Atmadharma magazine - Ank 031
(Year 3 - Vir Nirvana Samvat 2472, A.D. 1946)
(Devanagari transliteration).

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: वैशाख : २४७२ : आत्मधर्म : १३५ :
काढी नांख्युं. (अहीं पहेलांं मान्यता–श्रद्धा करवानी वात छे.) पर द्रव्यनुं करवानी मान्यता, शुभरागथी धर्म
थाय एवी मान्यता, निमित्तथी लाभ–नुकशान थाय एवी मान्यता, आ बधुं टळी गयुं केमके अरिहंतना
आत्माने ते कांई नथी.
द्रव्य – गुण – पर्यायनुं स्वरूप जाण्या पछी शुं करवुं?
अरिहंतना आत्माने द्रव्य–गुण–पर्यायपणे जाणनार जीव त्रिकाळी आत्माना द्रव्य–गुण–पर्यायस्वरूपने
एक क्षणमां कळी ले छे; बस! अहीं आत्माने कळी लेवा सुधीनी वात करी त्यांसुधी विकल्प छे, विकल्पवडे
आत्मलक्ष कर्युं छे. हवे ते विकल्प तोडीने, द्रव्य–गुण–पर्यायना भेदने छोडीने अभेद आत्मानुं लक्ष करवानी वात
करे छे. आ अभेदनुं लक्ष करवुं ते ज अरिहंतने जाणवानुं खरुं फळ छे, अने अभेदनुं लक्ष करे ते ज क्षणे मोहनो
क्षय थाय छे.
जे अवस्थावडे अरिहंतने जाणीने त्रिकाळिक द्रव्यनो ख्याल कर्यो ते अवस्थामां जे विकल्प वर्ते छे ते पोतानुं
स्वरूप नथी, पण जे ख्याल कर्यो छे ते ख्याल पोतानो स्वभाव छे. ख्याल करनार जे ज्ञान छे ते सम्यग्ज्ञाननी
जातनुं छे; पण हजी परलक्ष छे तेथी अहीं सुधी सम्यग्दर्शन प्रगटरूप नथी. हवे ते ख्यालरूप अवस्थाने पर लक्षथी
खसेडीने स्वभावमां संकेले छे, –भेदनुं लक्ष छोडी अभेदना लक्षे सम्यग्दर्शन प्रगटरूप करे छे.
जेम मोतीनो हार झुलतो होय, ते झुलता हारने लक्षमां लेतां तेना पहेलेथी छेल्ले सुधीना बधा मोतीओ
ते हारमां ज समाई जाय छे, पण हार अने मोतीनो भेद लक्षमां आवतो नथी. एकेक मोती छूटुं छे पण ज्यारे
हारने जोवामां आवे त्यारे एकेक मोतीनुं लक्ष छूटी जाय छे. परंतु पहेलांं हारनुं स्वरूप जाणवुं जोईए के हारमां
अनेक मोतीओ छे, तेमज हार धोळो छे; आ रीते प्रथम हार, हारनो रंग अने मोती ए त्रणेनुं स्वरूप जाण्युं
होय तो ते त्रणेने झुलता हारमां समावीने हारने एकपणे लक्षमां लई शकाय, मोतीओनुं सळंगपणुं ते हार छे.
प्रत्येक मोती ते हारनुं विशेष छे, अने ते विशेषोने एक सामान्यमां संकेलवामां आवे तो हार लक्षमां आवे छे.
हारनी जेम आत्माना द्रव्य–गुण–पर्यायोने जाणीने पछी बधी पर्यायोने अने गुणोने एक चैतन्यद्रव्यमां ज
अंतर्गत करतां द्रव्यनुं लक्ष थाय छे–आ ज क्षणे सम्यग्दर्शन थईने मोहक्षय पामे छे.
अहीं ‘झूलतो हार’ केम लीधो छे? केमके वस्तु कुटस्थ नथी पण समये समये झुली रही छे एटले के
पर्याये पर्याये द्रव्यमां परिणमन थई रह्युं छे. जेम हारना लक्षे मोतीनुं लक्ष छूटे छे तेम द्रव्यना लक्षे पर्यायनुं
लक्ष छूटी जाय छे. पर्यायोमां बदलनारो तो एक आत्मा छे, बदलनार उपरना लक्षे बधा परिणामोने तेमां
अंतर्गत करवामां आवे छे. पर्यायपणे एकेक पर्याय जुदी जुदी छे परंतु ज्यारे द्रव्यने जोवामां आवे त्यारे बधा
पर्यायो तेमां अंतर्गत थई जाय छे, आ रीते आत्मद्रव्यने ख्यालमां लेवुं ते ज सम्यग्दर्शन छे.
प्रथम आत्मा द्रव्य, आत्माना गुणो अने आत्मानी अनादिअनंत काळनी पर्यायो ए त्रणेनुं वास्तविक
स्वरूप (अरिहंतना स्वरूप साथे सरखावीने) नक्की कर्युं होय तो पछी ते द्रव्य–गुण–पर्याय त्रणेने एक
परिणमता द्रव्यमां समावीने द्रव्यने अभेदपणे लक्षमां लई शकाय. पहेलांं सामान्य–विशेष (द्रव्य–पर्याय)
जाणीने पछी विशेषोने सामान्यमां अंतर्गत करवामां आवे छे; परंतु जेणे सामान्य–विशेषनुं स्वरूप जाण्युं न
होय ते विशेषने सामान्यमां अंतर्लीन केवी रीते करे?
प्रथम अरिहंत जेवा द्रव्य–गुण–पर्यायपणे पोताना आत्माने लक्षमां लईने पछी जे जीवे गुण–पर्यायोने
एक द्रव्यमां संकेल्या तेणे आत्माने स्वभावमां धारी राख्यो, ज्यां आत्माने स्वभावमां धारी राख्यो त्यां मोहने
रहेवानुं स्थान न रह्युं एटले मोह निराश्रयपणाने लीधे ते ज क्षणे क्षय पामे छे, पहेलांं अज्ञानने लीधे द्रव्य–
गुण–पर्यायना भेद पाडतो तेथी ते भेदना आश्रये मोह रह्यो हतो. परंतु जयां द्रव्य–गुण–पर्यायने अभेद कर्या
त्यां द्रव्य–गुण–पर्यायनो भेद टळी जतां मोह क्षय पामे छे. द्रव्य–गुण–पर्यायनी एकता ते ज धर्म छे अने द्रव्य–
गुण–पर्याय वच्चे भेद ते ज अधर्म छे.
छूटा छूटा मोती ते विस्तार छे केमके तेमां अनेकपणुं आवे छे, अने बधा मोतीओना अभेदपणारूप एक
हार ते संक्षेप छे. जेम पर्यायना विस्तारने द्रव्यमां संकेली दीधो तेम विशेष्य–विशेषणपणानी वासनाने पण दुर
करीने–गुणने पण द्रव्यमां ज अंतर्हित करीने एकला आत्माने ज जाणवो, अने ए प्रमाणे आत्माने जाणतां
मोह क्षय पामे छे. पहेलांं ‘मनवडे