Atmadharma magazine - Ank 029
(Year 3 - Vir Nirvana Samvat 2472, A.D. 1946)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 6 of 17

background image
: फागण : २४७२ : आत्मधर्म : ९७ :
परम सुखी साधक संत मुनि
परम पूज्य सद्गुरुदेव श्री कानजी स्वामीना व्याख्यानमांथी २४७२ मागशर सुद १३.
कोण कहे छे के धर्म कष्टदायक छे?
नहि, नहि, ए सिंहथी खाई जवाता मुनि दुःखी नथी, एनो आत्मा परम सुखी छे. तेओ तो आत्माना
चैतन्यनी प्रेरणाना अमृतझरणां पी रह्यां छे, आत्मानुं सुख अनुभववामां तेओ एवा लीन छे के शरीरनुं लक्ष
नथी. अनंत सिद्धोनी पंक्तिमां बेसीने आत्माना अमृतनो आनंद भोगवी रह्यां छे. जड शरीरना परमाणुओ
पलटे छे तेमां चैतन्य आत्मा ने शुं? अने परमाणुने पण शुं? शरीर अने आत्मानुं परिणमन जुदुं छे. परमाणु
तेना कारणे परिणमे छे, परमाणुने दुःख–सुख होतां ज नथी अने मुनि भगवंतनो आत्मा पोताना स्वरूपनी
लीनतामां परिणमी रह्यो छे तेने दुःखी केम कहेवाय? ए तो सुखरूप धर्मनो अनुभव करे छे.
अज्ञानी जीव संयोगवडे धर्मात्माने दुःखी कल्पे छे, पण धर्मात्माने कोई पण संयोगनुं दुःख नथी. शुं सिंह
करडयो तेनुं दुःख छे? ‘करडवुं’ एटले शुं? करडवुं ते द्रव्य छे, गुण छे के पर्याय छे? करडवुं ते निमित्तनी संयोगनी–
भाषा छे तेनो अर्थ एम छे के–सिंह क्रूरभाव करे छे तेना मोढानी क्रिया हालवा–चालवारूप थाय छे अने मुनिना
शरीरना परमाणुओमां फेरफार थाय छे–आटली वात ‘करडवुं’ शब्द बतावे छे परंतु ते शब्द मुनिना आत्मानी
क्रिया ते वखते शुं थाय छे ए बतावतो नथी. शरीर शरीरना कारणे ज्यारे परिणमी रह्युं छे त्यारे धर्मात्मा संत
मुनिनो आत्मा तो पोतानी चैतन्य–क्रिया वडे, शरीरथी अने विकारथी जुदो रहीने आनंदनो अनुभव करे छे
अहाहा! आवा परम सुखी संत मुनिने आत्माना अजाण अज्ञानी जीवो दुःखी कल्पे छे! अने तेथी एम
भावना करे छे के ‘अरेरे! अमने आवी दशा कदी न हजो!’ पोताने खबर नथी के में शुं भावना करी! भाई!
कई दशानी तें ना पाडी? आत्मस्वरूपनी उत्कृष्ट साधक दशानी तें ना पाडी छे, अमने मुनि जेवी दशा न हजो
एटले निर्विकल्पपणे स्वरूपनी एकाग्रतानुं धर्मध्यान अमने न हजो–अर्थात् आत्मानुं परम सुख अमने न
हजो! आ छे अज्ञानीनी भावना! अज्ञानी एटले आत्माना ज्ञानरहित, संयोगबुद्धि, जडबुद्धि, जड उपरथी
आत्माना सुखनुं माप काढनार.
मुनिना शरीरने सिंह खाई जाय छे ते वखते अज्ञानी–संयोग उपरथी एम भावना करे छे के–“अरेरे!
आवी दशा न हो!” तेनी मान्यतामां अनेक दोष छे.
(१) अज्ञानीओ मुनिनी शांतिने दुःख कल्प्युं ते पहेली भूल.
(२) पोताने ते दशा न हो एटले के मुनिपणुं न हो एम भावना करी ते बीजी भूल.
(३) कोई संयोग सुखदुःखनुं साधन नथी पण परिणाम सुखदुःखनुं साधन छे एने बदले संयोग
उपरथी धर्मात्माए दुःख मान्युं ते त्रीजी भूल. आ रीते अज्ञानीनी द्रष्टि भूल भरेली ज छे.
हवे ए ज वखते, सिंहथी खाई जवाता ते मुनिने देखीने, ज्ञानी एम चिंतवे छे के ‘अरे! मुनि
भगवंतने आवुं न हो!’ ज्ञानीनी आ चिंतवनामां केवो अभिप्राय होय छे ते हवे विचारीए.
१–ज्ञानीने जे शुभ वृत्ति उठी छे ते मुनिने खातर नथी, पण पोताने साधक–पणानी भावना होवाथी
पोताने ज्ञान तरफ ढळतो भाव छे तेथी वृत्ति उठी आवे छे के–
संत मुनिने साधकदशामां आवुं न हो! एटले त्यां संयोगनी वात नथी पण खरेखर तो साधकपणामां
बाधक वृत्ति ज न हो एम भावना करे छे; पण शुभराग होवाथी निमित्तथी एम कथन आवे छे के आवा
बाधकपणानां निमित्त ज साधकने न हो! आमां तो बाधकवृत्ति तोडीने अप्रतिहत ज्ञानधारानी भावना करी छे,
भले वर्तमान विचारमां तो शुभ राग छे पण ते रागने य बाधक मानीने तेने तोडवा मागे छे. ज्ञान स्वभाव
टकी रहेवानी भावना छे अने ते भावनाना जोरे ज्ञानमां साधकपणे टकीने बाधकवृत्तिने तोडी नाखे छे, अने ते
ज परिषहजय छे. परिषह तरफना राग–द्वेष भावने तोडीने स्वभावमां एकाग्र थयो ते ज परिषहजय छे. परंतु
परिषहने प्रतिकूळ मानीने द्वेष करे के संयोगने अनुकूळ मानीने राग करे तो ते पोते स्वरूपथी खसीने
परिषहमां जीताई गयो छे, तेणे परिषहजय कर्यो नथी.
स्वरूप लीन थयेला साधकसंत मुनिने परिषहनुं जराय दुःख नथी, ए तो परम सुखी छे.
वंदन हो ते साधक संत मुनिे!