Atmadharma magazine - Ank 028
(Year 3 - Vir Nirvana Samvat 2472, A.D. 1946)
(Devanagari transliteration).

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: माह : २४७२ आत्मधर्म : ७९ :
वर्ष त्रीजुं माह
अंक चोथो २४७२
स् िप्रक्ष् ि
गाथा ३२१ – ३२ – ३२३ पू. सद्गुरुदेवनुं व्याख्यान.
स्वभावनो अनंत पुरुषार्थ क्रमबद्धपर्यायनी श्रद्धामां आवे छे. क्रमबद्धपर्यायनी श्रद्धा ते
नियतवाद नथी, पण सम्यक् पुरुषार्थवाद छे.
(‘वस्तुनी पर्याय क्रमबद्ध ज थाय छे. तोपण पुरुषार्थ वगर शुद्धपर्याय कदापि प्रगटती नथी’ ए सिद्धांत उपर
मुख्यपणे आ व्याख्यान छे. आ व्याख्यानमां १ – पुरूषार्थ, २ – सम्यग्द्रष्टिनी धर्मभावना, ३ – सर्वज्ञनी साची श्रद्धा, ४ – द्रव्यद्रष्टि,
प – जड अने चेतन पदार्थोनी क्रमबध्ध पर्याय, ६ – उपादान – निमित्त, ७ – द्रव्य – गुण – पर्याय, ८ – सम्यग्दर्शन, ९ – कर्तापणुं अने
ज्ञातापणुं, १० – साधकदशा, १ – कर्ममां उदीरणा वगेरे प्रकारो, १२ – मुक्तिनां नि:संदेह भणकार, १३ – सम्यग्द्रष्टि अने मिथ्याद्रष्टि,
१४ – अनेकांत अने एकांत, १प – पांच समवाय. १६ – अस्ति – नास्ति, १७ – निमित्त – नैमित्तिक संबंध, १८ – निश्चय – व्यवहार, १९ –
आत्मज्ञ तथा सर्वज्ञ अने २० – निमित्तनी हाजरी होवा छतां निमित्त वगर कार्य थाय छे ए वगेरेना स्वरूपनुं स्पष्टीकरण
आवी जाय छे. आमां अनेक पडखांथी वारंवार स्वतंत्र पुरुषार्थने सिद्ध कर्यो छे अने ए रीते पुरूषार्थस्वभावी आत्मानी
ओळखाण करावी छे. जिज्ञासुओ आ व्याख्याना रहस्यने समजीने आत्माना स्वतंत्र सत्य पुरुषार्थनी ओळखाण करी ते
तरफ वळ! अ भलमण छ.)
भगवान स्वामीकार्तिकेयाचार्ये आ त्रण गाथाओमां सम्यग्द्रष्टि जीव वस्तुस्वरूपनुं केवुं चिंतवन करे छे
अने पुरुषार्थनी भावना करे छे ते बताव्युं छे, आ खास जाणवा जेवुं होवाथी आजे वंचाय छे. मूळ शास्त्रनी
गाथा नीचे मुजब छे:–
“हवे सम्यग्द्रष्टिनो विचार केवो होय ते कहे छे–
जं जस्स जम्मिदेसे जेण विहाणेण जम्मि कालम्मि।
णादं जिणेण णियदं जम्मं वा अहव मरणं वा।। ३२१।।
तं तस्स तम्मिदेसे तेण विहाणेण तम्मि कालम्मि।
को सक्कइ चालेदुं इंदो वा अह जिणिंदो वा।। ३२२।।
अर्थ:– जे जीवने जे देशमां जे काळमां जे विधिथी जन्म तथा मरण तेमज दुःख, सुख, रोग, दारिद्र आदि,
जेम सर्वज्ञ देवे जाण्युं छे ते ज प्रमाणे नियमथी थवानुं. सर्वज्ञदेवे जाण्या प्रमाणे ज ते जीवने ते ज देशमां ते ज
काळमां ते ज विधिथी नियमथी थाय छे, तेने निवारी शकवा ईन्द्र तथा जिनेन्द्र तीर्थंकरदेव कोई पण समर्थ नथी.
भावार्थ:– सर्वज्ञदेव सर्व द्रव्य–क्षेत्र–काळ–भावनी अवस्था जाणे छे. ते सर्वज्ञना ज्ञानमां जे प्रतिभास्युं
छे ते चोक्कसपणे थाय छे तेमां अधिक–हीन कांई थतुं नथी–एवुं सम्यग्द्रष्टि विचारे छे.” (स्वामीका. अनुप्रेक्षा.
पानुं–१२प)
आ गाथामां सम्यग्द्रष्टि जीवनी धर्म अनुप्रेक्षा केवी होय ते बताव्युं छे. सम्यग्द्रष्टि जीव वस्तुना स्वरूपनुं
कई रीते चिंतवन करे छे ते आमां बताव्युं छे. सम्यग्द्रष्टिनी आ भावना दुःखना दिलासा खातर के खोटा
आश्वासन खातर नथी, पण जिनेश्वरदेवे जोयेलुं वस्तुस्वरूप जे प्रमाणे छे तेम पोते चिंतवे छे; आवुं ज
वस्तुस्वरूप छे, पण कल्पना नथी. आ धर्मनी वात छे. ‘ जे काळे जे अवस्था थवानी सर्वज्ञ भगवाने जोई ते
काळे ते ज अवस्था थाय, बीजी न थाय’ आमां एकांतवाद के नियतवाद नथी परंतु आमां ज साचो
अनेकांतवाद अने सर्वज्ञतानी भावना तेम ज ज्ञाननो अनंतो पुरुषार्थ आवे छे.
आत्मा सामान्य–विशेषस्वरूप वस्तु छे, अनादि अनंत ज्ञानस्वरूप ते सामान्य अने ते ज्ञानमांथी समये
समये जे पर्याय थाय छे ते विशेष छे. सामान्य पोते कायम रहीने विशेषपणे परिणमे छे; ते विशेष पर्यायमां
जो स्वरूपनी रुचि करे तो समये समये विशेषमां शुद्धता थाय छे, अने जो ते विशेष पर्यायमां ‘रागादि देहादि ते
हुं’ एवी ऊंधी रुचि करे तो विशेषमां अशुद्धता थाय छे. आ रीते स्वरूपनी रुचि करे तो शुद्धपर्याय क्रमबद्ध
प्रगटे छे; अने जो विकारनी–परनी रुचि होय तो अशुद्धपर्याय क्रमबद्ध प्रगटे छे; चैतन्यनी क्रमबद्ध पर्यायमां फेर
पडतो नथी, पण क्रमबद्धनो नियम एवो छे के जे तरफनी रुचि करे ते तरफनी क्रमबद्धदशा थाय छे. जेने क्रमबद्ध
पर्यायनी श्रद्धा थाय तेने द्रव्यनी