तेने स्वपर्यायना स्वसन्मुखपणावडे विकल्प तूटया वगर रहे नहि. महोत्सव करतां प्रथम स्वभावनो महिमा
आववो जोईए. स्वभावने भूलीने एकलो बहारनो महिमा करे ते आत्माने लाभनुं कारण नथी. पण
स्वभावना महिमा सहित बहारमां पण महोत्सव ऊजवे एमां तो उपादान–निमित्तनो मेळ छे. पोताना
स्वभावनो महिमा करे त्यां बहारमां पण भगवानना निर्वाणकल्याणक महोत्सव वगेरे निमित्तो होय छे. एक
पोताना सिद्ध स्वभावने कबुलतां अनंत सिध्धोनी कबुलात तेमां आवी गई छे; आ सामर्थ्य ज्ञाननी कळानुं छे,
बहारना ठाठ–माठनुं नथी.
नथी. पोतानुं ज्ञान सामर्थ्य पोताना ख्यालमां तो आवे छे परंतु अंतरमां पोते तेनो विश्वास के रुचि करतो
नथी, परिणतिने स्वसामर्थ्य तरफ वाळतो नथी पण परनो महिमा करवामां अटके छे तेथी ज केवळज्ञानदशा
प्रगटती नथी.
के शरीरथी वंदन थाय छे तेमां कया टाणे ज्ञाननुं कार्य नथी? कया आत्मप्रदेशे ज्ञाननुं कार्य नथी? दरेक वखते
ज्ञान तो सर्व आत्मप्रदेशे पोतानुं ज कार्य करे छे, ज्ञान सर्वव्यापक छे, विकल्प वखते पण तेनाथी जुदुं रहीने ते
पोतानुं कार्य करे छे. भगवान तरफना लक्ष वखते ज्ञान खरेखर तो भगवानने जाणतुं नथी पण भगवाननो
निर्णय करनार जे ज्ञान सामर्थ्य छे ते ज्ञानसामर्थ्यने ज पोते जाणे छे. जे ज्ञानना ख्यालमां भगवाननुं सामर्थ्य
आव्युं ते ज्ञानना सामर्थ्यनुं जेने माहात्म्य न आवे ते अंतर सन्मुखता करीने भगवान शी रीते थाय? स्वरूप
सन्मुख थईने जुए तो दरेक वखते पोताना ज्ञाननुं ज पोते माहात्म्य करे छे, क्यारेय परनुं माहात्म्य करतो
नथी. पोताना ज्ञानमां सिद्ध पर्यायनी प्रतीत करीने तेने ज जे धन्य माने ते बीजा कोईने पण धन्य केम माने?
जेणे सिद्धदशा अने केवळज्ञानने धन्य मान्यां ते ईन्द्रनी सामग्रीने, रतनना दीपकोने, पुण्यना विकल्प वगेरे
कोईने पण धन्य माने नहि.
कोई काम बताव! माग, जेटलुं जोईए तेटलुं माग! तुं जे माग ते हुं आपवा समर्थ छुं माटे मारी पासेथी
मागवुं होय ते माग. आम चक्रवर्ती राजा प्रसन्न थाय अने मागवानुं कहे त्यारे तेने कहे के “आ मारा
आंगणानुं वासीदुं काढी नाख”–ए ते कांई माग्युं कहेवाय? अरे भाई! तें शुं माग्युं? वासीदा काढवानां काम ते
शुं चक्रवर्ती राजा पासेथी लेवातां हशे? तेम अहीं आखो आत्मस्वभाव प्रसन्न थाय छे; कोने प्रसन्न थाय छे?
जे जीवे सिध्ध भगवाननो निर्णय कर्यो अने पोताना तेवा परिपूर्ण स्वभावनो निर्णय कर्यो ते जीवने स्वभाव
प्रसन्न थाय छे. ज्यां स्वभावने निर्णयमां लीधो त्यां पूर्ण स्वभाव प्रसन्न थईने कहे छे के, माग! माग!
जे दशा जोईए ते आपवा तैयार छुं, ताराथी थवाय तेटलो था, जेटली हदे थवुं होय तेटली हदे था, पूरुं
सिध्धपद माग! हुं आ ज क्षणे ते तने दऊं...आ रीते जे पर्यायरूपे पोते थवा मागे ते पर्याय स्वभावमांथी
प्रगटी शके छे. ज्यां आखो स्वभाव रीझयो छे त्यां केवळज्ञान अने सिध्धपदरूपे थवाने बदले “मारे तो पुण्यरूपे
थावुं छे” एम जे कहे छे तेने मागता ज नथी आवडयुं. चक्रवर्तीने वासीदानुं कहे तेम पूर्ण ज्ञान स्वभाव पासेथी
ते विकारनां फोतरांनी मागणी करी! भाईरे! तें शुं मांग्युं? पूर्ण स्वभावने जेणे नथी जाण्यो ते पुण्यनी मागणी
करे छे, पूर्ण स्वभावमां तो एक समयमां केवळज्ञान अने सिध्धपदपणे थवानी ताकात छे, ताराथी थवाय तेटलो
था, पुण्यपणे थवुं छे एम न माग, सिध्धपणे थवानी भावना कर, अने जेटलो थई शक तेटलो था, अस्थिरता
रही जाय तेने जाण, पण ते रूपे थवानी भावना न कर....!