Atmadharma magazine - Ank 030
(Year 3 - Vir Nirvana Samvat 2472, A.D. 1946)
(Devanagari transliteration).

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: ११८ : आत्मधर्म : चैत्र : २४७२ :
समोसरणमां बेसनार जीव पण अरिहंतथी तो दूर क्षेत्रे ज बेसे छे एटले क्षेत्रथी तो तेने पण दूर छे
अने अहीं पण क्षेत्रथी वधारे दूर छे, परंतु क्षेत्रथी फेर पड्यो तेमां शुं? जेणे भावमां अरिहंतने नजीक कर्या तेने
सदाय नजीक बिराजे छे अने जेणे भावमां अरिहंतने दूर कर्या तेने दूर छे. क्षेत्रे नजीक हो के न हो तेथी शुं?
भाव साथे मेळ करीने नजीकपणुं करवुं छे. अहो! अरिहंतना विरह भूलावी दीधा, कोण कहे छे–अत्यारे
अरिहंतप्रभु नथी!
आ पंचम आराना मुनिनुं कथन छे, पंचमकाळे आ थई शके छे. जे कोई जीव पोताना ज्ञानवडे
अरिहंतना द्रव्य–गुण–पर्यायने जाणे तेनो दर्शनमोह नाश थाय छे. हजी अरिहंतना स्वरूपने पण जे
विपरीतपणे मानतो होय अने अरिहंतनो यथार्थ निर्णय कर्या वगर तेमनी पूजा–भक्ति करता होय तेमने
मिथ्यात्वनो नाश होई शके नहि. जेणे अरिहंतनुं स्वरूप विपरीत मान्युं तेणे पोताना आत्मस्वरूपने पण
विपरीत ज मान्युं तेथी ते मिथ्याद्रष्टि छे. अहीं मिथ्यात्व नाश करवानो उपाय दर्शावे छे, जेओने मिथ्यात्व नाश
थई गयुं छे तेओने आ समजावता नथी पण जेओ मिथ्यात्वनो नाश करवा तैयार थया छे तेवा जीवोने माटे
आ कहेवाय छे. अत्यारे–आ काळे जीवने पोताना पुरुषार्थवडे मिथ्यात्वनो नाश थई शके छे माटे आ वात करी
छे, माटे ‘न समजाय’ ए मान्यता छोडीने समजवानो पुरुषार्थ करवो.
जो के, अत्यारे क्षायक समकित थतुं नथी–परंतु ते वात ज अहीं लीधी छे, आचार्यप्रभु तो कहे छे के
अरिहंतना द्रव्य–गुण–पर्यायने जाणीने जेणे आत्माना स्वरूपनो निर्णय कर्यो ते जीव क्षायकसमकितनी ज
श्रेणीमां बेठो छे, माटे अमे अत्यारथी तेने दर्शनमोहनो क्षय कहीए छीए. भले अत्यारे साक्षात् तीर्थंकर नथी
तोपण एवा जोरदार निर्णयना भावे उपड्या छे के साक्षात् अरिहंत पासे थईने क्षायक समकित करी, क्षायक
श्रेणीना जोरे मोहनो सर्वथा क्षय करीने केवळज्ञान अरिहंतदशा प्रगट करवाना छे. पुरुषार्थनी ज वात छे, पाछा
फरवानी वात छे ज नहीं.
श्री अरिहंतनो निर्णय करवामां आखो स्वभाव प्रतीतमां आवी जाय छे. अरिहंत भगवानने पूर्ण निर्मळ
दशा प्रगटी ते क्यांथी प्रगटी? ज्यां हती त्यांथी प्रगटी के न हती त्यांथी प्रगटी? स्वभावमां पूर्ण सामर्थ्य हतुं
तेथी स्वभावना जोरे ते दशा प्रगटी, स्वभाव तो मारे पण परिपूर्ण छे, स्वभावमां कचाश नथी; बस! आ यथार्थ
भानमां द्रव्य–गुणनी प्रतीत थई गई अने द्रव्य–गुण तरफ पर्याय वळी. आत्माना स्वभाव सामर्थ्यनी द्रष्टि थई
अने विकल्पनी के परनी द्रष्टि टळी. आ रीते, आ ज उपायथी सर्व आत्माओ पोताना द्रव्य गुण उपर द्रष्टि करीने
क्षायक समकित पामे छे एम बधा आत्मानुं ज्ञान आव्युं; समकितनो बीजो कोई उपाय नथी.
अनंत आत्माओ छे–तेमां अल्पकाळे मोक्ष जनार के घणा काळ पछी मोक्ष जनार बधा आत्माओ आ ज
विधिथी कर्मक्षय करे छे. पूर्णदशा पोतानी छती शक्तिमांथी आवे छे, अने शक्तिनी द्रष्टि करतां परनुं लक्ष तूटीने
स्वमां एकाग्रतानो ज भाव रहेतां क्षायकसम्यक्त्व थाय छे.
आमां धर्म करवानी वात छे. कोई आत्मा परद्रव्यनुं तो कांई करी शकतो ज नथी. जेम अरिहंत भगवान
बधुं जाणे छे परंतु पर द्रव्यनुं कांई ज करता नथी तेम आ आत्मा पण जाणनार स्वरूपी छे, ज्ञान–स्वभावनी
प्रतीत ते ज मोहक्षयनुं कारण छे. क्षणिक विकारी पर्यायमां रागनुं कर्तव्य माने तो ते जीवे अरिहंतना स्वरूपने
मान्युं नथी. ज्ञानमां अनंत परद्रव्यनुं कर्तृत्व मान्युं ते ज महा अधर्म छे अने ज्ञानमां अरिहंतनो निर्णय कर्यो त्यां
अनंत परद्रव्यनुं कर्तृत्व टळी गयुं ते ज धर्म छे. ज्ञानमांथी परनुं कर्तृत्व टळ्‌युं एटले हवे ज्ञानमां ज ठरवानुं रह्युं,
अने पर लक्षे जे विकारभाव थाय तेनुं कर्तापणुं पण न रह्युं, मात्र ज्ञातापणे रह्यो, आ ज मोहक्षयनो उपाय छे.
अरिहंतना स्वरूपने जाण्युं ते सम्यग्द्रष्टि धर्मात्मा छे, तेज जैन छे. जिनेन्द्र अरिहंतनो जेवो स्वभाव छे तेवो ज
पोतानो स्वभाव छे एम निर्णय करवो ते जैनपणुं छे अने पछी स्वभावना पुरुषार्थद्वारा तेवी पूर्णदशा प्रगट
करवी ते जिनपणुं छे. पोताना निजस्वभावने जाण्या विना जैनपणुं होई शके नहि.
अरिहंतना द्रव्य–गुण–पर्यायने जेणे जाण्या तेणे एम नक्की कर्युं के हुं मारा द्रव्य–गुण–पर्यायनी एकता
करीने, रागना कारणे पर्यायनी अनेकता थाय छे ते टाळीश त्यारे ज मने सुख थशे. आटलुं नक्की कर्युं त्यां परनुं
करी शकुं के विकारथी धर्म थाय ए बधी ऊंधी मान्यताओ छूटी गई. हवे स्वभावना जोरे स्वभावमां एकाग्रता
करीने टकवानुं ज रह्युं, हवे तेने मोह क्यां टके? मोहनो क्षय ज थाय छे. मारा