मागशर : २४७२ आत्मधर्म : ४९ :
साधु एटले शुं?
[संपादकीय]
पोषण मळे छे. आ नवा पोषणने
शास्त्रनी परिभाषामां ‘गृहीत
मिथ्यात्व’ कहेवामां आवे छे. आ
गृहीत मिथ्यात्वरूप खोटी मान्यतानो
नाश कर्या विना कोईपण जीवने
अनादि काळथी चाल्युं आवतुं अज्ञान
अने दुःख (अने जेने गृहीतमिथ्यात्व
कहेवामां आवे छे ते) टळे ज नहि पण
उलटुं वधु पोषाय, पछी ते जीव
लक्ष्मीवान होय के लक्ष्मी रहित होय.
अंधश्रद्धा स्वीकारवा योग्य नथी.
४. जिज्ञासुओ, मुमुक्षुओ
अने विचारकोए अंधश्रद्धाने
स्वीकारवी ते योग्य नथी. तेओ
साधुपद शुं छे तेनो साचो निर्णय
करवा ईन्तेजार होय छे. जेओ लौकिक
केळवणीमां आगळ वधेल छे,
बुद्धिशाळी छे, तेओ जो पोतानी
कुळगत साधुपणानी मान्यता साची
छे के केम तेनो निर्णय करवा धारे तो
तुरत ज करी शके एवी शक्ति धरावे
छे. माटे साधु कोण कहेवाय ते अहीं
कहेवामां आवे छे.
‘साधु’ नो अर्थ
५. ‘साधु’ ए भावसूचक
शब्द छे तेथी ते शब्द केवा भावने
सूचवे छे ते अहीं विचारीए–
ए विचारतां प्रश्न ए ऊठे छे
के ‘साधु’ शब्द ते कोई वस्तुने सूचवे
छे, के कोई गुणने सूचवे छे के कोई
गुणनी अवस्थाने सूचवे छे? तेनो
उत्तर ए छे के:–ते जीव वस्तुना
चारित्र गुणनी शुद्ध अवस्थाने सूचवे
छे. ‘साधु’ शब्दनो सामान्य अर्थ
एवो थाय छे के:–‘जे साधे ते साधु’
ए शब्दने धर्मने अंगे वापरवामां
आवे त्यारे तेनो अर्थ एवो थाय के:–
‘आत्माना शुद्धभावने जे साधे ते
साधु’ आ प्रमाणे अर्थ होवाथी
‘साधु’ पद धरावनारमां नीचेना
गुणो तो अवश्य होवा जोईए.
(१) आत्मा शुं छे तेनुं
यथार्थ ज्ञान तेने होवुं जोईए.
(२) आत्मानो शुद्ध धर्म शुं छे
तेनुं यथार्थ ज्ञान तेने होवुं जोईए.
(३) सम्यग्ज्ञानपूर्वक
आत्मानी शुद्ध अवस्थाने धारण करतो
धर्म तेनामां प्रगट थयो होवो जोईए
अने ते पदमां ते आगळ वधेलो होवो
जोईए.
(४) तेनुं आचरण आत्मानी
शुद्ध अवस्थाने वृद्धिगत करनारूं होवुं
जोईए.
आटलो अर्थ थयो तेमां एटलुं
तो आवी ज गयुं के–
(१) आत्मा शुं छे तेनुं यथार्थ
ज्ञान जेने न होय ते साधु होई शके
नहि.
(२) आत्मा शुं छे तेनुं यथार्थ
ज्ञान जेने न होय तेने आत्मानो शुद्ध
धर्म शुं छे तेनुं यथार्थ ज्ञान होई शके
नहि. अने तेवा ज्ञानरहित जीवो साधु
होई शके नहि.
(३) अने “कूळमां मनाता गुरू
के साधु ते साधु” एवी साधुपदनी
व्याख्या नथी, पण जे उपर कह्या ते
गुणो जेणे प्रगट कर्या होय तेओ ज
साधु छे.
साधुनुं स्वरूप
६. सम्यक्दर्शन–ज्ञान प्राप्त करी,
गृहस्थपणुं छोडी, विरागी बनी, समग्र
परिग्रह छोडी, शुद्धोपयोग धर्म
अंगीकार करी, अंतरंगमां ए
शुद्धोपयोग वडे जे पोते पोताने
अनुभवे छे ते साधु छे. परद्रव्यमां
अहंबुद्धि ते धरता नथी तेथी परद्रव्यनुं
जीव कांई करी शके एम तेओ मानता
नथी. पोताना ज्ञानादिक स्वभावने ज
पोताना माने छे. विकारी भावोमां
ममत्व (मारापणुं) करता नथी.
परद्रव्य तथा तेना स्वभावो ज्ञानमां
प्रतिभासे छे खरा, पण तेथी आत्माने
किंचितवत् लाभ–नुकशान थाय एम
मानता नथी अने तेथी तेमने ईष्ट–
अनिष्ट मानता नथी, अने तेमां
रागद्वेष करता नथी. अल्प रागद्वेष
थाय छे ते कर्म के परवस्तुना कारणे
थता नथी पण पोताना पुरुषार्थनी
नबळाईने कारणे (अल्प
अस्थिरता थती होवाथी) थाय छे–
एम तेओ माने छे. कदाचित् मंद
रागना कारणे शुभोपयोग थाय छे
त्यारे पांच महाव्रतनुं पालन करे छे,
परंतु ए रागभावने पण हेय जाणी
दूर करवा ईच्छे छे.
मुख्यपणे तो निर्विकल्प
स्वरूपाचरण विषे ज निमग्न छे.
परंतु कदाचित धर्मरुचिवाळा अन्य
जीवोने देखी, करूणा बुद्धिथी
धर्मोपदेश आपे छे.
साधुओने त्रण प्रकारना
कषायनो अर्थात् अनंतानुबंधी,
अप्रत्याख्यानी अने प्रत्याख्यानी
कषायनो अभाव छे. अने
संज्वलन कषायना देशघाती
स्पर्द्धकोनो ज उदय छे ते कषाय पण
नबळो ज छे. तेथी शीतादिक ऋतुना
कारणे शरीरने गमे ते थाय तोपण
तेमना परिणाम व्याकुळ थता नथी.
अने तेथी शरीरने ढांकवानो के
रक्षण आपवानो भाव ज तेमने
थतो नथी. एवी उच्च प्रकारनी
तेमनी पवित्रता छे. श्रीमद् राजचंद्रना उद्गारो
७. श्रीमद् राजचंद्र कहे छे
के:– “वीतरागोनो मत लोक
प्रतिकूळ थई पड्यो छे. रूढीथी जे
लोको तेने माने छे तेना लक्षमां पण
ते प्रतीत जणातो नथी. अथवा
अन्यमतने वीतरागनो मत जाणी
प्रवर्त्ये जाय छे. किंचित् सत्य बहार
आवतां पण तेमने प्राणघात तूल्य
दुःख लागतुं होय तेम देखाय छे.”
वळी तेओ कहे छे के:–
“ज्ञान, दर्शन, चारित्र्य
अने तप एम मोक्षमार्ग चार प्रकारे