: १०० : आत्मधर्म : फागण : २४७२ :
प्रकारना पुण्य बंधाई जाय छे. पुण्यथी जे धर्म माने तेने ऊंचा पुण्य बंधाय नहि, पण पुण्यथी जे धर्म न माने
तेने ज ऊंचा पुण्य (तीर्थंकरपद, चक्रवर्तीपद, ईन्द्रपदादि) बंधाय.
वळी शरीरादिनी क्रिया आत्मा करी शकतो नथी एम ज्ञानीओ समजावे छे, ते प्रमाणे समजतां शरीरनी क्रिया
अटकी जती नथी; शरीरनी क्रिया तो शरीरना कारणे थया ज करे छे, परंतु जीव पहेलांं जे शरीरनी क्रियानुं मिथ्या
अभिमान करतो ते हवे ‘शरीरनी क्रिया हुं करी शकतो नथी पण ते तो शरीरना कारणे स्वयं थाय छे’ एम समजीने
जाणनार ज रहे छे, अने तेथी तेने अनंत राग–द्वेष टळीने शांति थाय छे.(२४७२ मागशर सुद ११: समयसार)
निश्चय साधन अने व्यवहार साधन
प्रश्न:– ज्ञान करवाथी ज धर्म थाय छे, धर्मनो उपाय साचुं ज्ञान ज छे–आम ज्ञानीओ वारंवार बतावे छे,
परंतु ए तो निश्चयनी वात करी, व्यवहारथी शुं उपाय छे?
उत्तर:– भाई! निश्चय अने व्यवहार क्यांय बहारमां, जडनी क्रियामां के रागमां नथी परंतु साचा
ज्ञानमां निश्चय अने व्यवहार बंने समाय छे. पोताना शुद्धात्माने जाणीने स्व तरफ ढळतुं ज्ञान ते निश्चय छे
अने राग–विकार वगेरेने बंधभाव तरीके जाणनारूं तेम ज परवस्तुने जुदापणे जाणनारूं ज्ञान ते व्यवहार छे.
ज्यां स्वभावना ज्ञानरूप निश्चय होय त्यां परना ज्ञानरूप व्यवहार होय ज छे. स्वभावने जाणनारा ज्ञान साथे
विकल्प नथी माटे ते ज्ञानने निश्चयसाधन कहेवाय छे अने परने तेम ज पुण्य–पापने जाणनार ज्ञान साथे
विकल्प छे तेथी ते ज्ञानने व्यवहारसाधन कहेवाय छे, परंतु ज्ञान तो बंनेमां साचुं ज छे.
ज्यां राग–विकल्पने व्यवहारसाधन कह्युं होय त्यां एवो आशय समजवो के ते राग–विकल्पनुं ज्ञान
करवुं ते व्यवहारसाधन छे, अने राग–विकल्प पोते तो बंधसाधन छे.
मारा स्वभावमां उणीदशा के विकार नथी एम परिपूर्ण स्वभावने जे ज्ञान लक्षमां ल्ये ते ज्ञान निश्चय
छे. अने परिपूर्ण स्वभावनुं भान होवा छतां पर्यायमां अपूर्णता अने विकार छे तेने लक्षमां ल्ये ते ज्ञान
व्यवहार छे. निश्चय अने व्यवहार बंनेनुं ज्ञान भेगुं करवुं ते प्रमाण छे.
निश्चय अने व्यवहारनुं ज्ञान भेगुं करवुं एनो अर्थ एवो छे के निश्चय स्वभाव छे ते ज मारूं स्वरूप छे
अने अपूर्णतारूप व्यवहार छे खरो पण ते मारूं स्वरूप नथी–आम जाणवुं ते प्रमाण छे.
स्वने जाणवुं ते निश्चय अने परने (तेम ज परलक्षे थता भावोने) जाणवुं ते व्यवहार; तेमांथी निश्चय
ज्ञानमां जे जणायुं ते हुं अने व्यवहार ज्ञानमां जे जणायुं ते हुं नहि एम समजवुं ते प्रमाण छे.
शुभविकल्प वगेरे निमित्त तरीके वच्चे होय खरा परंतु ते साचुं साधन नथी पण बंधन छे माटे हेय छे,
अने निश्चय स्वभाव ते ज उपादेय छे–आम जाणनार ज्ञान प्रमाण छे. परंतु निश्चय अने व्यवहार बंनेना
विषयने समानपणे माने तो ते ज्ञान प्रमाण नथी, पण मिथ्या छे.
विकल्प–रागने हेय कहीने खरेखर व्यवहारने ज हेय कह्यो छे. व्यवहार ते तो साचा ज्ञाननुं पडखुं छे
छतां तेने हेय केम बताव्यो? तेनुं कारण ए छे के ते व्यवहार ज्ञाननुं लक्ष पर उपर छे अने पर उपरना लक्षथी
राग थाय छे तेथी पर उपरनुं लक्ष करनार ज्ञान हेय छे. पर लक्षे विकल्प आव्या वगर रहेतो नथी अने
विकल्पथी बंधन ज थाय छे माटे व्यवहार छोडवा योग्य ज छे; अने निश्चयज्ञान एकला स्वभावने ज लक्षमां
लेतुं होवाथी स्व लक्षे विकल्प थतो नथी अने तेथी बंधन पण थतुं नथी माटे निश्चय उपादेय छे. निश्चयज्ञान
शुद्धचैतन्यनुं ज ग्रहण करीने समस्त अशुद्ध भावोने छोडे छे तेथी ते ज मुक्तिनुं निश्चय साधन छे, अने
व्यवहारज्ञाननुं लक्ष पर उपर होवा छतां ते ज्ञान साचुं होवाथी तेने व्यवहारसाधन कहेवाय छे. स्वभाव तरफ
एकाग्र थतुं ज्ञान ते ज परमार्थे मोक्षनुं कारण छे. परने जाणनारूं ज्ञान ते व्यवहारे मोक्षनुं कारण छे. जे ज्ञाने
जुदा स्वरूपने जाणवानुं कार्य कर्युं ते ज ज्ञान जुदा स्वरूपमां स्थिरतानुं कार्य करे छे. आ रीते निश्चय साधन
अने व्यवहार साधन बन्ने ज्ञानमां ज समाय छे, परंतु निश्चयसाधन आत्मामां अने व्यवहारसाधन परमां–
एम नथी; ज्ञानथी ज मोक्ष थाय छे, ज्ञाननो पुरुषार्थ करवो ते ज जिज्ञासुओनुं कर्तव्य छे.
(२४७२ मागशर सुद १०: समयसार)