: ११२ : आत्मधर्म : चैत्र : २४७२ :
प्रश्न:– क्रमबद्ध पर्यायमां पण वच्चे व्रत–तपना शुभ विकल्परूप व्यवहार तो आवे ने?
उत्तर:– भाई, जेने क्रमबद्ध पर्यायनी प्रतीत छे तेनी द्रष्टि व्रत उपर होती नथी पण द्रव्य उपर तेनी द्रष्टि
होय छे. भले, व्रत ते पण क्रमबद्धपर्याय ज छे तेथी ज्ञानी तेने पण ज्ञातापणे जाणे छे, परंतु तेनी भावना
करता नथी. वच्चे व्रत आवे तेनी जेने भावना छे तेने स्वरूपनी भावना नथी. वच्चे राग आवे तेने जाणे भले
पण भावना तो स्वरूपनी ज होय. व्रतनो राग तो आस्रव छे. जेणे व्रतनी भावना करी तेणे आस्रवने सारो
मान्यो एटले के संसारने ज सारो मान्यो, तेणे बंध अने आत्माने जुदा जाण्या ज नथी. आत्मा अने बंधने जे
जुद जाणे तेने बंधभावनी भावना होय ज नहि.
क्रमबद्धपर्यायनी श्रद्धामां दरेक द्रव्यनी स्वतंत्रता सिद्ध थाय छे. एक द्रव्य बीजानुं कांई पण करे के पुण्यथी
आत्माने धर्म थाय ए वात सत्यधर्मना कम्पाउन्डनी बहार छे, सत्यनी हदमां ते नथी.
वस्तुनी क्रमबद्ध पर्याय थती वखते निमित्तनी हाजरी होय पण वस्तुनी पर्यायमां ते किंचित् मददगार
नथी. वस्तुद्रष्टिना भानमां क्रमबद्ध शुद्ध पर्याय प्रगटतां वच्चे जे विकल्परूप व्यवहार आवे ते पण शुद्धपर्यायने
मददगार नथी माटे ते व्यवहारनो खेद जोईए. अमृतचंद्राचार्य समयसार–कळशमां कहे छे के–
व्यवहरणनयः स्याद्यद्यपि प्राक्पदव्या–मिह निहितपदानां ‘हंत’ हस्तावलंबः।
तदपि परममर्थं चिच्चमत्कारमात्रं परविरहितमंतः पश्यतां नैव किंचित्।। ५।।
अर्थ:– जे व्यवहारनय छे ते जो के आ पहेली पदवीमां (ज्यांसुधी शुद्ध स्वरूपनी प्राप्ति न थई होय त्यां
सुधी) जेमणे पोतानो पग मांडेलो छे एवा पुरुषोने अरेरे! हस्तावलंब तुल्य कह्यो छे, तो पण जे पुरुषो
चैतन्य–चमत्कार मात्र, परद्रव्य भावोथी रहित [शुद्धनयना विषयभूत] परम ‘अर्थ’ ने अंतरंगमां अवलोके
छे, तेनी श्रद्धा करे छे तथा तद्रूप लीन थई चारित्रभावने प्राप्त थाय छे तेमने ए व्यवहारनय कांई पण
प्रयोजनवान नथी.
व्यवहारनय वच्चे आवी पडे छे तेने ‘हंतः’ कहीने धूत्कारी काढ्यो छे. व्यवहार उपर द्वेष नथी पण तेनी
उपेक्षा छे, ते तरफ द्रष्टिनुं जोर नथी, द्रष्टि नकार करे छे, ज्ञान तेने जाणे छे. वच्चे व्यवहार आवी जाय छे. ते
पण क्रमबद्ध ज छे. पूर्ण थवा जतां वच्चे साधकदशामां व्यवहार न आवे तो शुं पूर्ण थई गया पछी व्यवहारनो
विकल्प ऊठे?
ए तो एनी स्थिति ज एवी छे के साधकपणामां वच्चे बाधकरूप व्यवहार आवे ज; पण जो जीव ते
व्यवहारमां अटके तो साधकदशामां आगळ वधी शके नहि पण मिथ्याद्रष्टि थाय. व्यवहार आवे छे खरो, तेनी
हैयातिनी ना नथी पण वच्चे ते आवी पडे छे तेनो खेद छे. बस! क्रमबद्ध पर्यायनी प्रतीतनुं जोर द्रव्य उपर ज
छे, पर्याय उपर तेनुं जोर नथी. द्रव्य तरफना जोरे भंगभेदरूप व्यवहारनो निषेध छे.
कुंदकुंद भगवान पडकार मारीने चेतवे छे के भाई रे! ध्यान राखजे, स्वभावनी साधक दशामां वच्चे
राग आवी पडशे खरो, मुनिदशामां पण विकल्प उठशे खरो, पण तेने साधन न मानीश, तेनी होंश न करीश,
ते बाधक छे, तेने बाधकपणे जाणीने छोडी देजे अने निश्चय स्वभावना जोरे आगळ पगलां भरजे, एटले के
निश्चयस्वभावनी द्रष्टिना जोरे ज तारी पर्याय क्रमेक्रमे शुद्ध थती जशे.
आ क्रमबद्धपर्यायना सिद्धांतमां तो अध्यात्मस्वरूपनी वात छे, ते समजतां जेने कंटाळो लागे छे तेने
आत्माना स्वरूपनी अरुचि छे. स्वरूप समजवाना कंटाळाने लीधे तेने रागनी वात सहेली लागे छे.
अध्यात्मपद्धतिमां तो रागनो उपदेश होय नहि, आगमपद्धतिमां राग अने विकल्पनी वात व्यवहारथी करी होय
ते सांभळतां जेने होंश आवे छे अने अध्यात्मस्वरूपनी वात समजवानी होंश आवती नथी तेने आत्माना
परमार्थ स्वरूपनो कंटाळो छे, अने स्वरूपनो कंटाळो ते ज मिथ्यात्व छे.
आचार्यप्रभु कहे छे के याद राख! वच्चे शुभराग आवे छे, तेनी जो होंश करीश तो रागमां अने
मिथ्यात्वमां अटकी जवानो छो. वच्चे राग आवे तेनी होंश करीश नहि पण ज्ञातापणे जाणीने छोडी देजे अने
ज्ञानने ज ग्रहण करजे. माटे ज समयसारनी आ २९६ मी गाथामां कह्युं छे के प्रज्ञा वडे ज [सम्यग्ज्ञानथी ज]
आत्मानुं ग्रहण कराय छे, अने प्रज्ञावडे ज बंधने छेदाय छे.