केटलुं छे! ‘भगवान पण फेरववा समर्थ नथी’ एम कहेवामां खरेखर पोताना ज्ञाननी निःशंकता छे. सर्वज्ञदेव
मात्र जाणे पण कांई फेरववा समर्थ नथी, तो पछी हुं तो शुं करूं? हुं पण मात्र जाणनार ज छुं, आम पोताना
ज्ञाननी पूर्णतानी भावनानुं जोर छे.
त्रणकाळ त्रणलोकमां समर्थ नथी. ध्यान राखजो, आमां महान सिद्धांत छे, एकला पुरुषार्थनी सिद्धि करे छे.
आमां बार भावनानुं स्वरूप स्वामीकार्तिकेयाचार्य वर्णवे छे, तेओ महा संत मुनि हता, बे हजार वर्ष पूर्वे थई
गया छे, वस्तुस्वरूपने द्रष्टिमां राखीने आ शास्त्रमां भावनानुं स्वरूप तेमणे वर्णव्युं छे; आ शास्त्र सनातन
जैन परंपरामां घणुं जुनुं मनाय छे. कार्तिकस्वामी संबंधी श्रीमद् राजचंद्रे पण कह्युं छे के:–‘नमस्कार हो ते
स्वामी कार्तिकेयने!’ आ महा संत मुनिना कथनमां ऊंडा रहस्य छे.
समर्थ नथी–आ सम्यग्द्रष्टि जीवनो साचा ज्ञाननी पूर्णतानी भावनानो विचार छे. वस्तुनुं स्वरूप ज आवुं छे
तेने पोतना ज्ञानमां ल्ये छे, पण कांई संयोगना भयथी ओथ लेवा माटेनो आ विचार नथी. एक पर्यायमां
त्रणकाळ त्रणलोकना पदार्थोनुं ज्ञान कई रीते जणाई जाय ते प्रकार विचारे छे.
स्वना लक्षे जाणे छे, संयोगना कारणे पोताने राग–द्वेष थाय छे एम मानता नथी; संयोग–वियोग तो सर्वज्ञे
जोया प्रमाणे क्रमसर थाय छे एम ते माने छे; मिथ्याद्रष्टि जीव परसंयोगना कारणे पोताने राग द्वेष थाय छे
एम माने छे एटले ते संयोग फेरववा मागे छे, तेने वीतराग शासननी श्रद्धा नथी. सर्वज्ञना ज्ञाननी पण तेने
श्रद्धा नथी केमके सर्वज्ञदेवे जोया प्रमाणे ज बधुं थाय छे छतां ‘आम केम थयुं? ’ एम ते शंका करे छे. जो
सर्वज्ञनी श्रद्धा होय तो सर्वज्ञदेवे जोया प्रमाणे ज बधुं थाय छे एम नक्की करे अने तेथी संयोगना कारणे
पोताने राग–द्वेष थाय छे ए मान्यता टळी ज जाय, अने संयोग हुं फेरवी शकुं ए मान्यता पण टळी ज जाय.
आ वातमां जराके फेरफार माने तेने वीतरागशासननी श्रद्धा नथी.
सुख, दुःख, दारिद्र वगेरे जेम थवानुं तेम ज थवानुं, तेमां लाख प्रकारे चोकसाई राखे तोपण किंचित् फेरफार
थाय नहि, ईन्द्र, नरेन्द्र के जिनेन्द्र कोई पण फेरववा समर्थ नथी. आमां नियतवाद नथी आवतो, पण एकलो
ज्ञायकपणानो पुरुषार्थवाद ज आवे छे.
परमां जोवानुं नथी पण स्वमां जोवानुं छे; जेनी द्रष्टि एकला पर पदार्थ उपर ज छे तेने भ्रमथी एम लागशे के
आ तो नियतवाद छे; पण जो स्व वस्तु तरफथी जुए तो आमां तो एकलो स्वाधीनतत्त्वद्रष्टिनो पुरुषार्थ
भरेलो छे. वस्तुनुं परिणमन सर्वज्ञना ज्ञान प्रमाणे क्रमबद्ध थाय छे एम नक्की कर्युं त्यां बधा पर द्रव्योथी जीव
उदास थई गयो अने तेथी स्वद्रव्यमां ज तेने जोवानुं रह्युं, अने तेमां ज सम्यक्पुरुषार्थ आवी गयो छे. आ
पुरुषार्थमां मोक्षना पांचे समवाय समाई जाय छे. आ क्रमबद्धपर्यायनी श्रद्धाना भाव सर्वज्ञ भगवानना ज्ञानने
अवलंबनारा छे, आ भाव त्रणकाळ त्रणलोकमां फरवाना नथी. जो सर्वज्ञनुं केवळज्ञान खोटुं पडे तो आ भाव
फरे! (ते अशक्य छे.) जगत जगतने ठेकाणे रह्युं, जगतना जीवोने आ वात न बेसे तेथी शुं? सर्वज्ञदेवे जोयेलुं
वस्तुस्वरूप कदी फरवानुं नथी. सर्वज्ञदेवे जोयुं होय तेम ज थाय–आ वातमां शंका करे ते मिथ्याद्रष्टि छे.