समजे तो सम्यग्दर्शन थाय ज.
कंटाळो थाय अथवा ‘आवो अघरो–कठण मार्ग? ’ एम स्वभाव तरफ अरुचि लागे तो तेने स्वभावनी अरुचि
अने रागनी रुचि छे. केमके रागमां पोतानुं वीर्य काम करी शके अने रागरहित स्वभावमां वीर्य काम न करे–एवी
तेनी मान्यता छे. आ पण वर्तमान पूरता व्यवहारनो ज तेने पक्ष छे. स्वभावनी वात सांभळता ते तरफ महिमा
लावीने ‘अहो! आतो मारुं ज स्वरूप बतावी रह्या छे’ एम स्वभाव तरफ वीर्यनो उल्लास आववो जोईए. पण
जो “आ काम आपणाथी न थाय” एम माने तो ते वर्तमान पूरता रागनी पक्कडमां अटकी गयो छे; पण रागथी
जुदो पड्यो नथी. अरे भाई! ताराथी रागनुं कार्य थाय अने रागथी छूटा पडीने रागरहित ज्ञाननुं काम के जे
तारो स्वभाव ज छे ते ताराथी न थाय–एम जो तें मान्युं तो त्रिकाळी स्वभावनी आड मारी होवाथी (अरुचि
करी होवाथी) तने सूक्ष्मपणे रागनी मीठाश छे–व्यवहारनी पक्कड छे, एटले ज सम्यग्दर्शन थतुं नथी.
तेनी मीठाश छूटी एटले रागनी मीठाश थई, निश्चय स्वभावनी अपूर्व वात जीव कदी समज्यो नथी अने कोईने
कोई प्रकारे व्यवहारनी रुचि रही गई छे.
शुद्धनयनो हस्तावलंब जाणी बहु कर्यो छे पण एनुं फळ संसार ज छे. शुद्धनयनो पक्ष तो कदी आव्यो नथी अने
एनो उपदेश पण विरल छे–क्यांक क्यांक छे. तेथी उपकारी श्री गुरुए शुद्धनयना ग्रहणनुं फळ मोक्ष जाणीने
एनो उपदेश प्रधानताथी दीधो छे के–“शुद्धनय भूतार्थ छे, सत्यार्थ छे; एनो आश्रय करवाथी सम्यग्द्रष्टि थई
शकाय छे; एने जाण्या विना ज्यां सुधी जीव व्यवहारमां मग्न छे त्यां सुधी आत्मानां ज्ञान–श्रद्धानरूप निश्चय
सम्यक्त्व थई शकतुं नथी.”
स्वभावमां काम करी शके नहि एटले तेने व्यवहारनी द्रढता खसे नहि.
ज्ञान ते तो मिथ्यात्व पोषक छे तेनो तो निषेध छे ज, केमके तेमां तो व्यवहारपणुं पण नथी... कुदेवादिनी
मान्यता छोडीने अने साचा देव–गुरु–शास्त्रोए जे कह्यु्रं तेना ज्ञानने व्यवहार कह्यो छे अने ते ज्ञान पण निश्चय
सम्यग्दर्शननुं मूळ कारण नथी तेथी निश्चय स्वभावना जोरे ते व्यवहारनो निषेध छे. गृहीत मिथ्यात्व होय
तेनी तो आ वात ज नथी पण अहीं तो अगृहीत सूक्ष्म मिथ्यात्व दशामां जे व्यवहार छे तेनो निषेध छे. साचा
देव–गुरु–शास्त्र सिवाय बीजा कोई कुदेवादिने साचापणे जे माने ते ज्ञान तो व्यवहारथी पण दूर छे. जे निमित्तो
तरफथी वृत्तिने ऊठावीने स्वभावमां ढळवुं छे ते निमित्तो शुं छे तेनो जेने विवेक नथी तेने तो स्वभावनो विवेक
होय ज नहि, अने जेने साचा निमित्तो तरफ वलण थाय तेने स्वभावनो विवेक थाय ज एवो पण नियम
नथी. पण जे निश्चय स्वभावनो आश्रय करे तेने तो सम्यग्दर्शन थाय ज एवो नियम छे; तेथी ज निश्चयनयथी
व्यवहारनयनो निषेध छे.
लोकोत्तर पुण्य पण साचा देव–गुरु–शास्त्रना विकल्पथी छे. परंतु ते ज्ञान हजी पर तरफना वलणवाळुं छे, निश्चय