Atmadharma magazine - Ank 030
(Year 3 - Vir Nirvana Samvat 2472, A.D. 1946)
(Devanagari transliteration).

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[रा. मा. दोशी]
: चैत्र : २४७२ : आत्मधर्म : ११९ :
आत्मामां स्वभावनां लक्षे जे निर्मळतानो अंश उघडयो ते निर्मळदशा वधतां वधतां केटली हदे निर्मळपणे
प्रगटे? अरिहंत जेटली हदे निर्मळता प्रगटे ते मारूं स्वरूप छे, आम जाणे तो अशुद्धभावोथी पोतानुं स्वरूप
जुदुं छे एम शुद्ध स्वभावनी प्रतीत करीने दर्शनमोहनो ते ज क्षणे क्षय करे एटले के ते सम्यग्द्रष्टि थाय. माटे
अरिहंत भगवानना स्वरूपनो द्रव्य गुण पर्याय वडे यथार्थ निर्णय करतां आत्मानुं भान थाय छे अने ते ज
मोहक्षयनो उपाय छे.
[गाथा ८० टीका चालु]क्रमशः–
. . : हवे पछी द्रव्य, गुण, पर्यायनुं स्वरूप बताववामां आवशे अने ते द्रव्य, गुण,
पर्यायने केवा प्रकारे जाणवाथी मोहक्षय पामे छे–ते कहेवाशे.
पात्रतानुं पहेलुं पगथियुं : २ : :
गृहीत अने अगृहीत मिथ्यात्वनो : : :
[आ लेखनो पहेलो भाग ‘आत्मधर्म’ अंक २६ मां आवी गयो छे, तेमां जे कह्युं हतुं तेनो टूंक सार]
– मिथ्यात्व –
मिथ्यात्वनो अर्थ खोटी अगर विपरीत मान्यता एम कर्यो हतो, परमां शुं खोटापणुं के मिथ्यापणुं छे ते
जोवानुं नथी पण पोताना आत्ममां खोटापणुं शुं छे ते समजीने ते खोटापणुं टाळवा माटेनी वात छे. केमके
जीवने पोतानुं खोटापणुं टाळीने पोतामां धर्म करवो छे.
मिथ्यात्व ते द्रव्य छे, गुण छे के पर्याय छे? तेना जवाबमां मिथ्यात्व ते श्रद्धागुणनी एक समयपूरती
ऊंधी पर्याय छे एम नक्की कर्युं छे.
मिथ्यात्व ते अनंत संसारनुं कारण छे. आ मिथ्यात्व एटले के सौथी मोटामां मोटी भूलनी पककड जीव
पोते ज अनादिथी करतो आवे छे.
– महापाप –
आ मिथ्यात्वने लीधे, वस्तुनुं स्वरूप जेम छे तेम जीव मानतो नथी पण ऊंधुंं ज माने छे तेथी मिथ्यात्व
ए ज खरेखर असत्य छे, आ महान असत्यनुं सेवन कर्या करवुं तेमां क्षणे क्षणे स्वहिंसानुं महापाप छे.
प्रश्न:– ऊंधी मान्यता करी तेमां कया जीवने मारवानी हिंसा अने पाप लाग्युं?
उत्तर:– पोताना स्वाधीन चैतन्य आत्माने जेम छे तेम न कबुल्यो पण जड शरीरनुं करनारो मान्यो
(एटले के जडरूपे मान्यो) ते. मान्यतामां आत्माना अनंत गुणोनो अनादर छे ते ज अनंती स्वहिंसा छे,
स्वहिंसा ते ज सौथी मोटुं पाप छे, तेने भावहिंसा अथवा भावमरण पण कहेवाय छे. श्रीमद्राजचंद्रजीए कह्युं
छे के “क्षणक्षण भयंकर भावमरणे कां अहो! राची रहो?” त्यां मिथ्यात्वने ज भावमरण कह्युं छे.
– अगृहीत मिथ्यात्व –
(१) आ शरीर जड छे, ते पोतानुं नथी, ते जाणवा–देखवानुं कांई काम करतुं नथी छतां तेने पोतानुं
मानवुं अने ते सरखुं होय तो ज्ञान थाय एम मानवुं ते मिथ्यात्व छे.
(२) शरीरने पोतानुं मानवाथी, वर्तमान जे देहरूपे शरीरनो जन्म थयो त्यारथी मरण सुधीनी ज
पोताना आत्मानी हैयाति मानवी अर्थात् शरीरनो संयोग थतां आत्मानी उत्पत्ति अने शरीरनो वियोग थतां
आत्मानो नाश मानवो ते मिथ्यात्व छे.
(३) शरीरने पोतानुं मानवाथी, बहारनी जे चीज शरीरने सगवडतारूप छे एम लागे ते चीजथी पोताने
लाभ माने, अने बहारनी सगवडरूप मानेली वस्तुनो संयोग पुण्यना निमित्तथी थाय छे तेथी पुण्यथी लाभ थाय
छे एम माने–ते मिथ्यात्व छे. जेणे पुण्यथी लाभ मान्यो तेनी द्रष्टि देह उपर छे पण आत्मा उपर नथी.
– गृहीत मिथ्यात्व –
उपर कह्या ते त्रणे प्रकार अगृहीतमिथ्यात्वना छे. आ अगृहीतमिथ्यात्व जीवने मूळ निगोदस्थानथी ज
(एकेन्द्रियपणाथी, अनादिनुं) चाल्युं आवे छे. एकेन्द्रियथी असंज्ञी पंचेन्द्रिय सुधी तो जीवने हिताहितनो
विचार करवानी शक्ति ज हती नहि. संज्ञीपणामां मंद कषायथी ज्ञानना उघाड वडे कंईक हिताहितनो विचार
करवानी शक्ति प्राप्त करे छे. त्यां पण आत्माना हित– अहितनो साचो विवेक करवाने बदले अनादिनी ऊंधी
मान्यतानो भाव चालु ज राखीने