: ७० : आत्मधर्म : पोष : २४७२ :
ज जाय छे, माटे अनंत तीर्थंकर भगवंतोए निश्चयवडे व्यवहारनो निषेध कर्यो छे.
अभव्य अने भव्यमिथ्याद्रष्टि जीव बहु तो अशुभ छोडी वैराग्य सुधी आवे, आ वैराग्यनो शुभराग
पण वर्तमान पूरतो छे त्यां वर्तमान उपर ज्ञाननुं लक्ष टकाववा करतां त्रिकाळी स्वभाव उपर ज्ञाननुं लक्ष
टकावी राखुं एम स्वभावना तरफ वीर्यनुं जोर न करे त्यां सुधी निश्चयनो आश्रय थतो नथी अने निश्चयना
आश्रय वगर व्यवहारनो पक्ष छूटतो नथी.
व्यवहारनो आश्रय तो जेनी कदी मुक्ति नथी एवो अभव्य जीव पण करे छे माटे निश्चयना आश्रये ज
मुक्ति थाय छे तेथी निश्चयनयवडे व्यवहारनय निषेध योग्य ज छे.
साचा देव–गुरु–शास्त्र शुं कहे छे एनो ज्ञानमां ख्याल आवे छे तेम ज पंचमहाव्रतादिना विकल्परूप
व्यवहार आव्यो तेने पण ज्ञान जाणे तो छे परंतु ते रागरूप व्यवहारथी निश्चय स्वभावनुं अधिकपणुं
[जुदापणुं] द्रष्टिमां ज्यां सुधी न बेसे त्यांसुधी निश्चयस्वभावमां वीर्यनुं जोर ठरे नहि अने निश्चय स्वभावना
आश्रय वगर निश्चयसमकित थाय नहि, निश्चयसमकित् वगर व्यवहारनो निषेध थाय नहि; आ रीते जीवने
व्यवहारनो सूक्ष्म पक्ष रही जाय छे.
‘राग ते वर्तमान पूरतो विकार छे, अवस्थाए अवस्थाए ते राग बदलतो जाय छे अने ते विकार
पाछळ निर्विकार स्वभावने धरनारुं द्रव्य कायम छे. ’ आम विकल्प वडे तो जीवने ख्यालमां आवे छे, पण ज्यां
सुधी त्रिकाळी स्वभावमां वीर्यने ढाळीने अरागी निश्चयस्वभावनुं जोर न आवे त्यां सुधी व्यवहारनो निषेध
थाय नहि, अने व्यवहारना निषेध वगर सम्यग्दर्शन थाय नहि.
अज्ञानीने व्यवहारनयना पक्षनो सूक्ष्म अभिप्राय रही जाय छे, ते केवळीगम्य छे; छद्मस्थने ते कदाच
द्रष्टिगोचर नथी पण होतो. ते अभिप्राय केवा प्रकारे रही जाय छे ते संबंधी कथन चाले छे.
आत्मा तद्न ज्ञान स्वभावी, एकलो ज्ञायक, शांत स्वरूपी छे. –आवा स्वभावने जाणतां छतां तेम ज
रागनो ख्याल आवतां छतां स्वभाव–तरफ वीर्य ढळीने अंतरथी ते वात बेसती नथी एटले वीर्य बहारमां
अटकी जाय छे. बहिरमुखभाव जेटलो हुं नहि एम जो स्वभावमां बेसे तो तेनुं वीर्य अधिक थईने निश्चयमां
ढळे अने निश्चयमां वीर्य ढळ्युं ते ज व्यवहारनो निषेध थई गयो छे.
अभव्य जीवने तेम ज बीजा मिथ्याद्रष्टि भव्य जीवोने स्वभावनो ख्याल आववा छतां तेओने स्वभावनुं
माहात्म्य नथी ज आवतुं. ‘ख्यालमां आवे छे’ एनो अर्थ अहीं सम्यग्ज्ञानमां आववानी वात नथी पण
ज्ञानावरणना क्षयोपशमना उघाडमां आ वातनो ख्याल आवे छे, अगीआर अंगना ज्ञानमां बधी वात आवे के
आत्मानो स्वभाव त्रिकाळ छे. –राग क्षणिक छे, आम ख्यालमां आवे छे–पण–रुचिनुं वीर्य शुभ तरफथी खसतुं नथी,
ऊंडे ऊंडे स्वभावनी माहात्म्य दशामां वीर्य वाळवुं जोईए ते पोते करतो नथी तेथी व्यवहारनो पक्ष रही जाय छे.
अहीं अभव्यनी वात तो द्रष्टांत तरीके छे, परंतु बधा मिथ्याद्रष्टि जीवो क्यांक व्यवहारना पक्षमां
अटक्या छे तेथी ज निश्चय सम्यग्दर्शन तेमने नथी. जैन साधु थईने अने साचा देव–गुरु–शास्त्रने मानीने,
तेओ शुं कहे छे ते ख्यालमां पण लीधुं परंतु वर्तमान पूरता वलणथी [अवस्थाना लक्षमां टकीने] वीर्य जोर करे
छे. ते वीर्यने वर्तमानथी खेसवीने त्रिकाळी स्वभाव तरफना वलणना जोरमां वाळतो नथी, वर्तमान पर्यायने
वर्तमान उपरथी खसेडीने त्रिकाळी तरफ वाळ्या वगर सम्यग्दर्शन थतुं नथी माटे सर्वज्ञ भगवाने सदाय
निश्चयना आश्रयथी व्यवहारनो निषेध कर्यो छे.
जीवने सत्य, ब्रह्मचर्य, अहिंसा वगेरे शुभरागरूप व्यवहारनो पक्ष छे–वर्तमान पूरता भावनो आग्रह
छे तेने बदले त्रिकाळी तरफ वीर्यनुं जोर देवुं जोईए तो निश्चयनो आश्रय थाय, परंतु त्रिकाळी तरफ वीर्यनुं जोर
नथी एटले वीर्य परमां (पराश्रित व्यवहारमां) ज अटकी जाय छे.
बहारना त्याग के वर्तन उपर सम्यग्दर्शन नथी, पण निश्चयस्वभावना आश्रयथी सम्यग्दर्शन छे. जीव
जो स्वभाव तरफनी रुचिमां वीर्यनुं जोर नथी करतो तो तेने व्यवहारनो पक्ष छूटतो नथी अने सम्यग्दर्शन थतुं
नथी. सम्यग्दर्शन अंतरना स्वभावनी चीज छे.
त्रिकाळी अने वर्तमान ए बंने पडखांनो ख्याल आववा छतां त्रिकाळी स्वभावनी रुचि तरफ ढळतो
नथी पण वर्तमान पर्यायनी रुचि तरफ ढळे छे. “आ स्वभाव छे–आ स्वभाव छे.” एम जो स्वभावनी
रुचिमां वलण करे तो वर्तमान उपरनुं जोर तरत ज छूटी जाय; पण त्रिकाळी स्वभावने ‘आ–छे’ एम रुचिमां
लेवाने बदले, वर्तमान शुभरागमां ‘आ राग छे’ एम वर्तमान उपर