Atmadharma magazine - Ank 026
(Year 3 - Vir Nirvana Samvat 2472, A.D. 1946)
(Devanagari transliteration).

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: ५० : आत्मधर्म मागशर : २४७२
कह्यो छे छतां प्रथमना बे पद तो तेमणे विसार्या जेवुं होय छे अने चारित्र्य शब्दनो अर्थ वेष तथा मात्र बाह्य
स्थितिमां समज्या जेवुं होय छे. ‘तप’ शब्दनो अर्थ मात्र उपवासादि व्रतनुं करवुं, ते पण बाह्यसंज्ञाथी–तेमां समज्या
जेवुं होय छे. वळी कदाचित् ज्ञान–दर्शनपद कहेवां पडे तो त्यां लौकिक कथन जेवा भावोना कथनने ज्ञान अने तेनी
प्रतीति अथवा ते कहेनारनी प्रतीतिने विषे दर्शन शब्दनो अर्थ समजवा जेवुं रहे छे”
वळी तेओ एवी मतलबे जणावे छे के–संसारना कामधंधामां मुख्य पणे जीवो रोकायेल रहे छे. थोडो कांई जे
तेमनो वखत रहे ते मोटे भागे कुगुरूओ लूंटी ल्ये छे.
आत्मसिद्धि शास्त्रमां पण तेओ कहे छे के :–
गच्छमतनी जे कल्पना ते नहि सद्व्यवहार
भान नहि निज रूपनुं ते निश्चय नहि सार. १३३.
उपरना तेमना कथनो घणा मर्मयुक्त छे. माटे सर्व लायक जीवोए विचारी रूढीमां नहि फसातां साधु पदना
अर्थनो यथार्थ निर्णय करवो जोईए.
आत्मज्ञान जेने नथी ते साधु नथी
८. आत्मज्ञान जेने नथी थयुं तेने सम्यग्दर्शन ज नथी ते तो मिथ्या–द्रष्टि छे, तेनुं ज्ञान के चारित्र्य सम्यक् होई
शके ज नहि– पण मिथ्या ज होय छे. सम्यग्दर्शन प्राप्त थया पहेलां चोथुं गुणस्थान पण प्राप्त थतुं नथी तो पछी छठ्ठा
अने सातमा गुणस्थान जेवी उंची दशा के जे साची साधु दशा छे ते तेमने होय ज कयांथी?
आत्मसिद्धि शास्त्र
९. आ शास्त्रमां कह्युं छे के :–
आत्मज्ञान त्यां मुनिपणुं, ते साचा गुरू होय,
बाकी कुळगुरू कल्पना, आत्मार्थी नहीं जोय. ३४.
तेनो अर्थ नीचेनी मतलबे लख्यो छे.
ज्यां आत्मज्ञान होय त्यां मुनिपणुं होय अर्थात् आत्मज्ञान न होय त्यां मुनिपणुं न संभवे. ज्यां सम्यकत्व
एटले आत्मज्ञान छे त्यां मुनिपणुं जाणो. जेमां आत्मज्ञान होय ते साचा गुरू छे एम जाणवुं. आत्मज्ञान रहित होय
तो पण पोताना कुळना गुरूने सद्गुरू (साचा साधु) मानवा ए मात्र कल्पना छे. आत्मार्थीओ तेमने साधु तरीके
स्वीकारता नथी.
साधुपद लेवानो क्रम
१०. मुनिपद लेवानो क्रम ए छे के– पहेलां तत्त्वज्ञान थया पछी उदासिन परिणाम थाय पछी परिषहादि सहन
करवानी शक्ति थाय अने ते गुणो प्राप्त करी पोतानी मेळे ज मुनि थवा ईच्छे त्यारे श्री गुरु तेने साधु धर्म अंगीकार करावे.
विपरीतता
११. हालमां एवी जातनी विपरीतता जोवामां आवे छे के तत्त्वज्ञान रहितना जीवोने अनेक लाभो बतावी
मुनिपद अपाय छे. तत्त्वज्ञान द्रष्टि थया विना विषयासकतपणुं टळे नहि अने तेथी तेओ तरफथी अन्यथा प्रवृत्ति थाय
ए देखीतुं ज छे.
सावचेतीनी जरूरीआत
१२. देव, गुरू, धर्म तो सर्वोत्कृष्ट पदार्थ छे. तेमना आधारे तो धर्म छे. आ मुख्य बाबत होवा छतां जो तेमां ज
शिथिलता राखवामां आवे तो जीव धर्मनुं स्वरूप समजी खरो धर्मी कयारे थाय? आ शिथिलता टाळवा माटे सर्वज्ञ
भगवाने कह्युं छे के–कुदेव, कुगुरू, कुधर्मनो त्याग न करवाथी जीवने मिथ्यात्व भाव घणो पुष्ट थाय छे माटे सर्वथा प्रकारे
कुदेव, कुगुरू अने कुधर्मना त्यागी थवानी जरूर छे. आ क्षेत्रे हाल देव–गुरू अने धर्मना संबंधमां शिथिलतानी अने
कुदेव, कुगुरू अने कुधर्मने मानवानी प्रवृत्ति विशेष जोवामां आवे छे; माटे तेना निषेधरूपे जे कथन सत् शास्त्रोमां
करवामां आव्युं छे तेने जाणी सावचेत थई मिथ्यात्वभाव छोडी पोतानुं कल्याण करवुं एज जरूरी छे.
हालना काळमां फेर
१३. श्रीमद् राजचंद्रना वखत करतां हालमां केळवणीनो प्रचार खूब वध्यो छे, अने तेथी युवको कांई पण
स्वीकारवानुं कहेवामां आवे त्यारे ‘शा माटे? [Why]’ एवो प्रश्न पूछी तेना कारणो मागे छे. बुद्धिगम्य कारणो
मागी तेनी परीक्षा करी सत्य ग्रहण करवानी रीत प्रशंसवा योग्य छे. वळी केटलोक वखत थया लोकोमां तत्वज्ञान
जाणवानी, वांचवानी अने तेनो अभ्यास करवानी रूचि जागी छे. अने ते वृद्धि पामती जाय छे माटे ते विशेष जागृत
करी ‘साधुपद’ शुं छे ए जेओ समजे तेने लाभ थया वगर रहे नहि.
शुं करवुं?
१४. ...माटे दरेक धर्माभिलाषी जीवोए ‘साधु’नुं स्वरूप समजवुं. कारण के ते संबंधनुं अज्ञान आत्माने महा
नुकशानकारक छे, आ स्वरूप समजवामां आवतां अने साची धर्म भावना वधतां तत्त्वज्ञान तरफ गृहस्थ वर्गनी रूचि
वधशे अने तेथी घणी अनिष्टता आपोआप टळी जशे.