Atmadharma magazine - Ank 025
(Year 3 - Vir Nirvana Samvat 2472, A.D. 1946)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 9 of 45

background image
: ८ : भगवान श्री महावीर निर्वाण महोत्सव अंक कारतक : २४७२
वाय. पण “पूर्वनी विकारी पर्याय कारण छे माटे वर्तमान कार्य विकारी ज थाय” एम नथी. वर्तमान कार्य थाय
तो पूर्वने कारण कहेवाय छे. परिणमन तो वर्तमान एक ज समय पूरतुं छे, तेथी बंधन पण एक ज समय पूरतुं
छे. ३३ सागरोपम वगेरे स्थितिना कर्मोनी वात शास्त्रोमां आवे छे त्यां तो “एवा ने एवा ऊंधा भावने जीव
टकावी राखे तो एवुं ने एवुं परिणमन चाल्या करशे” एम ज्ञान कराववा माटे कह्युं छे, तेनो हेतु जीवनो
वर्तमान पुरुषार्थ केटलो छे ते बताववानो छे; परंतु ‘कर्मनुं जोर घणुं छे’ एम बताववुं नथी. खरेखर तो पर्याय
पोते व्यवहार छे छतां जो पर्यायमां निश्चय–व्यवहार कारणनो विचार करीए तो वर्तमान समयमां ते अवस्थानुं
उपादान
[पुरुषार्थ] ते निश्चय–कारण अने पूर्वनी पर्यायनो व्यय ते वर्तमान पर्यायनुं व्यवहारकारण छे.
: ४ :
प्रश्न:–एक द्रव्य बीजा द्रव्यनुं कांई न करी शके ए वात द्रव्यद्रष्टिए छे के पर्यायद्रष्टिए?
उत्तर:–ए वात पर्यायद्रष्टिए छे. द्रव्य–गुण तो कायम छे तेमां कांई करवापणुं नथी. करवापणुं तो
पर्यायमां छे. ज्यारे एक द्रव्यनी अवस्था थाय त्यारे अनुकूळ निमित्त ज हाजर होय, परंतु पोतानी पर्यायपणे
तो वस्तु पोते ज परिणमे छे तेथी पोतानी पर्यायनो कर्ता तो द्रव्य पोते ज छे. बीजा हाजर रहेला पदार्थोए आ
द्रव्यनी अवस्थामां कांई कर्युं नथी, केमके दरेक द्रव्य भिन्न भिन्न छे. आत्मा शुं अने पोते शुं करी शके छे ते
पोताना स्वाधीन ज्ञानथी जाण्युं नहि, अने परावलंबी ज्ञानथी मात्र पर पदार्थने जाण्यां, त्यां ऊंधी मान्यताथी
परमां कर्तापणुं जीवे मान्युं छे. ईन्द्रियज्ञान पराधीन छे ते तो परवस्तुनी वर्तमान स्थूळ पर्यायने जाणे छे,
पोताने जे विकल्प थाय तेने ते जाणतुं नथी तेम ज पोताना विकल्प रहित द्रव्य–गुणने पण जाणतुं नथी. जो
साचा ज्ञान वडे पोताना द्रव्य–गुण अने पर्यायने जाणे तो पोतानी अवस्थानुं कर्तापणुं माने अने परनुं
कर्तापणुं छोडे; पोतानी अवस्था माटे पर पदार्थ तरफ न जोतां जो पोताना द्रव्य तरफ जुए एटले के द्रव्यद्रष्टि
करे तो धर्म थाय. ईन्द्रियज्ञान विकारने के विकाररहित स्वभावने जोई शक्तुं नथी, ईन्द्रियज्ञान द्वारा ‘आत्मा शुं
करे छे? ’ ते जोई शकातुं नथी; मात्र जडनी क्रिया देखाय छे. जो आत्माना अवलंबन वडे स्वाधीन ज्ञान करीने
‘आत्मानी क्रिया शुं छे’ ते जाणे तो जडनी क्रियानुं कर्तापणुं माने नहि, ए रीते साचा ज्ञान वडे पोताना
स्वभावनी द्रढता थाय, परना कर्तापणानुं अभिमान टळे अने साचुं सुख प्रगटे.
: ५ :
प्रश्न:–अग्निने अडवाथी दझाय छे एम जाण्या पछी कोई अग्निने अडवाना भाव करता नथी तो पछी
सम्यग्द्रष्टि जीवो राग बूरो छे एम जाणे छे छतां रागमां केम जोडाय छे?
उत्तर:–पोताने खबर होय के आ वस्तु मने नुकशान करशे छतां तेमां जोडाया वगर कोई वखत रही
शकातुं नथी. जेम कोई घणा वगखनो रोगी होय तेने खबर होय के आ पेंडा वगेरे कुपथ्य छे ते मने नुकशान
करशे, वैदे पण ते खावानी ना पाडी होय छतां कोईवार रसनी गृद्धिने लीधे ते खाय छे, खाती वखते ज भान
छे के आ मने नुकशान करे छे छतां जेनाथी नुकशान थाय छे ते करे छे–तेम–ज्ञानीओ रागने पोतानुं स्वरूप
मानता नथी, तेमने द्रष्टिमां साची मान्यता होवा छतां चारित्रनी अस्थिरतामां तेमने अल्प बंधनुं कार्य थई
जाय छे. ज्ञानीने अभिप्रायमां रागनुं कर्तापणुं होतुं नथी तेथी “कार्य थई जाय छे” एम कह्युं छे; परंतु “करे छे”
एम कह्युं नथी केमके रुचि नथी, टाळवानी ज भावना छे. चारित्रनी अस्थिरतामां ज्ञानीने राग होय तेनाथी
तेओ लाभ मानता नथी पण नुकशान ज माने छे. ते रागथी स्वरूपनी निर्मळता अंशे हणाय छे, जो न ज
हणाती होय तो केवळज्ञान थई जाय. आ रीते ज्ञानीने राग होवा छतां अभिप्राय फरी गयो छे.
: ६ :
प्रश्न:–सम्यग्दर्शन [साची श्रद्धा] थयुं ते समये चेतनानो दर्शन उपयोग होय छे के ज्ञान उपयोग?
उत्तर:–सम्यक्श्रद्धा वखते स्व तरफनो ज्ञान उपयोग होय छे. ज्यारे सम्यग्दर्शन प्रगटे ते समये दर्शन
उपयोग होतो नथी पण स्व तरफनो जे ज्ञानोपयोग होय छे ते दर्शनउपयोगपूर्वक होय छे. सम्यक्श्रद्धा वखते
स्व तरफ वळेला ज्ञानने ईन्द्रियनुं अवलंबन नथी, बुद्धिपूर्वकना विकल्पो त्यां नथी. ते केवळज्ञाननो अंश छे.
मतिज्ञाने स्वनो विषय कर्यो छे माटे ते केवळज्ञाननो अंश छे. मतिज्ञान पोताना विषयने अभेदपणे ग्रहण