: ७४ : आत्मधर्म : पोष : २४७२ :
स्वभाव तरफना वलणवाळुं नथी तेथी तेनो निषेध छे. जेम गांडा मनुष्यनुं ज्ञान निर्णय वगरनुं होवाथी तेनुं
मातानुं माता तरीकेनुं जाणपणुं ते पण खोटुं छे, तेम अज्ञानीनुं स्वभाव तरफना निर्णय वगरनुं ज्ञान दोषित
थया वगर रहे ज नहि.
सर्वज्ञ भगवाने कहेला कथन तरफनुं वलण ते पण व्यवहार तरफनुं वलण छे. वीतराग शासनमां कहेलां
जीवादि नव तत्त्वोनी विकल्पथी साची श्रद्धा ते पुण्यनुं कारण छे, केमके तेमां भेदनुं अने परनुं लक्ष छे. पर लक्ष
ते धर्मनुं कारण नथी. जे जीव निमित्तथी रोकाणो छे पण निमित्त तरफथी उपडीने हजी स्वभाव तरफ वळ्यो नथी
तेने निश्चयसम्यग्दर्शन नथी.
आचारांग वगेरे साचां शास्त्रो जीव–अजीवादि नव तत्त्वोनुं स्वरूप अने एकेन्द्रिआदि छ जीव–निकायनुं
प्रतिपादन वीतराग जिनशासन सिवाय अन्य कोईमां तो छे ज नहि, परंतु वीतराग जिनशासनमां कह्या
प्रमाणे शास्त्रोनुं साचुं ज्ञान करे, जीवादि नवतत्त्वोनी यथार्थ श्रद्धा करे अने छ जीव निकायने मानीने तेनी दया
पाळे ते पण पुण्यनुं कारण छे, अने तेने व्यवहार दर्शन ज्ञान–चारित्रपणुं (जे जीव निश्चय सम्यग्दर्शन प्रगट
करशे तेने माटे) कहेवाय छे; पण परमार्थ द्रष्टि तेने दर्शनज्ञान–चारित्र तरीके स्वीकारती नथी; केमके
जिनशासनना व्यवहार सुधी आववुं ते धर्म नथी, पण जो निश्चय आत्मस्वभाव तरफ ढळीने ते व्यवहारनो
निषेध करे तो धर्म छे. आ रीते निश्चयनय व्यवहारनो निषेध करे छे.
आ व्याख्यानमां अज्ञानीने व्यवहारनयनी सूक्ष्म पक्कड क्यां रही जाय छे तथा निश्चयनयनो आश्रय केम
थाय ते बताव्युं अर्थात् मिथ्याद्रष्टि जीवोने मिथ्यात्व केम रही जाय छे तथा सम्यग्दर्शन केम प्रगटे–ते बताव्युं.
वळी आ विषयने लगतुं कथन मोक्षमार्ग प्रकाशकमां पण आवे छे, ते नीचे मुजब छे:–[का. सु. ९ चर्चा]
मो. प्र. ८९ पानुं “...सत्य जाणे छतां ते वडे पोतानुं अयथार्थ प्रयोजन ज साधे छे तेथी तेने सम्यग्ज्ञान
कहेतां नथी.”
ज्ञानना क्षयोपशममां निश्चय–व्यवहार बंनेनो ख्याल आवे छे छतां जोर निश्चय तरफ ढाळवुं जोईए
तेने बदले व्यवहार तरफ ढाळे छे, एटले व्यवहारनो पक्ष रही जाय छे.
अज्ञानी करे छे. ‘व्यवहार! व्यवहार! अने ज्ञानी करे छे–निश्चयना आश्रये व्यवहारनो निषेध! निषेध!’
मो. प्र. २४१ पानुं “वळी श्री समयसारजीमां कह्युं छे के–जेने आगम ज्ञान एवुं थयुं छे के जे वडे सर्व
पदार्थोने हस्तामलकवत् जाणे छे तथा एम पण जाणे छे के ‘आनो जाणवावाळो हुं छुं’ परंतु ‘हुं ज्ञान स्वरूप
छुं’ एवो पोताने परद्रव्यथी भिन्न केवळ चैतन्य द्रव्य अनुभवतो नथी.” एटले के स्व–परने जाणवा छतां
पोताना निश्चय स्वभाव तरफ ढळतो नथी, परंतु व्यवहारनी पक्कडमां अटके छे. माटे ज्ञानमां ख्याल होवा छतां
तेने ते कार्यकारी नथी, केमके ते निश्चयनो आश्रय लेतो नथी.
• प्रभुता अने पामरता •
जेम जेम पर्याय वधती जाय तेम तेम विवेक अने नम्रता वधती जाय छे. ज्ञानीने भान छे के स्वभावथी
हुं पूरो परमात्मा ज छुं पण पर्यायथी पामर छुं... द्रव्यथी प्रभु अने अवस्थाथी पामर! आम पोताना ज्ञानमां
द्रव्य–पर्यायनी संधि करनार ज्ञानीओ पूर्ण स्वभाव तरफ ढळे छे, जेम जेम पूर्ण स्वभाव तरफ ढळता जाय छे
तेम तेम अवस्थानी निर्मळता वधती जाय छे... पूर्ण स्वभाव तरफनुं जोर छे, अने अवस्थानी निर्मळता वधती
जाय छे त्यां ज्ञानीने ते अवस्थानो अहंकार आवतो नथी, पण उलटा स्वभाव तरफनी विशेष–विशेष नम्रताथी
एम भावना करे छे के– ‘अहो! स्वरूपथी तो हुं पूर्ण परमात्मा ज छुं, छतां हजी पर्यायमां पामरता छे, परिपूर्ण
केवळदशा जोईए तेने बदले हजी अनंतमा भागे दशा उघडी छे ते अपूर्णताने पूर्ण स्वभावना जोरे जे क्षणे टाळुं
ते क्षणने धन्य छे...’ आम ज्ञानीने द्रष्टिमां पूर्णता ज छे, ज्ञानमां पूर्ण स्वभाव अने अपूर्ण दशा बंनेनुं भान
छे अने पूर्णतानी भावना छे तेथी स्वभावना जोरे संपूर्ण स्थिरता प्रगटावी अल्पकाळमां अपूर्णता टाळी तेओ
पूर्ण थई जाय छे... पूर्ण स्वभावनी द्रष्टिनुं ज आ फळ छे...
• उत्सह •
अपूर्व आत्मस्वरूपनी प्राप्ति माटे कूदतुं वीर्य जोईए, उत्साहित भाव जोईए. पूरानी प्रतीत जोईए अने
पूराना लक्षनो पूर्ण उत्साह जोईए... पूर्ण स्वभाव तरफनुं उत्साहित वीर्य केवळज्ञान लईने ज पूरुं थाय...