Atmadharma magazine - Ank 028
(Year 3 - Vir Nirvana Samvat 2472, A.D. 1946)
(Devanagari transliteration).

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: ८४ : आत्मधर्म : माह : २४७२
केमके मिथ्याद्रष्टि जीव तो परनुं कर्तृत्व माने छे. कर्तापणानी मान्यतावाळो जीव ज्ञातापणानी यथार्थ भावना
करी शके नहि, केमके कर्तापणाने अने ज्ञातापणाने परस्पर विरोध छे.
‘सर्वज्ञ भगवाने पोताना केवळज्ञानमां जेम जोयुं होय तेमज थाय, आपणे तेमां कांई फेरफार न करी
शकीए, तो पछी तेमां पुरुषार्थ रहेतो नथी’ आम जे माने छे ते अज्ञानी छे; हे भाई! तुं कोना ज्ञानथी वात
करे छे? तारा ज्ञानथी के बीजाना ज्ञानथी? जो तुं तारा ज्ञानथी ज वात करे छे तो पछी जे ज्ञाने सर्वज्ञनो अने
बधा द्रव्योनी अवस्थानो निर्णय करी लीधो ते ज्ञानमां स्वद्रव्यनो निर्णय न होय ए बने ज केम? स्वद्रव्यनो
निर्णय करनार ज्ञानमां अनंत पुरुषार्थ छे.
वळी तारी दलीलमां ‘सर्वज्ञ भगवाने पोताना केवळज्ञानमां जेम जोयुं होय तेम थाय’ एम कह्युं छे तो
ते मात्र वात करवा माटे कह्युं छे के तने सर्वज्ञना केवळज्ञाननो निर्णय छे? प्रथम तो, जो केवळज्ञाननो तने
निर्णय न होय तो पहेलांं ते निर्णय कर, अने जो सर्वज्ञना निर्णयपूर्वक तुं कहेतो होय तो, सर्वज्ञ भगवानना
केवळज्ञाननो निर्णय करनार ज्ञानमां अनंत पुरुषार्थ आवी ज जाय छे. सर्वज्ञनो निर्णय करवामां ज्ञाननुं अनंत
वीर्य काम करे छे छतां तेनी ना पाडीने तुं कहे छे के ‘क्रमबद्धपर्यायमां पुरुषार्थ कयां आव्यो?’ तो तने पूर्ण
केवळज्ञानना स्वरूपनी ज श्रद्धा थई नथी, तेम केवळज्ञानने कबुलवानो अनंत पुरुषार्थ तारामां प्रगटयो नथी.
केवळज्ञानने कबुलवामां अनंत पुरुषार्थनी अस्ति आवे छे छतां कबुलतो नथी तो तुं मात्र वातो ज करे छे पण
तने सर्वज्ञनो निर्णय थयो नथी; जो सर्वज्ञनो निर्णय होय तो पुरुषार्थनी अने भवनी शंका न होय; साचो
निर्णय आवे अने पुरुषार्थ न आवे तेम बने ज नहि.
अनंत पदार्थोने जाणनार, अनंत गुणोथी परिपूर्ण अने भवरहित एवा केवळज्ञाननो जे ज्ञाने निर्णय
कर्यो ते ज्ञाने पोताना पुरुषार्थवडे निर्णय कर्यो छे के पुरुषार्थ वगर? जेणे भवरहित केवळज्ञानने प्रतीतमां लीधुं
छे तेणे रागमां टकीने ते प्रतीत करी नथी पण रागथी छूटो पाडीने पोताना ज्ञानस्वभावमां टकीने भवरहित
केवळज्ञाननी तेणे प्रतीत करी छे. जे ज्ञाने ज्ञानमां टकीने भवरहित केवळज्ञाननी प्रतीत करी ते ज्ञान पोते
भवरहित छे अने तेथी ते ज्ञानमां भवनी शंका नथी. पहेलांं केवळज्ञाननी प्रतीत न हती त्यारे अनंत भवनी
शंकामां झुलतो अने हवे ते प्रतीत थतां अनंत भवनी शंका टळी गई अने एकाद भवे मोक्ष माटे ज्ञान निःशंक
थयुं, ते ज्ञानमां अनंत पुरुषार्थ रहेलो छे; आ रीते ‘सर्वज्ञ भगवाने पोताना केवळज्ञानमां जेम जोयुं होय तेम
ज थाय’ एवी यथार्थ श्रद्धामां तो पोताना भवरहितपणानो निर्णय समाई जाय छे–एटले के मोक्षनो पुरुषार्थ
तेमां आवी जाय छे; यथार्थ निर्णयनुं जोर मोक्ष पमाडे छे.
बधा द्रव्योनी जेम पोताना द्रव्यनी अवस्था पण क्रमबद्ध ज छे, जेम बीजा द्रव्योनी क्रमबद्धपर्याय आ
जीवथी नथी थती तेम आ जीवनी क्रमबद्धपर्याय बीजा द्रव्योथी थती नथी. पोतानी क्रमबद्धपर्यायना स्वभावनी
प्रतीत करतां पोताना द्रव्यस्वभावमां ज जोवानुं रह्युं के अहो! मारी पर्यायो तो मारा द्रव्यमांथी ज आवे छे,
द्रव्यमां राग–द्वेष नथी, कोई पर द्रव्य मने राग–द्वेष करावतुं नथी, पर्यायमां अल्प राग–द्वेष छे ते मारी
नबळाईनुं कारण छे, ते नबळाई पण मारा द्रव्यमां नथी; आम होवाथी ते जीवने पर उपर न जोतां पोताना
स्वभावमां ज जोवानुं रह्युं, एटले के द्रव्यद्रष्टिमां टकवानुं रह्युं, स्वभावना जोरे ज अल्पकाळे राग टाळी ते
केवळज्ञान प्रगट करशे ज. बस! आनुं नाम क्रमबद्धपर्यायनी श्रद्धा छे, आ जीवे ज सर्वज्ञने यथार्थपणे जाण्या
छे, अने आ ज जीव स्वभावद्रष्टिथी साधक थयो छे, तेनुं फळ सर्वज्ञदशा छे.
द्रव्यमां समये समये जे विशेष अवस्था थाय छे ते विशेष सामान्यमांथी ज आवे छे. सामान्यमांथी
विशेष प्रगटे छे–एमां तो केवळज्ञान भरेलु छे, जैन सिवाय सामान्य–विशेषनी आ वात बीजे कयांय
नथी, अने सम्यग्द्रष्टि सिवाय बीजा ते यथार्थपणे समजी शकता नथी, ‘सामान्यमांथी विशेष थाय छे’
आटलो सिद्धांत नक्की करतां तो परिणमन स्वतरफ ढळी गयुं, परथी मारी पर्याय नहि, निमित्तथी नहि,
विकल्पथी पण नहि अने पर्यायमांथी पण मारी पर्याय थती नथी–आम बधाथी लक्ष छोडीने जे जीव
एकला द्रव्यमां ढळ्‌यो छे ते जीवने एम प्रतीत थई छे के सामान्यमांथी ज विशेष थाय छे. अज्ञानीने आवी
स्वाधीनतानी प्रतीत होती नथी.
भगवाने जेम जोयुं तेम ज थाय एम नक्की करनारनुं वीर्य परमांथी खसीने स्वमां स्थंभी गयुं छे. ज्ञाने
स्वमां टकीने सर्वज्ञना ज्ञानसामर्थ्यनो अने बधा द्रव्योनो निर्णय कर्यो छे, ते निर्णयरूप पर्याय कयांय परमांथी
आवी नथी, विकल्पमांथी पण आवी नथी, परंतु