Atmadharma magazine - Ank 030
(Year 3 - Vir Nirvana Samvat 2472, A.D. 1946)
(Devanagari transliteration).

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: चैत्र : २४७२ : आत्मधर्म : ११५ :
जोवानुं न रह्युं केमके ते आत्मानुं स्वरूप नथी, बस हवे पोताना द्रव्य–गुण तरफ ज पर्यायनी एकाग्रतारूप
क्रिया करवानी रही, एकाग्रता करतां करतां पर्याय शुद्ध थई जाय छे. आवी एकाग्रता कोण करे? जेणे प्रथम
अरिहंतना स्वरूप साथे मेळवीने पोताना पूर्णस्वरूपने ख्यालमां लीधुं होय ते अशुद्धता टाळवा माटे शुद्ध
स्वभावनी एकाग्रतानो प्रयत्न करे... परंतु जे जीव पूर्ण शुद्ध स्वरूपने जाणतो नथी अने पुण्य–पापने ज
पोतानुं स्वरूप मानी रह्यो छे ते जीव अशुद्धता टाळवानो प्रयत्न करी शके नहि, माटे सौथी पहेलांं पोतानो शुद्ध
स्वभाव ओळखवो जोईए. आ गाथामां आत्माना शुद्धस्वभावनी ओळखाणनी रीत बतावी छे.
“अरिहंतनुं स्वरूप सर्व प्रकारे स्पष्ट छे, जेवी ते दशा छे तेवी ज आ आत्मानी दशा होवी जोईए” एम
नक्की कर्युं एटले अरिहंतदशामां न होय तेवा भावो मारा स्वरूपमां नथी–एम विकार भाव अने स्वभावने
जुदा जुदा जाण्या; आ प्रमाणे जेणे अरिहंतनो बराबर निर्णय कर्यो अने तेवो ज मारो आत्मा छे एम प्रतीत
करी तेनो दर्शनमोह नाश थईने तेने क्षायकसमकित थाय छे.
ध्यान राखजो, आ अपूर्व वात छे. आमां एकला अरिहंतनी वात नथी, पण पोताना आत्माने
भेळवीने वात छे. अरिहंतनुं ज्ञान करनार तो आ आत्मा छे. अरिहंतनी प्रतीत करनार पोतानो ज्ञानस्वभाव
छे, जे पोताना ज्ञानस्वभाववडे अरिहंतनी प्रतीति करे तेने पोताना आत्मानी प्रतीत अवश्य थाय ज अने
पछी पोताना स्वरूप तरफ एकग्रता करतां करतां केवळज्ञान थाय छे. आ रीते सम्यग्दर्शनथी शरू करीने
केवळज्ञान पूर्ण करवा सुधीनो अप्रतिहत उपाय बतावी दीधो छे. ८२ मी गाथामां कहेशे के समस्त तीर्थंकरो आ
ज विधिथी कर्मनो क्षय करीने निर्वाण प्राप्त थया छे अने आ ज उपदेश कर्यो छे; जेम पोतानुं मोढुं जोवा माटे
सामे अरिसो राखे तेम अहीं आत्मानुं स्वरूप जोवा माटे सामे अरिहंत भगवंतोने राख्या छे. तीर्थंकरोनो
पुरुषार्थ अप्रतिहत होय छे, तेमनुं समकित पण अप्रतिहत होय छे, अने श्रेणी पण अप्रतिहत होय छे, अने
अहीं तीर्थंकरोनी साथे मेळववाना छे तेथी तीर्थंकरोनी जेम अप्रतिहत सम्यग्दर्शननी ज वात लीधी छे. मूळ
सूत्रमां “
मोहो खलु जादि तस्स लयं” एम रचना छे तेमांथी आ भावो नीकळे छे.
अरिहंत अने बीजा आत्माओना स्वभावमां निश्चयथी तफावत नथी. अरिहंतनुं स्वरूप छेल्ली शुद्ध
दशारूप छे तेथी अरिहंतनुं ज्ञान करतां बधा आत्माओना शुद्धस्वरूपनुं ज्ञान पण थई जाय छे. स्वभावे बधा
आत्मा अरिहंत जेवा छे परंतु पर्यायमां फेर छे. अहीं तो बधा ज आत्माने अरिहंत जेवा कह्या छे, अभवीने
जुदा काढ्या नथी. अभवी जीवनुं स्वभाव सामर्थ्य तो अरिहंत जेवुं ज छे. बधा आत्मानो स्वभाव तो पूरो छे,
पण अवस्थामां पूर्णता प्रगट नथी ते तेमना पुरुषार्थनो दोष छे, ते दोष पर्यायनो छे पण स्वभावनो दोष नथी.
जो स्वभावने ओळखे तो स्वभावना जोरे पर्यायनो दोष टाळे.
भले, जीवोने वर्तमानमां अरिहंत जेवी पूर्णदशा प्रगटी न होय छतां पण आत्माना द्रव्य–गुण–पर्यायनी
पूर्णतानुं स्वरूप केवुं होय ते पोते वर्तमान नक्की करी शके छे.
अरिहंत केवळीभगवान जेवी दशा ज्यां सुधी न थाय त्यां सुधी आत्मानुं पूरूं स्वरूप नथी. अरिहंतना
पूरा स्वरूपनुं ज्ञान करतां बधा आत्मानुं ज्ञान थाय छे. बधाय आत्माओ पोताना पूरा स्वरूपने ओळखीने
पूर्णदशा करवानो प्रयत्न न करे त्यां सुधी तेओ दुःखी छे. बधा आत्मा शक्तिस्वरूपे तो पूरा छे ज, पण
व्यक्तदशापणे पूरा थाय तो सुख प्रगटे. जीवोने पोतानी ज अपूर्णदशाना कारणे दुःख छे, ते दुःख बीजाना
कारणे नथी माटे बीजो कोई जीवनुं दुःख टाळी शके नहि पण जीव पोते पोत्तानी पूर्णता ओळखे तो ज तेनुं दुःख
टळे. आथी हुं कोईनुं दुःख टाळी शकुं नहि अने पर कोई मारूं दुःख टाळी शके नहि–आवी स्वतंत्रतानी प्रतीत
थई अने परनुं कर्तापणुं टाळीने ज्ञातापणे रह्यो, आ ज सम्यग्दर्शननो अपूर्व पुरुषार्थ छे.
पूर्णस्वरूपना अज्ञानने लीधे ज पोतानी पर्यायमां दुःख छे, ते दुःख टाळवा माटे अरिहंतना द्रव्य गुण
पर्यायनो पोताना ज्ञानवडे निर्णय करवो जोईए. शरीर, मन, वाणी, पुस्तक, कर्मो ए बधां तो जड छे–अचेतन
छे, ते तो आत्माथी तद्न जुदां छे, राग–द्वेष थाय छे ते पण खरेखर मारां नथी केमके अरिहंत भगवाननी