Atmadharma magazine - Ank 029
(Year 3 - Vir Nirvana Samvat 2472, A.D. 1946)
(Devanagari transliteration).

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: ९६ : आत्मधर्म : फागण : २४७२ :
अर्थात् जेओ पूर्ण स्वरूप जाणीने पूर्ण दशारूपे थई गया ते देव छे अने जेओ पूर्ण थया नथी परंतु पूर्ण
स्वरूपने जाण्युं छे तेमज बीजाने कहे छे तेओ गुरु छे.
(१४) हुं मारूं स्वरूप नथी समज्यो माटे मने समजवा माटे ज ज्ञानीओनो उपदेश छे, ज्ञानीओए जे
शास्त्रो रच्यां तेमां ‘तुं समज’ एम स्वरूप समजवानो ज उपदेश छे एटले शास्त्रोना रहस्यनो ख्याल आमां
आवी जाय छे.
(१५) ‘तुं समज’ एम सांभळीने सांभळनारनुं लक्ष पोता तरफ जाय छे के ‘हुं समजुं’ परंतु कहेनार
जीव उपर तेनुं लक्ष जतुं नथी. एटले पोता तरफ लक्ष करीने पोते ज पोतानी मेळे समजे छे, पण कोई बीजो
तेनी समजण करावनार नथी. एटले पोते ज पोतानो कर्ता छे, कोई ईश्वर के बीजो आत्मा पोतानो कर्ता नथी
एम नक्की थयुं.
(१६) ‘तुं समज’ एम कहेनार निमित्त छे एम जाण्युं अने ‘तुं समज’ एम कहेनार जीव उपरनुं लक्ष
छोडीने ज्यारे पोते पोताना आत्मा तरफ लक्ष करीने वळ्‌यो त्यारे ज पोते समज्यो छे माटे ए पण सिद्ध थयुं के
निमित्तना लक्षे समजातुं नथी पण उपादानना लक्षे ज समजाय छे.
(१७) सामा कहेनारे ‘तुं समज’ एम कह्युं पण कोईनी भक्ति–पूजा करवानुं पैसा खरचवानुं एवुं कांई
न कह्युं तेथी एम नक्की थाय छे कोई शुभभाव, पैसा वगेरे आत्माना सुखनो उपाय नथी पण साचुं समजवुं ते
ज एक मात्र सुखनो उपाय छे. माटे सौथी पहेलांं साची समजण ज करवानुं ज्ञानीओ कहे छे.
(१८) ‘तुं समज’ एम कह्युं एटले जो जीव समजवा मागे तो तेने कोई रोकतुं नथी. ‘कर्म दूर थाय तो
तने समजाशे’ एम नथी कह्युं, पण तुं समजवानो प्रयत्न कर एटले तने जरूर समजाशे. समजवानो पुरुषार्थ करे
अने न समजाय एम बने ज नहि. कर्म जीवने पुरुषार्थ करतां रोकतां नथी, आम जीवनो पुरुषार्थ सिद्ध थयो.
(१९) ‘तुं समज’ एम कह्युं छे, पण ‘हुं तने समजावी दऊं’ एम कह्युं नथी तेथी समजवानुं कहेनार अने
समजनार बंने जुदा छे अने जुदां पदार्थो एक बीजामां कांई करी शकता नथी– (अस्ति–नास्ति) आ पण सिद्ध थयुं.
(२०) समजणनो भाव कर्यो एटले अणसमजणनो भाव टळ्‌यो एटले के आत्माना ज्ञान अने
वीतराग भावनी समजण करतां मिथ्यात्व, अज्ञान, हिंसा, परिग्रह, असत्य, अब्रह्मचर्य ए वगेरे प्रकारना
विकारी भावो छूटी जाय छे. आ पण नक्की थयुं.
आ रीते ‘तुं समज’ एवा मात्र एक ज बोल उपरथी जैनदर्शननुं रहस्य सिद्ध थई जाय छे. जो
जैनदर्शनना एक पण बोलने साची रीते समजे तो तेने पोताना आत्मानी समजण थया वगर रहे ज नहि.
आ ज जैनदर्शननी परिपूर्णता अने सर्वज्ञता सिद्ध करे छे. जैनदर्शन आत्मानुं स्वरूप परिपूर्ण पणे ओळखावे
छे माटे ‘तुं समज’ ए जैनसिद्धांतनो मूळभूत आदेश छे.
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रथी धर्म थाय के कष्ट सहन करवाथी? धर्म करनारने आनंदनो अनुभव होय के
दुःखनो? जो परिषह अने कष्टथी धर्म थाय तो धर्म तो दुःखदायक ठरे, पण भाई रे! धर्म दुःखदायक कदापि नथी.
“अरेरे! बिचारा मुनिने केटलो त्याग? केटलुं कष्ट? केटला दुःख भोगववां पडे? भाई धर्म तो कठण छे”
आम अज्ञानी–संयोगबुद्धि जीव विचारे छे; पण तेने धर्मना स्वरूपनी खबर नथी. संयोग कष्टदायक लागे तेमां
तो आर्तध्यान छे, आर्तध्यानने भगवान पाप कहे छे, तेमां धर्म तो नथी, परंतु शुभभाव पण नथी,
आर्तध्यान तो एकलो अशुभ भाव छे. घणा उपवास अने घणो त्याग करीने में घणां कष्ट सहन कर्या तेथी मने
घणो धर्म थयो–एम माननारने धर्म तो दूर रह्यो परंतु पुण्य पण थतुं नथी, तेने अशुभभाव छे, ते पापी छे.
बहारमां आहारनो संयोग थयो तेथी आत्माने शुं?
धर्म तो आत्मानी शुद्ध क्रिया छे; आत्मानी चेतन क्रिया–ज्ञानक्रिया–समजण क्रिया ते ज धर्म छे अने धर्म
तो आत्माने एकांतपणे सुखदायक ज छे, धर्ममां कंटाळो नथी, कष्ट नथी, कलेश नथी, अशांति नथी, दुःख नथी,
द्वेष नथी, पण धर्ममां तो आत्मानो उत्साह, शांति, सुख, अनाकुळता, समताभाव छे, जेमां आत्मानी
सुखशांतिरूप क्रिया नथी ते धर्म ज नथी.
धर्मना सुख–शांतिनुं माप संयोग उपरथी नथी पण स्वभाव उपरथी छे. कोण कहे छे के आ सिंहथी
खवाता सुकुमाल मुनि दुःखी छे?