: ९८ : आत्मधर्म : फागण : २४७२ :
परम पूज्य सद्गुरुदेवना श्रीमुखेथी
भेद विज्ञान ग्रहण त्याग
प्रश्न:– आत्मा बधी वस्तुओथी जुदो छे तेथी ते परनुं कांई करी शकतो नथी आम ज्ञानीओ वारंवार
समजावे छे, पण बे वस्तु जुदी छे एम समजवाथी शुं लाभ थाय?
उत्तर:– बधा पर पदार्थोथी हुं जुदो छुं अने हुं परनुं कांई करी शकतो नथी एटले मारामां पर जीवोने
सुखी–दुःखी करवानी ताकात कदी पण नथी तेथी पर जीवने सुखी–दुःखी करवाना शुभाशुभ भाव ते मारूं स्वरूप
नथी, मारूं स्वरूप तो जाणवानुं ज छे. आ रीते, बे पदार्थोना जुदापणानी समजण थतां प्रथम बधाय परनुं
अने रागनुं कर्तृत्त्व अभिप्रायमांथी छूटी जाय छे, अने तेथी प्रथम रागने ज पोतापणे मानीने आकुळतानुं वेदन
करतो अने तेथी दुःख हतुं, तेने बदले हवे ज्ञातापणे मानीने पोताने शुद्धपणे अनुभवे छे तेथी अनाकुळतानुं
सुख छे. बे पदार्थोने जुदा जाणवानुं ज आ फळ छे.
पर पदार्थोने पोताथी जुदा जाण्यां एटले ते तरफना लक्षे जे लागणीओ थाय तेने पण परमार्थे पोताथी
जुदी मानी अर्थात् बंधभाव अने स्वभाव वच्चे भेद पाडयो–ते भेदज्ञान थयुं. स्वने अने परने कांई संबंध
नथी एम नक्की करतां पर तरफना वलणवाळी कोई वृत्ति मारूं स्वरूप नथी एम जाणीने हवे परथी अने
विकारी वृत्तिथी छूटा एवा पोताना स्वभावमां लक्ष करीने स्थिरता ज करवानुं रह्युं, आ ज मुक्तिनो उपाय छे.
पोताने अने परपदार्थोने जुदा जाण्यां विना पोतानुं कल्याण कोई रीते थई शके नहि. माटे स्व–परना
भेदविज्ञाननो निरंतर अभ्यास करवो जरूरी छे.
प्रश्न:– परवस्तुथी अने विकारी भावथी भिन्न पोताना चैतन्य स्वभावना भान द्वारा सम्यग्दर्शन थया
पछी शुं करवुं?
उत्तर:– चैतन्य स्वभावनुं ग्रहण करवुं अने विकारभावने बंधन जाणी तेनो त्याग करवो. वच्चे परलक्षे
जे कांई व्यवहार, विकल्प आवे तेने बंधन जाणीने छोडी देवा, अने ज्ञान स्वभावमां एकाग्रता करवी; आ ज
उपायथी मोक्ष थाय छे. [२४७२ मागशर सुद १० समयसार]
प्रश्न:– बीजा पदार्थोने कांई करवानी ताकात आत्माना स्वभावमां नथी ए खरूं, परंतु आत्मा विकार
करे त्यारे तो बीजा पदार्थोनुं करवानी ताकात आवे छे ने?
उत्तर:– नहि, स्वभावथी के विभावथी कोई प्रकारे आत्मा बीजा पदार्थनुं करी ज शकतो नथी.
समयसारमां ज कह्युं छे के–
“जे द्रव्य छे पर तेहने न ग्रही, न छोडी शकाय छे,
एवो ज तेनो गुण को प्रायोगीने वैस्त्रसिक छे. ४०६.
अर्थ:– जे परद्रव्य छे ते ग्रही शकातुं नथी तथा छोडी शकातुं नथी, एवो ज कोई तेनो (आत्मानो)
प्रायोगिक तेम ज वैस्त्रसिक गुण छे.
टीका:– ज्ञान पर द्रव्यने कांई पण (जरा पण) ग्रहतुं नथी तथा छोडतुं नथी, कारण के प्रायोगिक
(अर्थात् पर निमित्तथी थयेला) गुणना सामर्थ्यथी (विकारथी) तेम ज वैस्त्रसिक (अर्थात् स्वाभाविक)
गुणना सामर्थ्यथी ज्ञानवडे परद्रव्यनुं ग्रहवुं तथा छोडवुं अशक्य छे....
भावार्थ:– आत्मानो एवो ज स्वभाव छे के ते परद्रव्यने तो ग्रहतो ज नथी;–स्वभावरूप परिणमो के
विभावरूप परिणमो, पोतानां ज परिणामनां ग्रहणत्याग छे, परद्रव्यनां ग्रहणत्याग तो जरा पण नथी.
(पा. –४७५)
परवस्तुने लेवा मूकवानी ताकात ज आत्मामां कोई रीते नथी विकार करवाथी पण आत्मामां ते ताकात
आवती नथी, उलटी ज्ञान शक्ति हणाई जाय छे. पोते विकार करे तो पोतानी हालतमां अशुद्धतानुं ग्रहण थाय
पण तेमां पर द्रव्यने शुं छे? पर द्रव्यो तो स्वतंत्र छे.
प्रश्न:– विकार करवाथी आत्मा कर्मोने खेंचे छे ने?
उत्तर:– ना, विकार करवाथी आत्मा कर्मोने खेंचतो नथी. स्वतंत्रपणे परमाणुनी दशा ते रूपे थाय छे.
‘आत्माए कर्मो बांध्या’ ए कथन निमित्तनुं छे, उपचार मात्र छे. खरेखर आत्मा पोतानी पर्यायने ज ग्रहे–
छोडे छे, पर वस्तुने जरापण ग्रहतो के छोडतो नथी. [२४७२ मागसर सुद ९ समयसार]