Atmadharma magazine - Ank 026
(Year 3 - Vir Nirvana Samvat 2472, A.D. 1946)
(Devanagari transliteration).

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मागशर : २४७२ आत्मधर्म : ५१ :
श्री नियमसार शास्त्र पर : : : : : प्रवचनो
[श्र ि स्त्र प्र प्र
थई गया छे, टूंक वखतमां ज ते प्रगट थशे. आ प्रवचनोमां पाने पाने आत्माना परिपूर्ण
स्वाधीन स्वभावनुं अचिंत्य माहात्म्य झळके छे. परिपूर्ण आत्मिक स्वभावनां गाणां गातुं अने
स्त्र र् र् स्त्र त् स्ज् स्रू जा ]
१–[प्रवचनो पानुं ६४]
“आत्मानो वहालो अंतर स्वभाव तेनी सिध्धिनो उपाय आत्मज्ञान ज छे. पोते कोण छे ते जाण्याविना
तेमां ठरे नहि, अने ठर्या विना वीतरागता थाय नहि, वीतरागता वगर केवळज्ञान थाय नहि अने केवळज्ञान
वगर मुक्ति थाय नहि.
आत्मा पोते सुख स्वरूप छे, ते सुखनो उपाय आत्मज्ञान छे. आत्मानी रुचि वगर परनी रुचि खसे
नहि. आत्मानी पूर्ण स्वतंत्र दशानो उपाय सम्यग्दर्शन–ज्ञान अने चारित्र ज छे; आत्मज्ञान सुशास्त्रथी ज थाय
छे. वीतराग सिवाय बीजाना कथनथी आत्मभान थाय नहि; कारण के जेणे वस्तु संपूर्णपणे जाणी नथी, तेना
कथनमां संपूर्ण सत्य आवे नहि, सत्य शास्त्रनी उत्पत्ति आप्त मुखथी थाय छे.”
२–[पानुं–६६]
“तेमनी पासे [भगवान पासे] त्रणकाळ त्रणलोकने जाणनार अतिशय सम्यग्ज्ञानरूपी स्वराज्य छे;
राजा राज्यने जाणे ज छे, कांई बंगला वगेरेने साथे लई जतो नथी, मात्र ‘आ मारुं’ एम ममता सहित जाणे
छे. वीतरागदेवने केवळज्ञानद्वारा त्रणकाळ त्रणलोकनुं ज्ञान वर्ते छे, केवळीए ज्ञान कर्युं पण ममता न करी एज
खरूं स्वराज्य छे.”
[पानुं १९८–२००]
“भगवान आत्मा सदाय परिपूर्ण स्वभावे भर्यो छे. आत्माना गुणो जाय क्यां? आत्मामां ज भर्या छे,
पण तेने पोतानी श्रद्धा बेसती नथी, ए ज संसारनुं कारण छे; जेम मृगनी डूंटीमां कस्तुरी होय तेनी सुगंध
आवतां ते मृग जाणे के आ सुगंध क्यांथी आवती हशे? एम विचारीने ते बहारमां दोट मूके छे, खरेखर तो
पोतामांथी ज सुगंध आवे छे पण मृगने पोतानी कस्तुरीनो विश्वास नथी; तेने एम बेसी गयुं छे के ‘हुं आवुं
क्षुद्र प्राणी अने मारामां आवी ऊंची सुगंध केम होई शके?” बस! पोताना सामर्थ्यनो अविश्वास ए ज तेने
दुःखनुं कारण थाय छे; तेम आचार्यदेव कहे छे के–‘अरे प्रभु! तुं त्रण लोकनो नाथ छो, सिद्ध छो, तारुं सुख
तारामां भरचक पड्युं छे; तारे परनी जरूर नथी.’ ते वात अज्ञानीने बेसती नथी कारणके अनादिथी मारे पर
वस्तु वगर चाले नहि एम मानी बेठो छे ते मान्यता ज तेने पोतानो विश्वास थवा देती नथी.
आचार्यदेव कहे छे के:– खरेखर परमात्मा अने आ आत्मामां जे किंचित् फेर माने ते मिथ्याद्रष्टि
महापातकी छे, आत्माना गुणनी ते हिंसा करे छे. आत्मा ज्ञानानंद पवित्र स्वभावे भर्यो छे, तेमां अवस्थानुं
लक्ष करवुं नहि केमके अवस्था क्षणिक छे, अवस्था जेटलो आत्मा नथी. जेणे राग जेटलो आत्माने मान्यो
अथवा तो वीतरागदशा जेटलो आत्मा मान्यो तेणे बीजा अनंत गुणनो अने अनंत पर्यायना पिंडनो अनादर
कर्यो छे. जेणे आत्माने पर्याय जेटलो मान्यो तेणे द्रव्यने एक समय पूरतुं मान्युं. वीतराग पर्याय पण एक
समय पूरती ज छे, ते पर्याय जेवडो ज जेणे आत्मा मान्यो तेणे त्रिकाळी वस्तुने मानी नहि एटले तेनी
मान्यतामां तेणे अनंता गुणो अने अनंती पर्यायनो अनादर कर्यो ते ज अनंतु पाप छे, तेना जेवो कोई पापी
नथी. अखंड परिपूर्ण वस्तुने लक्षमां लीधा विना निर्मळदशा प्रगटे नहि.
वस्तु तो जेम छे तेम छे तेमां तकरार शुं? वस्तुमां कांई पण आडुं अवळुं चाले तेम नथी. शरीर, मन,
वाणी ते तो पर छे, पुण्य–पापनो निषेध तो क्यांय गयो, अहीं [सम्यग्दर्शनना विषयमां] तो तारी
(आत्मानी) वीतराग–पर्यायनो पण निषेध छे, केमके तुं (आत्मा) पर्याय जेटलो नथी. पर्याय एक समय
पूरती छे, ते अभूतार्थ छे [पर्यायने अभूतार्थ कहेतां ते ‘अभावरूप’ नथी, परंतु ते त्रिकाळ टकनार नथी माटे
अभूतार्थ छे] अने सम्यग्दर्शन अभूतार्थ पर्यायनो विषय करतुं नथी. अहीं तो मालवाळुं त्रिकाळी द्रव्य पड्युं छे
तेनी किंमत छे; तेमां राग तो क्यांय रह्यो, पण जे निर्मळ अवस्था ते पण मचक खाय छे–बदली जाय छे,
एकरूप वस्तु जेमां मचक नथी एनो ज सम्यग्दर्शनने आश्रय छे–ए ज सम्यग्दर्शननो विषय छे.”