Atmadharma magazine - Ank 025
(Year 3 - Vir Nirvana Samvat 2472, A.D. 1946)
(Devanagari transliteration).

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: ३८ : भगवान श्री महावीर निर्वाण महोत्सव अंक कारतक : २४७२
अर्थ:–निमित्त कहे छे के–जो केवळी भगवान अगर श्रुतकेवळी मुनि पासे भव्य जीव होय तो ज क्षायिक
सम्यकत्व प्रगटे छे, ए निमित्तनुं बळ जुओ!
[अहीं दलील करतां ज निमित्तनी भाषा लूली आवी छे. “भव्यजीव होय तो ज क्षायिक सम्यकत्व प्रगटे
छे” एमां भव्यजीव कहेतां ज लायकात ते जीवनी पोतानी ज छे तेथी ज क्षायक सम्यकत्व पामे छे–एम
दलीलना ज शब्दमां आवी जाय छे.]
क्षायक सम्यकत्व एटले आत्मानी एवी सम्यक् प्रतीति के जे केवळज्ञान लीधे ज छूटको करे. अर्थात् एवुं
आत्मभान के जे पाछुं न ज पडे. श्रेणीक राजा पहेली नरकथी नीकळीने आवती चोवीशीना पहेला तीर्थंकर
थवाना छे तेमने आवुं क्षायक समकित छे. क्षायक सम्यग्द्रष्टिने आत्मानी खूब द्रढ श्रद्धा होय छे. ते एवी द्रढ
होय के त्रणलोक फरी जाय के ईन्द्र तेने डगाववा उतरे तो पण तेनी श्रद्धा फरे नहि; तेने अप्रतिहत श्रद्धा होय छे,
चौद ब्रह्मांडथी हलाव्यो न हले अने त्रणलोक खळभळी जाय तो पण भय–संदेह न पामे एवुं निश्चळ सम्यकत्व
ते क्षायकसमकित छे. निमित्तनो वकील दलील करे छे के श्रेणीकराजा, भरतचक्रवर्ती ए वगेरेने केवळीश्रुत केवळी
पासे ज क्षायक समकित थयुं; जुओ निमित्तनुं जोर! शास्त्रमां लेख छे के तीर्थंकर भगवान, केवळी भगवान के
श्रुतकेवळी (एटले वीतराग जिनशासनना अंतरना श्रुतज्ञानमां पूरा एवा मुनिराज) बिराजता होय तेना
चरणकमळमां ज क्षायकसम्यकत्व थाय छे, तेमना अभावमां थतुं नथी. माटे निमित्तनुं ज जोर छे. बीजा निमित्त
होय तो क्षायकसमकित न थाय. हे उपादान! जो तारी ज शक्तिथी काम थतुं होय तो तीर्थंकर आदि न होय त्यां
क्षायिकसम्यकत्व केम थतुं नथी? निमित्त नथी माटे थतुं नथी, एटले निमित्तनुं ज जोर–एवी निमित्त तरफनी
दलील छे. ते दलील कई रीते खोटी छे ते हवे पछीना दोहामां आवशे.
तीर्थंकर–केवळी के श्रुतकेवळीनी हाजरीमां ज जीवने क्षायकसमकित थाय छे–एटली निमित्तनी वात
बराबर छे, ते तो शास्त्र आधारथी वात मूकी छे, अद्धरथी गोटो वाळ्‌यो नथी. परंतु क्षायकसमकित निमित्तना
जोरथी थयुं छे के उपादानना जोरथी, ते समजवामां निमित्त–पक्षनी शुं भूल छे ते हवे कहेवाशे.
उपशमसमकित के क्षयोपशमसमकित तो गुरु वगेरे निमित्तनी साक्षात् हाजरी न होय तो पण थई शके
छे. प्रथम एकवार सत् निमित्त पासेथी पोते लायक थईने श्रवण कर्युं होय, परंतु ते टाणे समकित न पाम्यो
होय तोपण पाछळथी सत् निमित्त समीप न होवा छतां जीव पोते अंतरथी जागृत थई उपशम–क्षयोपशम
समकित पामी शके छे. परंतु क्षायक समकित तो निमित्तनी हाजरीमां ज थाय छे. साक्षात् तीर्थंकरनी सभा होय
अने तत्त्वोना गंभीर न्यायनी एकधारा धोधवाणी छूटती होय, ते सांभळतां जीवने स्वभावनो परम महिमा
थाय के अहाहा! आवो परिपूर्ण ज्ञायकस्वरूपी भगवान हुं! एक विकल्पनो अंश पण मारूं स्वरूप नहि, हुं
स्वतंत्र स्वाधीन परिपूर्ण छुं–आम अंतरथी निज आत्मस्वभावनी अप्रतिहत प्रतीति जागृत थतां जीवने
क्षायकसम्यकत्व थाय छे; त्यां तीर्थंकर केवळी के श्रुतकेवळी निमित्त छे. तेथी निमित्त एम कहे छे के आत्माने
क्षायकसम्यकत्वमां निमित्त मददगार जोईए ज, ए मारूं बळ छे.
तेनो उत्तर उपादान कहे छे:–
केवली अरु मुनिराज के, पास रहै बहु लोय;
पै जाको सुलटयो धनी, क्षायक ताको होय. ११.
अर्थ:–उपादान कहे छे–केवळी अने श्रुतकेवळी मुनिराज पासे घणा लोको रहे छे, पण जेनो धणी
(आत्मा) सवळो थाय तेने ज क्षायकसम्यकत्व थाय छे.
उपादान निमित्तने कहे छे के अरे! सांभळ, सांभळ केवळी भगवान अने ते भवे मोक्ष जनारा
श्रुतकेवळी मुनिराज पासे तो घणा लोको रहे छे, घणा जीवो साक्षात् तीर्थंकर पासे जई आव्या, परंतु ते बधाने
क्षायकसमकित थयुं नहि. जेनो आत्मा पोते सवळो पड्यो ते पोतानी शक्तिथी क्षायकसमकित पाम्यो, अने जेनो
आत्मा पोते सवळो न पड्यो ते क्षायकसमकित पाम्या नहि, माटे उपादानथी ज क्षायकसमकित थाय छे,
निमित्तथी थतुं नथी.
जे जीव धर्म समजे छे ते पोताना पुरुषार्थथी समजे छे. त्रणलोकनानाथ तीर्थंकर भगवान जेमनी कुंखे
आव्या ते माता अने पिता मोक्ष पामे ज एवो नियम छे, परंतु तेओ तेमना स्वतंत्र पुरुषार्थथी मोक्ष पामे छे,
कुळना कारणे के तीर्थंकर भगवानना कारणे तेओ मोक्ष पामता नथी.
तीर्थंकरनी सभामां तो घणा जीवो घणीवार जई आव्या परंतु पोते न समज्या ते धोयेला मूळा जेवा
पाछा फरे छे, एक पण यथार्थवात अंतरमां बेसाडी