क्रमबद्धपर्याय ज थाय छे, तेमां फेर पडतो ज नथी’ एटलुं नक्की करवामां तो द्रव्य तरफनो अनंत पुरुषार्थ
आवी जाय छे. पर्यायनो क्रम फेरववो नथी, पण रुचि स्व तरफ करवानी छे.
कयां रह्यो?
हुं परमां शुं करूं? हुं तो मात्र जेम थाय तेम जाणुं एवुं मारूं स्वरूप छे; आवा निर्णयमां परनी अवस्थामां ठीक–
अठीक मानवानुं न रह्युं पण ज्ञातापणुं रह्युं, एटले ऊंधी मान्यता अने अनंतानुबंधी कषाय नाश थया. अनंत
परद्रव्यना कर्तृत्वपणानो महा मिथ्यात्वभाव टळीने पोताना ज्ञाता स्वभावनी अनंती द्रढता थई–आवो
स्वतरफनो अनंत पुरुषार्थ क्रमबद्धपर्यायनी श्रद्धामां थयो छे.
पडतो नथी, बधा पदार्थोनी समये समये जे अवस्था क्रमबद्ध होय ते ज थाय छे, आवा निर्णयमां सम्यग्दर्शन
आवी गयुं. आमां कई रीते पुरुषार्थ आव्यो ते कहे छे. १–परनी अवस्था तेना क्रम प्रमाणे थया ज करे छे, हुं
परनुं करतो नथी एम नक्की कर्युं एटले बधा पर द्रव्यनुं अभिमान टळी गयुं. २–ऊंधी मान्यताथी परनी
अवस्थामां ठीक–अठीकपणुं मानीने जे अनंतानुंबंधी रागद्वेष करतो ते टळी गयो. आ रीते, क्रमबद्धपर्यायनी
श्रद्धा करतां पर द्रव्यना लक्षथी खसीने पोते पोताना रागद्वेष रहित ज्ञातास्वभावमां आव्यो एटले के पोताना
हित माटे परमां जोवानुं अटकी गयुं अने ज्ञान पोता तरफ वळ्युं; हवे पोताना द्रव्यमां पण एक पछी एक
अवस्था क्रमबद्ध थाय छे. हुं तो त्रणेकाळनी क्रमबद्ध अवस्थाओना पिंडरूप द्रव्य छुं, वस्तु तो ज्ञाता ज छे, एक
अवस्था जेटली वस्तु नथी; अवस्थामां राग–द्वेष थाय ते पर वस्तुना कारणे नथी पण वर्तमान अवस्थानी
नबळाईथी छे ते नबळाई उपर पण जोवानुं न रह्युं, पण पुरुषार्थथी परिपूर्ण ज्ञातास्वरूपमां ज जोवानुं रह्युं, ते
स्वरूपना लक्षे पुरुषार्थनी नबळाई अल्पकाळमां तूटी जवानी छे.
जोवानुं रह्युं; आवी जेनी दशा थई तेणे सर्वज्ञना ज्ञान प्रमाणे क्रमबद्धपर्यायनो निर्णय कर्यो छे.
त्यारे ज तेणे सर्वज्ञनो निर्णय कर्यो छे, जेनी पर्याय ज्ञानस्वभाव तरफ वळी छे तेने आत्मानी ज रुचि छे. ‘
अहो! केवळी भगवान त्रणकाळ त्रणलोकना जाणनार ज छे, तेओ पोताना ज्ञानथी बधुं जाणे छे पण कोईनुं
कांई करता नथी ’ आम जेणे यथार्थपणे नक्की कर्युं तेणे पोताना आत्माने ज्ञाता स्वभावे मान्यो अने तेने
त्रणकाळ त्रणलोकना बधा पदार्थोना कर्तृत्वपणानी बुद्धि टळी गई–एटले के अभिप्राय अपेक्षाए ते सर्वज्ञ थयो
छे. आवो, स्वभावनो अनंत पुरुषार्थ क्रमबद्धपर्यायनी श्रद्धामां आवे छे. क्रमबद्धपर्यायनी श्रद्धा ते नियतवाद
नथी, पण सम्यक पुरुषार्थवाद छे.
अने राग–द्वेषने जाणनार एकली ज्ञाननी अवस्था रही, ते अवस्था ज्ञातास्वरूपने जाणे, रागने जाणे अने
बधा परने पण जाणे, मात्र जाणवानुं ज ज्ञाननुं स्वरूप छे, राग थाय ते ज्ञाननुं ज्ञेय छे पण राग ते ज्ञाननुं
स्वरूप