: ४८ : आत्मधर्म मागशर : २४७२
११. भेदज्ञान साबु भयो रे, समरस निर्मल नीर,
धोबी अंतर आतमारे, धोवे निजगुण चीर...चेतन!
अर्थ–आ भेदज्ञानरूपी साबु अने समतारस [वीतरागभावत] रूपी पाणी वडे, पोताना शुद्ध ज्ञानस्वरूपने जाणनार
ज्ञानी जीव, पोताना गुणोरूपी वस्त्रने धूए छे– पवित्र करे छे. हे चेतन! अज्ञानने छोडीने तुं भेदज्ञानने धारण कर.
१२. राग विरोध विमोह मली रे, एही आश्रव मूल
एही करम बढाय के रे, करे धर्मकी भूल...चेतन!
अर्थ–मिथ्यात्वना महामोह साथे मळेला राग–द्वेष ए ज मुख्य आस्रव छे, अने ते ज [मिथ्यात्वज] आत्मानी अशुद्धता
वधारीने धर्मनी भूल करे छे अर्थात् आत्मानी पवित्रताने रोके छे. माटे हे चेतन! ते मोहने छोडीने तुं सम्यग्ज्ञानने धारण कर.
१३. ज्ञान सरूपी आतमा रे, करे ग्यान नहि और;
द्रव्य कर्म चेतन करे रे, एह व्यवहारकी दोर...चेतन!
अर्थ–आ आत्मा ज्ञानस्वरूपी छे–ते जाणनार ज छे, ज्ञान सिवाय बीजुं कांई ते करतो नथी. ज्ञानस्वरूपी आत्मा
द्रव्यकर्म बांधे छे ए व्यवहारनी [बोलवा मात्र] रीत छे अने खरेखर तेम मानी लेवुं ते अज्ञानी जीवनी रीत छे. माटे हे
चेतन! अज्ञानने छोडीने सम्यग्ज्ञानने धारण कर.
१४. करता परिणामी द्रव्य रे, कर्मरूप परिणाम;
किरिया परजयकी फिरत रे, वस्तु एक त्रय नाम...चेतन!
अर्थ–जे अवस्थारूपे द्रव्य पोते परिणमे ते अवस्थानुं ते द्रव्य कर्ता छे अने जे अवस्थारूप परिणाम थया ते तेनुं
[कर्तानुं] कार्य छे. एक परिणाममांथी बीजा परिणामपणे बदलवुं ते द्रव्यनी क्रिया छे; आ कर्ता, कर्म अने क्रिया एवा त्रण
नाम भेद पाड्या छे परंतु ते त्रणे एक ज वस्तु छे–जुदा नथी.
नोंध:– आमां स्पष्ट कह्युं छे के कर्ता, कर्म अने क्रिया एक ज द्रव्यमां होय, कोई द्रव्यना कर्ता, कर्म, के क्रिया ते द्रव्यथी
जुदा होय ज नहि–एटले एक द्रव्य बीजा द्रव्यनुं कांई पण करी शके ज नहि. आत्मा ज्ञानस्वरूप छे तेनुं बदलवुं [परिणमन]
ज्ञानस्वरूप ज छे, तेथी आत्मा ज्ञाननो ज कर्ता छे अने ज्ञान ज आत्मानी क्रिया छे, आत्मा परनुं करतो नथी. चैतन्य
पदार्थनी क्रिया चैतन्यमां ज होय छे, चैतन्य पदार्थनी क्रिया परमां होती नथी. आम समजीने हे चेतन! तुं मोहने छोड अने
सम्यग्ज्ञानने धारण कर.
१५. करता कर्म, क्रिया, करे रे, क्रिया करम करतार;
नाम भेद बहुविध भयेरे, वस्तु एक निर्धार...चेतन!
अर्थ–अमुक कर्ता अमुक कर्म अने क्रियाने करे छे, तथा अमुक क्रिया अने कर्म ते अमुक कर्तानां करेलां छे–एम अनेक
प्रकारथी नाम भेद छे परंतु कर्ता, कर्म अने क्रिया ए त्रणे वस्तु तो एकज द्रव्य छे एम नक्की करवुं. आथी एम निर्णय थयो के
आत्मा, ज्ञान अने ज्ञाननी क्रिया ए त्रणे अभेदरूप एक ज छे, तेथी हे चेतन! तुं अज्ञानने छोडीने सम्यग्ज्ञानने धारण कर.
१६. एक कर्म कर्तव्यता रे, करे न करता दोय;
तेसे जस सत्ता सधीरे एक भावको होय...चेतन!
अर्थ–एक कर्मनुं कर्तापणुं बे कर्ताने होतुं नथी. अर्थात् बे द्रव्यो भेगा मळीने एक अवस्था करता नथी, तेथी जे बधी
होवारूप वस्तुओ छे ते दरेक पोताना एक भावनी ज कर्ता छे, कोई अन्यना भावनी कर्ता नथी. आम जाणीने हे चेतन! तुं
मोहनो संग छोड रे छोड अने सम्यग्ज्ञानरूपी अमृतरसने अंगीकार कर.
साधुपदनी महत्ता
१. साधुपद ए एक सामान्य पद नथी पण महान पद छे. सर्वज्ञ वीतराग तीर्थंकरदेवना धर्मवजीर गणधरदेव
नमस्कारमंत्र बोलतां लोकना सर्व साधुओने नमस्कार करे छे. जेओए अंशे वीतरागता प्रगट करी छे अने पूर्ण
वीतरागता प्राप्त करवा मथी रह्या छे एवाओ ज साधु होई शके अने तेथी तेओ ज धर्मबुद्धिए नमस्कारने योग्य छे.
गणधरदेव जेवा चार ज्ञानना धणी जेओने नमस्कार करे ते केवा पवित्र आत्माओ होवा जोईए तेनो जो थोडो वखत
पण विचार करवामां आवे तो तटस्थ जीवोने तुरत जणाई जाय के:– साधुपद ए एक महान पद छे अने तेनी संख्या
धीकता धर्मकाळमां पण अल्प होय छे, अने हालना विषमकाळमां तो लगभग शून्यवत् होई शके.
जिज्ञासुओ अने अग्रेसरोनी फरज
२. जेओ पोताने साधु माने छे अने बीजा पासे पोताने साधु मनाववा मागे छे तेमनी संख्या हाल घणी मोटी
देखाय छे, अने एमां एटलो झडपभेर कोईने कोई प्रकारे वधारो थतो रहे छे के तेमने साधु मानवामां जिज्ञासुओने
आनाकानी थया वगर रहे नहि. माटे जिज्ञासुओ अने समाजना अग्रेसरोए आ बाबतमां घणो ऊंडो अभ्यास अने
विचार करवानी जरूरीआत छे.
असाधुने साधु स्वीकारवानुं फळ
३. जीवो अज्ञानताना कारणे अनादि काळथी दुःखी छे. जीवनी जो मूळभूत भयंकर भूल न होय अने ते भूलनुं
पोषण ते क्षणे क्षणे कर्या करतो न होय तो दुःख होय ज नहि. ‘असाधु’ ने ‘साधु’ तरीके स्वीकारवाथी आ
अज्ञानदशाने