Atmadharma magazine - Ank 027
(Year 3 - Vir Nirvana Samvat 2472, A.D. 1946)
(Devanagari transliteration).

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: पोष : २४७२ : आत्मधर्म : ७१ :
तेनुं वजन रहे छे तेथी त्रिकाळ एकला ज्ञायक स्वभावमां वीर्यनुं वलण अंतर परिणमतुं नथी एटले निश्चयनो
आश्रय थतो नथी अने व्यवहारनो पक्ष छूटतो नथी. व्यवहारनो पक्ष ते मिथ्यात्व छे.
आत्मानुं जे वीर्य कार्य करे छे ते तो अवस्थारूप (वर्तमान) ज छे, परंतु ते वर्तमान वीर्यने वर्तमानना
लक्ष उपर [अवस्थाद्रष्टिमां] टकावे अने त्रिकाळी अंतर स्वभाव तरफ वीर्यनुं जोर न करे तो विकल्प टळे नहि
अने सम्यग्दर्शन थाय नहि.
दरेक जीवने वर्तमान अवस्थामां वीर्यनुं कार्य तो थया ज करे छे, पण ते वीर्यने स्थापवुं छे क्यां तेनुं
भान नहि होवाथी जीवने व्यवहारनो पक्ष छूटतो नथी. “हुं एक ज्ञायकभाव छुं, वर्तमान अवस्था जेटलो नथी
पण अधिक त्रिकाळ सामर्थ्यनो पिंड छुं” आम पोताना निश्चयस्वभावनी रुचिना जोरमां वीर्यने स्थापवुं
जोईए–एकाग्र करवुं जोईए; जो निश्चयस्वभाव तरफना जोरमां अने रुचिमां वीर्यने न जोडे तो ते वीर्य
व्यवहारना पक्षमां जोडाय छे एटले तेने व्यवहारनो सूक्ष्म पक्ष छूटतो नथी.
ज्यारे व्यवहारना पक्षथी छूटीने वीर्यमां ज्ञायक स्वभावनुं वजन कर्युं त्यारे पण व्यवहारनुं ज्ञान तो
(गौणपणे) रहे छे, कांई ज्ञान छूटी जतुं नथी केमके ते तो सम्यग्ज्ञाननो अंश छे. व्यवहारनुं ज्ञान छूटीने
निश्चयनी द्रष्टि थती नथी, सम्यग्दर्शन थतां व्यवहारनुं ज्ञान तो रह्युं छे परंतु द्रष्टि तेना उपरथी ऊठीने स्वभाव
तरफ एकाग्र थई छे; आ रीते, निश्चयना आश्रय वखते व्यवहारनो पक्ष छूटी जतो होवा छतां, ज्ञान तो
सम्यग्ज्ञानरूप अनेकांत ज रहे छे, परंतु ज्ञान ज्यारे सर्वथा व्यवहार तरफ ढळे छे त्यारे निश्चयनयनो आश्रय
जरापण नहि होवाथी ते व्यवहारना पक्षवाळुं ज्ञान मिथ्यारूप एकांत छे. सम्यग्दर्शन थया पछी निश्चयनो
आश्रय थयो होवा छतां, ज्यां सुधी अपूर्ण भूमिका छे त्यां सुधी व्यवहार रहे छे खरो परंतु निश्चयनयाश्रित
जीवने ते तरफ आसक्ति नथी, वीर्यनुं जोर व्यवहार तरफ ढळतुं नथी.
साचा देव–गुरु–शास्त्रनी ओळखाण, नवतत्त्वनुं ज्ञान, ब्रह्मचर्यनुं पालन, पूजा, व्रत, तप, भक्ति वगेरे
करवां छतां जीवने मिथ्यात्व केम रही जाय छे? केमके जीव ‘आ वर्तमान परिणाम ज हुं छुं अने तेनाथी ज मने
लाभ छे’ एम वर्तमान उपर ज लक्षने टकावीने त्यां अटकी गयो परंतु त्रिकाळी एकरूप निरपेक्ष स्वभाव तरफ
न वळ्‌यो तेथी ज मिथ्यात्व रही गयुं छे. जो जीव वर्तमान उपरना लक्षने छोडीने त्रिकाळी स्वभावने लक्षमां ल्ये
तो ते सम्यग्द्रष्टि थाय, केमके सम्यग्दर्शननो आधार
[आश्रयभूत वस्तु] त्रिकाळी स्वभाव छे, वर्तमान वर्तती
पर्यायना आधारे सम्यग्दर्शन प्रगट थतुं नथी.
निश्चय–अखंड अभेद स्वभाव तरफ ढळतां वच्चे जे विकल्पादिरूप व्यवहार आवे तेने माटे खेद जोईए,
एने बदले तेनी जे होंश करे छे तेने स्वभावनो आदर टळी जाय छे–एटले ते मिथ्यात्वी ज रहे छे. निश्चय
स्वभाव तरफना वीर्यनो उल्लास थवाने बदले व्यवहारमां जेनुं वीर्य उल्लसित थाय छे तेने स्वभाव तरफनुं
उल्लसितपणुं परावलंबने पड्युं छे तेथी जीवने व्यवहारनो पक्ष खसतो नथी.
व्यवहारनी रुचिवाळो जीव भगवानना दिव्यध्वनिनो उपदेश सांभळीने तेमांथी पण व्यवहारनी ज
रुचिने पोषे छे; “भगवाननी वाणीमां निश्चय स्वभावनो अने व्यवहारनो बंनेनो मेळ कर्यो–अर्थात् बंने
नयोने सरखी हदे राख्या” एम मानीने ते अज्ञानी जीव पोतानी व्यवहारनी पक्कडने द्रढ करे छे. परंतु
भगवाननी वाणी तो निश्चयनो आश्रय करीने व्यवहारनो निषेध करवानुं कहे छे, ए रीते निश्चयनय अने
व्यवहारनय ए बंनेनो दूमेळ [परस्पर विरोध] वर्ते छे तेने ते जाणतो नथी, रुचि करतो नथी अने
व्यवहारनयनो निषेध करीने निश्चयमां वीर्यने उल्लसित करतो नथी. निश्चयना आश्रयनो उल्लास नहि होवाथी
वच्चे व्यवहार आवे छे. तेनो खेद करवाने बदले ‘व्यवहार वच्चे आवे छे तो खरोने!’ एम व्यवहारनी ऊंडी
सूक्ष्म मिठाश मिथ्याद्रष्टिने रहे छे, तेथी पोताना स्वभावमां उल्लास लावीने ते सम्यग्द्रष्टि थई शकतो नथी.
प्रश्न:– आमां एकांत निश्चय नथी थई जतो?
उत्तर:– ना, आमां ज साचो अनेकान्त छे. निश्चय स्वभावने अने रागने बंनेने जाणीने ज्यारे वीर्यना
जोरने निश्चयस्वभावमां लाववुं छे त्यारे ज्ञानमां गौणपणे ख्याल तो छे के अवस्थामां विकार थाय छे,
स्वभावमां ढळनार जीव अवस्थाथी पोताने केवळज्ञानी मानता नथी. आ रीते ज्ञानमां निश्चय व्यवहार बंनेने
जाणीने निश्चयनो आश्रय अने व्यवहारनो निषेध कर्यो ते ज अनेकांतपणुं थयुं. बंने पक्ष जाणीने एकमां आरूढ
थयो, बीजामां अनारूढ थयो एटले के निश्चयमां ढळ्‌यो