: फागण : २४७२ : आत्मधर्म : १०३ :
स्वभाव ख्यालमां आवी गयो, मात्र हवे पुरुषार्थ द्वारा ते रूपे परिणमवानुं बाकी रह्युं छे.
सम्यग्द्रष्टि जीव पोताना पूर्ण स्वभावनी भावना करतां अरिहंतना पूर्ण स्वभावनो विचार करे छे के जे
जीवने जे द्रव्य–क्षेत्रकाळ भावे जेम थवानुं श्री अरिहंतदेवे पोताना ज्ञानमां जाण्युं छे तेम ज थवानुं, तेमां
किंचित् फेर थवानो नथी. आ निर्णय करनार जीवे एकला ज्ञानस्वभावनो निर्णय कर्यो एटले अभिप्रायथी ते
संपूर्ण ज्ञाता थई गयो, केवळज्ञानसन्मुखनो अनंत पुरुषार्थ तेमां आव्यो.
केवळज्ञानी अरिहंतप्रभुनो जेवो भाव छे तेवो पोताना ज्ञानमां जे जीव जाणे छे ते खरेखर पोताना
आत्माने जाणे छे, केमके अरिहंतना अने आ आत्माना स्वभावमां निश्चयथी फेर नथी. अरिहंतनो स्वभाव
जाणनार जीव पोताना तेवा स्वभावनी रुचिवडे ‘पोते पण अरिहंत जेवो ज छे’ एम चोक्कसपणे नक्की करे छे.
अरिहंत देवनुं लक्ष करवामां जे शुभराग छे तेनी आ वात नथी, पण जे ज्ञाने अरिहंतनो यथार्थ निर्णय कर्यो ते
ज्ञाननी वात छे. निर्णय करनारूं ज्ञान पोताना स्वभावनो पण निर्णय करे छे अने तेनो मोह क्षय पामे ज छे.
प्रवचनसारना बीजा अध्यायनी गाथा ६५ मां कह्युं छे के–“जे अरिहंतने, सिद्धने तथा साधुने जाणे छे
अने जीवो पर जेने अनुकंपा छे तेने शुभरागरूप परिणाम छे” ए गाथामां अरिहंतने जाणे तेने शुभराग कह्यो
छे. त्यां एकला विकल्पथी जाणवानी अपेक्षाए वात छे; ए जे वात छे ते शुभ विकल्पनी वात छे; ज्यारे अहीं तो
ज्ञानस्वभावना निश्चयसहितनी वात छे. अरिहंतनुं स्वरूप विकल्पवडे जाणे पण एकला ज्ञानस्वभावनो निश्चय
न होय तो ते प्रयोजनभूत नथी; अने ज्ञान स्वभावना निश्चयसहित अरिहंत तरफनो जे विकल्प छे ते पण राग
छे, ते रागनुं सामर्थ्य नथी पण जेणे निश्चय कर्यो छे ते ज्ञाननुं ज अनंत सामर्थ्य छे अने ते ज्ञान ज मोहक्षय करे
छे. ते निर्णय करनार ज्ञाने केवळज्ञानना परिपूर्ण सामर्थ्यने पोतानी पर्यायना स्व–पर प्रकाशक सामर्थ्यमां समावी
दीधुं छे. मारा ज्ञाननी पर्याय एटली ताकातवाळी छे के निमित्तना सहारा वगर अने परना लक्ष वगर तेमज
विकल्प वगर केवळज्ञानी अरहंतना द्रव्य–गुण–पर्यायने पोतामां समावी देनार छे–निर्णयमां लई ल्ये छे.
वाह! पंचमकाळना मुनि केवळज्ञानना भावो रेडे छे, पंचमकाळे अमृतनी रेलमछेल करी छे. पोताने
केवळज्ञान लेवानी तैयारी छे तेथी आचार्य भगवान केवळज्ञानभावने बहु मलावे छे. केवळज्ञान तरफना
पुरुषार्थनी भावनाना जोरे कहे छे के– मारी पर्यायमां शुद्धोपयोगना कार्यरूप केवळज्ञान ज तरवरे छे, वच्चे शुभ
विकल्प आवे ते विकल्पनी श्रेणीने तोडीने शुद्धोपयोगनी अखंड हारमाळाने ज अंगीकार करूं छुं; केवळज्ञान
नक्की करवानुं सामर्थ्य विकल्पमां नथी पण स्वभाव तरफना ज्ञानमां छे.
अरिहंत भगवान आत्मा छे, अरिहंत भगवानना द्रव्य–गुण–पर्याय अने आ आत्माना द्रव्य–गुण–
पर्यायमां निश्चयथी फेर नथी; अने द्रव्य–गुण–पर्यायपणे अरिहंतनुं स्वरूप स्पष्ट छे–परिपूर्ण छे, तेथी जे
जीवद्रव्य–गुण–पर्यायपणे अरिहंतने जाणे छे ते जीव आत्माने ज जाणे छे अने आत्माने जाणतां तेनो दर्शनमोह
अवश्य क्षय पामे छे.
जो देव–गुरुना जीवनुं स्वरूप यथार्थपणे जाणे तो जीवने मिथ्यात्व रहे ज नहि, आ संबंधमां मोक्षमार्ग
प्रकाशमां कह्युं छे के–मिथ्याद्रष्टि जीव जे जीवनां विशेषणो छे तेने यथावत् न जाणतां ए वडे (बाह्य
विशेषणोथी) अरहंतदेवनुं महानपणुं मात्र आज्ञानुसार माने छे अथवा अन्यथा पण माने छे. जो
(अरिहंतना) जीवना यथावत् विशेषणो जाणे तो मिथ्याद्रष्टि रहे नहि.
[म. प्र. प. २६]
तेवी ज रीते गुरुना स्वरूप संबंधी कहे छे–सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रनी एकतारूप मोक्षमार्ग ए ज
मुनिनुं साचुं लक्षण छे तेने ओळखतो नथी. जो ए ओळखाण थाय तो ते मिथ्याद्रष्टि रहे ज नहि.
[म. प्र. प. २७]
तेवी ज रीते शास्त्रना स्वरूप संबंधी कहे छे–अहीं तो अनेकान्तरूप साचा जीवादि तत्त्वोनुं निरूपण छे
तथा साचो रत्नत्रय मोक्षमार्ग दर्शाव्यो छे तेथी आ जैन शास्त्रोनी उत्कृष्टता छे तेने आ ओळखतो नथी, जो ए
ओळखाण थाय तो ते मिथ्याद्रष्टि रहे नहि.
[म. प्र. प. २८]
त्रणेमां एक ज वात करी छे के जो ओळखे तो मिथ्याद्रष्टि रहे नहि. आमां जे ओळखाणनी वात करी छे
ते यथार्थ निर्णयपूर्वक जाणवानी वात छे, जो देव