Atmadharma magazine - Ank 028
(Year 3 - Vir Nirvana Samvat 2472, A.D. 1946)
(Devanagari transliteration).

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: माह : २४७२ आत्मधर्म : ८३ :
निमित्त अने संयोगमां हुं फेरफार करी शकुं एम जे माने छे ते सर्वज्ञना ज्ञानमां शंका करे छे अने तेथी ते
प्रगटपणे मिथ्याद्रष्टि अज्ञानी मूढ छे.
अहो! आ एक सत्य समजतां जगतना सर्वे द्रव्यो प्रत्ये केटलो उदासभाव थई जाय छे!! ओछुं
खावानो भाव करे के वधारे खावानो भाव करे परंतु जेटला अने जे परमाणुओ आववाना तेटला अने ते ज
परमाणुओ आवशे, तेमां एक पण परमाणुने फेरववा जीव समर्थ नथी. बस! आम जाणीने तो शरीरनुं अने
परनुं कर्तृत्व छूटीने ज्ञानस्वभावनी प्रतीत थवी जोईए. आ मानवामां अनंतु वीर्य स्वतरफ कार्य करे छे. परनुं
कर्तृत्व अंतरथी मानतो होय, परमां सुख बुद्धि होय अने कहे के जे थवानुं होय ते थाशे–ए तो शुष्कता छे; एवी
आ वात नथी; ज्यारे अनंत पर द्रव्योथी छूटो पडीने एकला स्वभावमां जीव संतोष माने छे त्यारे आ वात
यथार्थ बेसे छे, आनी कबुलातमां तो बधाय पर पदार्थोथी खसीने ज्ञान ज्ञानमां ज रोकाणुं छे, एटले एकलो
वीतरागभावनो पुरुषार्थ प्रगटयो छे. नरेन्द्र, देवेन्द्र के जिनेन्द्र त्रणकाळ त्रणलोकमां एक परमाणुने फेरववा
समर्थ नथी, आवी जेने प्रतीत छे ते ज्ञान तरफ वळ्‌यो छे, अने तेने सम्यग्दर्शन छे; क्रमे क्रमे ज्ञाननी द्रढताना
जोरे राग तोडीने ते अल्पकाळमां केवळज्ञाननी प्राप्ति करवानो छे; केमके बधुं ज क्रमबद्ध थाय छे एम नक्की कर्युं
होवाथी हवे ते ज्ञाताभावे जाणे ज छे, ज्ञाननी एकाग्रतानी कचाशना कारणे वर्तमान थोडुं अधुरूं जाणे छे अने
अल्प राग–द्वेष पण थाय छे परंतु हुं तो ज्ञान ज छुं एवी श्रद्धाना जोरे पुरुषार्थनी पूर्णता करी केवळज्ञान
पामवानो छे, तेथी ‘ हुं तो ज्ञातास्वरूप छुं, परपदार्थोनी क्रिया स्वतंत्र थाय छे तेनो हुं कर्ता नथी पण जाणनार
ज छुं ’ आवी यथार्थ श्रद्धा ते ज केवळज्ञान प्रगटवानो एक ज अपूर्व अने अफर (जरापण उणप न राखे अने
पाछो न फरे तेवो) उपाय छे.
जेम वस्तुमां थाय छे तेम केवळी जाणे छे अने जेम केवळीए जाण्युं छे तेम वस्तुमां थाय छे, आ रीते
ज्ञेय अने ज्ञायकने अरसपरस मेळ छे. ज्ञेयज्ञायक मेळ न माने अने कर्ताकर्मनो जरापण मेळ माने तो जीव
मिथ्याद्रष्टि छे. केवळज्ञानी संपूर्ण ज्ञायक छे, कोई पदार्थ प्रत्ये कर्तृत्व के राग–द्वेषभाव तेमने नथी. सम्यग्द्रष्टिने
पण एवी श्रद्धा छे के केवळज्ञानीनी जेम हुं पण जाणनार ज छुं, कोई वस्तुनुं हुं कांई करी शकतो नथी, तेम ज
कोई वस्तुना कारणे मारामां फेरफार थतो नथी, अस्थिरताथी राग थई जाय ते मारूं स्वरूप नथी. आ रीते श्रद्धा
अपेक्षाए तो सम्यग्द्रष्टि पण ज्ञायक ज छे. नियम मुजब वस्तुनी क्रमबद्धदशा थाय छे एम जेणे मान्युं तेणे
वस्तुस्वरूप जाण्युं.
भाई रे! आ नियतवाद नथी. परंतु पोताना ज्ञानमां समस्त पदार्थोना नियतनो
(क्रमबद्धअवस्थाओनो) निर्णय करनार आ पुरुषार्थवाद छे. बधा पदार्थोनी क्रमबद्ध अवस्था थाय छे तो हुं
तेनुं शुं करूं? हुं कोईनी अवस्थाना क्रमने फेरववा समर्थ नथी, मारी अवस्था क्रमबद्ध मारा द्रव्यस्वभावमांथी
प्रगटे छे तेथी हुं मारा द्रव्यस्वभावमां एकाग्र रहीने बधानो जाणनार ज छुं–आवी स्वभावद्रष्टि
[द्रव्यद्रष्टि]
मां अनंत पुरुषार्थ आव्यो छे.
प्रश्न:–जो बधुं ज क्रमबद्ध छे अने तेमां जीव कांई ज फेरफार न करी शके तो पछी जीवमां पुरुषार्थ
कयां रह्यो?
उत्तर:–बधुं क्रमबद्ध छे एवा निर्णयमां ज जीवनो अनंत पुरुषार्थ समाणो छे, परनुं फेरफार करवुं ते कांई
आत्माना पुरुषार्थनुं कार्य नथी. भगवान जगतनुं बधुं मात्र जाणे ज छे परंतु तेओ पण कांई फेरवी न शके तो
तेथी शुं भगवाननो पुरुषार्थ परिमित
[हदवाळो] थई गयो? नहि, नहि, भगवाननो अनंत–अपरिमित
पुरुषार्थ पोताना ज्ञानमां समाणो छे. भगवाननो पुरुषार्थ स्वमां छे, परमां नहि; पुरुषार्थ ते जीव द्रव्यनी
पर्याय छे तेथी तेनुं कार्य जीवनी ज पर्यायमां आवे पण जीवना पुरुषार्थनुं कार्य परमां न आवे.
सम्यग्दर्शन अने केवळज्ञानदशा आत्माना पुरुषार्थ वगर थाय एम जे माने ते मिथ्याद्रष्टि छे. ज्ञानी तो
क्षणे क्षणे स्वभावनी पूर्णताना पुरुषार्थनी भावना करे छे; अहो! जेमने पूरो ज्ञायकस्वभाव उघडी गयो ते
केवळज्ञानी छे, तेमना ज्ञानमां बधुं एक साथे जणाय छे आवी प्रतीति करतां पोते पण स्वद्रष्टिथी जोनार ज
रह्यो, ज्ञान सिवाय परनुं कर्तृत्व के रागादि ए बधुं अभिप्रायमांथी टळी गयुं; आवी द्रव्यद्रष्टिना जोरे ज्ञाननी
पूर्णतानी भावनाथी वस्तुस्वरूप चिंतवे छे. आ भावना ज्ञानीनी छे, अज्ञानी मिथ्याद्रष्टिनी आ भावना नथी