: चैत्र : २४७२ : आत्मधर्म : १११ :
शाश्वत सुखनो मार्ग दर्शावतुं मासिक
वर्ष : ३ : चैत्र :
अंक : ६ २४७२
क्रमबद्ध पर्याय अने व्यवहार
[परम पूज्य सद्गुरुदेवनां व्याख्यानमांथी
समयसार: २४७२: मागशर: सुद १०]
वस्तुनी पर्याय क्रमबद्ध ज थाय छे. क्रमबद्ध पर्यायमां फेर पाडवा कोई समर्थ नथी.
प्रश्न:– वस्तुनी पर्याय क्रमबद्ध ज छे त्यारे पुरुषार्थ करवानो न रह्यो ने?
उत्तर:– क्रमबद्ध पर्यायनी श्रद्धा कोणे करी? क्रमबद्ध पर्यायनी श्रद्धा शा वडे करी?
क्रमबद्धनी श्रद्धा करनार जीव बधाय पदार्थोथी उदास थई गयो अने परनुं लक्ष छोडीने
ज्ञानने स्वमां एकाग्र कर्युं. हवे स्व वस्तुमां पण क्रमबद्ध पर्याय ज छे, ते स्वनी क्रमबद्ध
पर्याय क्यांथी आवे छे? पर्यायमांथी आवती नथी पण वस्तुमांथी आवे छे, तेथी वस्तुद्रष्टि
थई. वस्तुद्रष्टि थया वगर क्रमबद्ध पर्यायनी श्रद्धा होय नहि.
क्रमबद्ध पर्यायनी श्रद्धा थतां परमांथी तो उदास ज थई गयो–ज्ञाता ज रही गयो,
हवे स्वनी जे क्रमबद्ध पर्याय थाय छे ते स्वभावमांथी ज आवे छे अने स्वभावमां विकार
नथी माटे विकार ते मारूं स्वरूप नथी; आ रीते विकाररहित वस्तुस्वभावनी जेने श्रद्धा थई
तेने ज क्रमबद्धपर्यायनी वात बेठी छे अने तेमां ज अनंत पुरुषार्थ छे.
एक क्रमबद्धपर्यायना सिद्धांतमांथी ज आत्मा आखो भगवान सिद्ध थई थाय छे.
एक क्रमबद्धपर्यायना सिद्धांतने जाणतां तेमां बधुं आवी जाय छे. ‘क्रमबद्ध’ कहेतां अनेक
पर्याय लक्षमां आवे छे एटले बधी पर्यायोनो पिंड ते वस्तु छे तेमांथी ज पर्याय प्रगटे छे
एम प्रतीत करतां पर पदार्थ उपर के विकार उपर के पर्याय उपर द्रष्टि न रही, पण वस्तु
उपर द्रष्टि गई. वस्तु द्रष्टिमां अनंत वीर्य आवे छे अने ते ज वीर्य आगळ वधीने पूरूं थतां
केवळज्ञान थाय छे.
क्रमबद्ध पर्यायनी श्रद्धा करवामां केटलुं वीर्य आव्युं? जगतना जेटला पदार्थो छे ते
बधायनी पर्याय क्रमबद्ध थाय छे, ते कोई पदार्थोनुं हुं कांई न करूं, अने मारी पर्याय मारा
द्रव्यमांथी क्रमबद्ध थाय छे माटे मारे कोई परद्रव्यनो आधार नहि; बस, आ भेदविज्ञान
प्रगटी गयुं.
मारी पर्यायनो आधार द्रव्य छे एम जेने द्रव्यद्रष्टि थई तेणे (१) परथी पोताने
जुदो जाण्यो (२) विकारथी मारी पर्याय प्रगटती नथी एम जाण्युं अने (३) स्वभावद्रष्टि
थतां उणीदशा जेटलो पण हुं नहि एम पूरा स्वभावनुं ज जोर आव्युं. पूरा स्वभावना जोरे
अल्पकाळमां केवळज्ञान थाय ज; माटे क्रमबद्ध पर्यायनी प्रतीतमां तो केवळज्ञान लेवानो
पुरुषार्थ समायेलो छे.
आ वात स्वभावनी छे, स्वभावथी ज आ वात बेसे तेम छे, कुतर्कथी बेसे तेम
नथी. स्वभावना परिणमनमां जो आ वात न बेसे अने न रुचे तो स्वनी द्रढतामां पुरुषार्थ
वळ्यो नथी; पुरुषार्थ ज्यारे स्वनी द्रढतामां न वळ्यो त्यारे ते क्यांक परनी रुचिमां अटक्यो
छे एटले तेने भवनी शंका रहे ज छे. स्वभावनी क्रमबद्ध पर्यायनी प्रतीतमां मोक्षनी
निःसंदेह खातरी थई जाय छे केमके स्वभावना परिणमनथी ज मोक्ष थाय छे. [पाछळ]