्लोकमां एम आवशे के ‘उपादान अने निमित्त तो बधा जीवोने होय छे
पण जे वीर छे ते निजशक्तिने संभाळी ले छे अने भवनो पार पामे छे.’ आमां निजशक्तिनी संभाळ करवी
ते उपादानकारण छे, अने ते ज मुक्तिनुं कारण छे. आत्मामां शक्ति तो बधी पडी छे पण ते शक्तिनी पोते
ज्यारे संभाळ करे त्यारे श्रद्धा–ज्ञान–स्थिरतारूप मुक्तिनो उपाय थाय, पण पोतानी शक्तिनी संभाळ कर्या
वगर मुक्तिनो उपाय थाय नहि; ए बताववा माटे आ संवादमां उपादान निमित्तनी सामसामी दलीलो चालशे
अने श्री सर्वज्ञ भगवान तरफथी फेंसलो मळशे, तेमां उपरनुं कथन सिद्ध थशे.
आत्मानो उपादानस्वभाव मन, वाणी, देह वगरनो छे, तेने कोई परवस्तुनी सहाय नथी. आवी सहज
शक्तिनुं जे भान करे ते उपादान स्वभावने जाणे, उपादान स्वभावने जाण्यो ते उपादानकारण थयुं अने ते
वखते देव–गुरु–शास्त्र वगेरे जे हाजर होय ते निमित्त कहेवाय छे. उपादान–निमित्तनी आ वात बहु सरस
समजवा जेवी छे. शास्त्रना आधारोथी अपूर्व कथन कर्युं छे. तेमां प्रथम मंगळिकरूपे श्लोक कहे छे:–
–दोहरा–
पाद प्रणमि जिनदेवके, एक उकित उपजाय;
उपादान अरु निमित्तको, कहुं संवाद बनाय. १.
अर्थ:–जिनदेवना चरणे प्रणाम करीने एक अपूर्व कथन तैयार करुं छुं; उपादान अने निमित्तनो संवाद
बनावीने ते कहुं छुं.
आ वात समजवा माटे जीव ऊंडो उतरीने विचार करे तो तेनुं रहस्य समजाय. जेम अर्धो मण दहींनी
छाशमांथी माखण काढवा माटे उपरटपके हाथ फेरवे तो माखण नीकळे नहि पण छाशने हलावीने पछी अंदर ऊंडो
हाथ नाखीने डोळे त्यारे माखण उपर आवे परंतु जो शियाळामां टाढने कारणे आळस करीने ऊंडो हाथ न नांखे तो
छाशमांथी माखण नीकळे नहि; तेम जैनशासनमां जैनपरमात्मा सर्वज्ञदेवे कहेला तत्त्वोमांथी जो ऊंडी तर्कबुद्धिवडे
विचार करीने माखण काढे तो मुक्ति थाय. श्लोकमां ‘उक्ति’ शब्द वापर्यो छे तेनो ए रीते अर्थ कर्यो.
जिनदेव सर्वज्ञवीतराग भगवानना चरणकमळमां प्रणमीने एटले विशेष प्रकारे नमस्कार करीने हुं एक
युक्ति बनावुं छुं एईले तर्कनुं दोहन करूं छुं. आ संवादमां युक्तिवडे वात करी छे माटे समजनारे पण तर्क अने
युक्तिवडे समजवानी महेनत करवी पडशे. एमने एम उपरटपके सांभळवाथी नहि समजाय. जेम छाशने
वलोवे तो माखण नीकळे तेम पोते ज्ञानमां विचार करीने समजे तो साचुं तत्त्व मळे. जेम घरनुं माणस गमे
तेवो पोचो गरभला जेवो रोटलो करी दे परंतु ते कांई खाई न दे, पोताने जाते खावो पडे, तेम श्री सद्गुरु गमे
तेवी सहेली भाषा करे परंतु भाव तो पोताने समजवा पडशे. तत्त्व समजवा माटे पोतामां विचार करवो
जोईए. जेमने केवळज्ञान अने केवळदर्शनरूपी आत्मलक्ष्मी प्रगटी छे एवा श्री सर्वज्ञ वीतराग परमात्माने
नमस्कार करीने तेमनी कहेली वातने न्यायनी संधिथी युक्तिपूर्वक हुं [भैया भगवतीदासजी] उपादान–
निमित्तना संवादरूपे कहीश.
–प्रश्न–
पूछत है कोउ तहां, उपादान किह नाम;
कहो निमित्त कहिये कहा, कबके है ईह ठाम. २.
अर्थ:–त्यां कोई पूछे छे के–उपादान कोनुं नाम? निमित्त केने कहीए? अने तेमनो संबंध कयारथी छे ते कहो.
उपादान एटले शुं ते घणा लोको जाणता नथी; चोपडामां उपादाननुं नाम पण क्यांय आवे नहि. दया
वगेरे करीए तो धर्म थाय एम तो घणा लोको सांभळे छे अने माने छे, परंतु आ उपादान शुं अने निमित्त शुं
तेनुं स्वरूप जाणता नथी. तेथी ते उपादान अने निमित्तनुं स्वरूप आ संवादमां बताव्युं छे.
दहीं थवामां, दुध ते उपादान छे अने छाश ते निमित्त छे. दहीं थाय छे ते दुधमांथी थाय छे, छाशमांथी
थतुं नथी. जो छाशमांथी थतुं होय तो पाणीमां छाश नाखवाथी पण दहीं थवुं जोईए परंतु एम थतुं नथी; तेम
शिष्यना आत्मानी पर्याय पलटीने मोक्ष थाय छे कांई गुरुनो आत्मा पलटीने शिष्यनी मोक्षदशारूपे थतो नथी.
शिष्यनो आत्मा पोतानुं उपादान छे, ते पोते समजीने मुक्त थाय छे परंतु गुरुना आत्मामां शिष्यनी कोई
अवस्था थती नथी.
उपादान=[उप+आदान] उप एटले समीप अने आदान एटले ग्रहण थवुं ते; जे पदार्थना समीपमांथी
कार्यनुं ग्रहण थाय ते उपादान छे; अने ते वखते जे परपदार्थनी अनुकूळ हाजरी होय ते निमित्त छे.