Atmadharma magazine - Ank 030
(Year 3 - Vir Nirvana Samvat 2472, A.D. 1946)
(Devanagari transliteration).

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: १२२ : आत्मधर्म : चैत्र : २४७२ :
मिथ्यात्वरूप महाभूल उत्पन्न करे छे, ते भूल अवस्थामां छे अने अवस्था बदली जती होवाथी ते भूल साची
समजण द्वारा पोते टाळी शके छे. अवस्थामां भूल करनार जीव पोते ज छे तेथी पोते ज ते भूल टाळी शके छे.
– साची समजण करवी –
जीव पोताना स्वरूपने भूल्यो होवाथी अजीवने पोतानुं माने छे अने तेथी पुण्य, पाप, आस्रव, बंध
थाय छे. साची समजण वडे सम्यग्दर्शन करतां अजीवथी अने विकारथी भिन्न पोतानुं स्वरूप तेना लक्षमां आवे
छे अने तेथी पुण्य–पाप–आस्रव–बंध क्रमे क्रमे टळीने संवर, निर्जरा, मोक्ष थाय छे, माटे सौथी प्रथम स्थूळ अने
सूक्ष्म बंने प्रकारना मिथ्यात्वने साची समजणवडे टाळीने आत्माना स्वरूपनी यथार्थ श्रद्धा करीने सम्यग्दर्शन
वडे, पोताना स्वरूपनी महान भ्रमणानो अभाव करवो.
– क्रिया अने ग्रहण – त्याग –
साची समजण वडे सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान करतां ज संवर–निर्जरारूप धर्म शरू थई जाय छे; अनंत
संसारना मूळरूप मिथ्यात्वनो ध्वंस थाय छे; अनंत पर वस्तुओथी पोताने लाभ–नुकसान थाय एवी मान्यता
टळतां अनंत राग–द्वेषनी असत् क्रियानो त्याग थयो अने ज्ञाननी सत् क्रियानुं ग्रहण थयुं. आ ज सौथी प्रथम
धर्मनी सत् क्रिया छे, आ समज्या वगर धर्मनी क्रिया जरापण होई शके नहीं. देह ते जड छे, ते देहनी क्रिया
साथे धर्मनो कांई संबंध नथी.
आत्मानो स्वभाव केवो छे, तेनी विकारी तथा अविकारी अवस्था केवा केवा प्रकारनी थाय छे, अने
विकारी अवस्था वखते केवा निमित्तनो संयोग होय तथा अविकारी अवस्था वखते केवा निमित्तो छूटी गयां
होय ते जाणवुं जोईए; आ माटे स्व–परना भेदज्ञानपूर्वक नवतत्त्वनुं ज्ञान होवुं जोईए.
– सम्यग्दर्शन – सम्यग्ज्ञान –
प्रश्न:– आत्माने सम्यग्ज्ञान कई उमरे अने कई दशामां प्रगटी शके?
उत्तर:– गृहस्थदशामां आठवर्षनी उमरे पण सम्यग्ज्ञान थई शके छे. गृहस्थ दशामां आत्मभान करी शकाय
छे. पहेलांं तो बराबर निःशंक सम्यग्दर्शन प्रगट करवुं जोईए, सम्यग्दर्शन थतां ज सम्यग्ज्ञान थाय छे अने
सम्यग्दर्शन–सम्यग्ज्ञान थया पछी स्वभावना पुरुषार्थवडे विकार टाळीने अविकारी दशा जीव प्रगट कर्या वगर रहे
नहि, ओछा पुरुषार्थना कारणे कदाच विकार टळतां वार लागे तो पण तेना दर्शन ज्ञानमां मिथ्यापणुं नथी.
– निश्चय अने व्यवहार –
आत्मानुं साचुं ज्ञान थतां जीवने एम नक्की थाय छे के–मारो स्वभाव शुद्ध निर्दोष छे छतां मारी अवस्थामां
जे विकार अने अशुद्धता छे ते मारो दोष छे, पण ते विकार मारूं खरूं स्वरूप नथी माटे ते टाळवा योग्य छे. ज्यां
सुधी मारूं लक्ष कोई बीजी वस्तुमां के विकारमां रहेशे त्यां सुधी अविकारी दशा थशे नहि, पण ज्यारे ते संयोग अने
विकार उपरथी मारूं लक्ष खसेडीने हुं मारा शुद्ध अविकारी धु्रवस्वरूपमां लक्षने टकावी राखीश त्यारे विकार टळीने
अविकार दशा थशे. मारूं ज्ञानस्वरूप नित्य छे अने रागादि अनित्य छे, एकरूप ज्ञानस्वरूपना आश्रयमां रहेतां
रागादि टळी जाय छे. अवस्था–पर्याय तो क्षणिक छे अने ते क्षणेक्षणे फरी जाय छे तेथी तेना आश्रये ज्ञान स्थिर
रहेतुं नथी पण तेमां वृत्ति उठे छे माटे अवस्थानुं लक्ष छोडवुं जोईए, अने त्रिकाळी शुद्धस्वरूप उपर लक्ष स्थापवुं
जोईए; बीजी रीते कहीए तो निश्चय स्वभाव उपर लक्ष करीने व्यवहारनुं लक्ष छोडवाथी शुद्धता प्रगटे छे.
– सम्यग्दर्शनुं फळ –
चारित्रनी शुद्धता एक साथे संपूर्ण प्रगटी जती नथी, पण क्रमे क्रमे प्रगटे छे. ज्यां सुधी अपूर्ण शुद्धदशा रहे
छे त्यां सुधी साधकदशा कहेवाय छे. शुद्धता केटली प्रगटे? के पहेलांं सम्यग्दर्शन–सम्यग्ज्ञान करीने जे आत्मस्वभाव
प्रतीतमां आव्यो छे ते स्वभावना महिमावडे जेटला जोरथी ते स्वद्रव्यमां एकाग्रता करे तेटली शुद्धता प्रगटे छे.
आथी शुद्धतानुं पहेलुं पगथियुं शुद्धात्मानी प्रतीत अर्थात् सम्यग्दर्शन छे. सम्यग्दर्शन पछी पुरुषार्थ वडे क्रमेक्रमे
स्थिरता वधारीने अंते पूर्ण स्थिरता वडे पूर्ण शुद्धता प्रगट करीने मुक्त थई जाय छे अने सिद्धदशामां अक्षय अनंत
आत्म सुखनो अनुभव कर्या करे छे. मिथ्यात्व टाळीने सम्यग्दर्शन कर्युं तेनुं ज आ फळ छे.
– उत्पाद – व्य – धु्रव –
प्रश्न:– द्रव्य त्रिकाळी टकनार छे तेनो कदी नाश थतो नथी अने ते कदी बीजा द्रव्यमां भळी जतुं नथी
तेनी शुं खातरी? दूध वगेरे वस्तुओनो नाश थतो तो देखाय छे? अथवा दूध वस्तु पलटीने दहीं वस्तुरूप थई
जाय छे तो पछी एक द्रव्य बीजा द्रव्यमां नथी भळतुं एम केम कही शकाय?
उत्तर:– वस्तुस्वरूपनो एवो सिद्धांत