Atmadharma magazine - Ank 027
(Year 3 - Vir Nirvana Samvat 2472, A.D. 1946)
(Devanagari transliteration).

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: पोष : २४७२ : आत्मधर्म : ७३ :
दिव्यध्वनिनो आशय तो ख्यालमां आवे छे के “आम कहेवा मागे छे” परंतु तेनी रुचि नथी करतो.
क्षयोपशम भावे मात्र धारणाथी ख्याल करे छे परंतु यथार्थपणे रुचिथी समज्यो नथी. जो यथार्थपणे रुचिथी
समजे तो सम्यग्दर्शन थाय ज.
स्वभावनी वात ते वर्तमान विकल्पना राग करतां जुदी पडे छे. स्वभावनी रुचिपूर्वक स्वभावनी वात जे
जीव सांभळे छे ते रागथी अंशे ते वखते जुदो पडीने सांभळे छे. जो स्वभावनी वात सांभळतां सांभळतां
कंटाळो थाय अथवा ‘आवो अघरो–कठण मार्ग? ’ एम स्वभाव तरफ अरुचि लागे तो तेने स्वभावनी अरुचि
अने रागनी रुचि छे. केमके रागमां पोतानुं वीर्य काम करी शके अने रागरहित स्वभावमां वीर्य काम न करे–एवी
तेनी मान्यता छे. आ पण वर्तमान पूरता व्यवहारनो ज तेने पक्ष छे. स्वभावनी वात सांभळता ते तरफ महिमा
लावीने ‘अहो! आतो मारुं ज स्वरूप बतावी रह्या छे’ एम स्वभाव तरफ वीर्यनो उल्लास आववो जोईए. पण
जो “आ काम आपणाथी न थाय” एम माने तो ते वर्तमान पूरता रागनी पक्कडमां अटकी गयो छे; पण रागथी
जुदो पड्यो नथी. अरे भाई! ताराथी रागनुं कार्य थाय अने रागथी छूटा पडीने रागरहित ज्ञाननुं काम के जे
तारो स्वभाव ज छे ते ताराथी न थाय–एम जो तें मान्युं तो त्रिकाळी स्वभावनी आड मारी होवाथी (अरुचि
करी होवाथी) तने सूक्ष्मपणे रागनी मीठाश छे–व्यवहारनी पक्कड छे, एटले ज सम्यग्दर्शन थतुं नथी.
राग रहित ज्ञायक स्वभावनी वात आवे त्यां जो जीवने एम थाय के ‘आ काम केम थाय?’ तो तेनुं
वीर्य व्यवहारमां अटकी गयुं छे एटले तेने स्वभावनी द्रष्टिथी सम्यग्दर्शन प्रगटतुं नथी. सूक्ष्म ज्ञानस्वभाव छे
तेनी मीठाश छूटी एटले रागनी मीठाश थई, निश्चय स्वभावनी अपूर्व वात जीव कदी समज्यो नथी अने कोईने
कोई प्रकारे व्यवहारनी रुचि रही गई छे.
श्री समयप्राभृतमां जयचंद्रजी पंडित कहे छे के “प्राणीओने भेदरूप व्यवहारनो पक्ष तो अनादि काळथी
ज छे अने एनो उपदेश पण बहुधा सर्व प्राणीओ परस्पर करे छे. वळी जिनवाणीमां व्यवहारनो उपदेश
शुद्धनयनो हस्तावलंब जाणी बहु कर्यो छे पण एनुं फळ संसार ज छे. शुद्धनयनो पक्ष तो कदी आव्यो नथी अने
एनो उपदेश पण विरल छे–क्यांक क्यांक छे. तेथी उपकारी श्री गुरुए शुद्धनयना ग्रहणनुं फळ मोक्ष जाणीने
एनो उपदेश प्रधानताथी दीधो छे के–“शुद्धनय भूतार्थ छे, सत्यार्थ छे; एनो आश्रय करवाथी सम्यग्द्रष्टि थई
शकाय छे; एने जाण्या विना ज्यां सुधी जीव व्यवहारमां मग्न छे त्यां सुधी आत्मानां ज्ञान–श्रद्धानरूप निश्चय
सम्यक्त्व थई शकतुं नथी.”
[समयसार गुजराती पानुं–२१]
आत्माना निश्चय स्वभावनी वात करतां व्यवहार गौण थाय त्यां जो स्वभावना कार्य माटे वीर्य नकार
करे अने व्यवहार माटे रुचि करे तो तेने स्वभावनी रुचि नथी; अने स्वभाव तरफनी रुचि वगर वीर्य
स्वभावमां काम करी शके नहि एटले तेने व्यवहारनी द्रढता खसे नहि.
आ निश्चयनय व्यवहारनो निषेध करे छे एम ज्ञानीओ वारंवार कहे छे तेमां व्यवहारना स्वरूपनुं ज्ञान
पण भेगुं आवी जाय छे. जे व्यवहारनो निश्चयनय निषेध करे छे ते व्यवहार क्यो? कुदेवादिनी मान्यतारूप जे
ज्ञान ते तो मिथ्यात्व पोषक छे तेनो तो निषेध छे ज, केमके तेमां तो व्यवहारपणुं पण नथी... कुदेवादिनी
मान्यता छोडीने अने साचा देव–गुरु–शास्त्रोए जे कह्यु्रं तेना ज्ञानने व्यवहार कह्यो छे अने ते ज्ञान पण निश्चय
सम्यग्दर्शननुं मूळ कारण नथी तेथी निश्चय स्वभावना जोरे ते व्यवहारनो निषेध छे. गृहीत मिथ्यात्व होय
तेनी तो आ वात ज नथी पण अहीं तो अगृहीत सूक्ष्म मिथ्यात्व दशामां जे व्यवहार छे तेनो निषेध छे. साचा
देव–गुरु–शास्त्र सिवाय बीजा कोई कुदेवादिने साचापणे जे माने ते ज्ञान तो व्यवहारथी पण दूर छे. जे निमित्तो
तरफथी वृत्तिने ऊठावीने स्वभावमां ढळवुं छे ते निमित्तो शुं छे तेनो जेने विवेक नथी तेने तो स्वभावनो विवेक
होय ज नहि, अने जेने साचा निमित्तो तरफ वलण थाय तेने स्वभावनो विवेक थाय ज एवो पण नियम
नथी. पण जे निश्चय स्वभावनो आश्रय करे तेने तो सम्यग्दर्शन थाय ज एवो नियम छे; तेथी ज निश्चयनयथी
व्यवहारनयनो निषेध छे.
शास्त्र तरफनुं विकल्पथी ज्ञान ते व्यवहार छे ते ज्ञान तरफथी वीर्य खसेडीने स्वभावमां वाळवानुं छे;
सत्तना निमित्त तरफना भावे जेवां पुण्य बंधाय छे तेवां पुण्य अन्य निमित्तोना वलणथी बंधातां नथी, एटले
लोकोत्तर पुण्य पण साचा देव–गुरु–शास्त्रना विकल्पथी छे. परंतु ते ज्ञान हजी पर तरफना वलणवाळुं छे, निश्चय