Atmadharma magazine - Ank 031
(Year 3 - Vir Nirvana Samvat 2472, A.D. 1946)
(Devanagari transliteration).

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: वैशाख : २४७२ : आत्मधर्म : १३७ :
मारूं खरूं स्वरूप नथी. आ प्रमाणे प्रथम भेद द्वारा नक्की करवुं जोईए, पण पछी भेदना विचारने छोडीने
एकला आत्माने जाणवाथी स्वाधीनतानो उपाय प्रगटे छे.
– द्रव्य – गुण – पर्यायनुं स्वरूप जाणवानुं फळ –
पर्यायोने अने गुणोने एक द्रव्यमां अंतर्लीन करीने केवळ आत्माने जाणतां ते वखते अंतरमां शुं थाय
छे ते हवे कहे छे:–...“केवळ आत्माने जाणतां, तेनी उत्तरोत्तर क्षणे कर्ता–कर्म–क्रियानो विभाग क्षय पामतो जतो
होवाथी, निष्क्रय चिन्मात्रभावने पामे छे;”
[गाथा ८० टीका, पानुं–११९]
द्रव्य–गुण–पर्यायना भेदनुं लक्ष छोडीने अभेद स्वभाव तरफ ढळतां कर्ता–कर्म–क्रियाना भेदनो विभाग
क्षय पामतो जाय छे अने जीव निष्क्रिय चिन्मात्रभावने पामे छे–आ ज सम्यग्दर्शन छे.
हुं आत्मा, ज्ञान मारो गुण अने आ मारी पर्याय–एवा भेदनी क्रियारहित, पुण्य–पापना विकल्प रहित
निष्क्रिय चैतन्यभावनो अनुभव करवो तेमां अनंत पुरुषार्थ छे, पोतानुं आत्मबळ स्वमां वळे छे, कर्ता–कर्म–
क्रियाना भेदनो विभाग क्षय पामे छे. पहेलांं विकल्प वखते हुं (द्रव्य) कर्ता अने पर्याय मारूं कार्य एम कर्ता
कर्मना भेद पडता पण ज्यारे पर्यायने द्रव्यमां ज भेळवी दीधी त्यारे द्रव्य पर्याय वच्चे भेद न रह्यो एटले द्रव्य
कर्ता अने पर्याय तेनुं कार्य एवा भेदनो अभेदना अनुभव वखते क्षय थाय छे. पर्यायोने अने गुणोने
अभेदपणे आत्मद्रव्यमां ज समावीने परिणामी, परिणाम अने परिणति
[कर्ता, कर्म अने क्रिया] ने अभेदमां
समावीने अनुभव करवो ते अनंत पुरुषार्थ छे. अने ते ज ज्ञाननो स्वभाव छे; भंग भेदमां जतां ज्ञान अने
वीर्य ओछां थतां जाय छे, अने अभेदनो अनुभव करतां ‘उत्तरोत्तर क्षणे’ कर्ता–कर्म–क्रियानो विभाग क्षय
पामतो जाय छे. खरेखर तो जे क्षणे अभेद स्वभाव तरफ ढळ्‌यो ते ज क्षणे कर्ता–कर्म–क्रियानो भेद तूटी जाय छे
छतां अहीं ‘उत्तरोत्तर क्षणे क्षय पामे छे’ एम केम कह्युं छे? अनुभव करवा टाणे पर्याय द्रव्य तरफ अभेद थई
छे परंतु हजी सर्वथा अभेद थई नथी, जो सर्वथा अभेद थाय तो ते ज क्षणे केवळज्ञान थाय; परंतु जे क्षणे
अभेदना अनुभव तरफ ढळ्‌यो ते क्षणथी प्रत्येक पर्यायमां भेदनो क्रम तूटवा मांडयो अने अभेदनो क्रम वधवा
मांडयो छे. ज्यारे पर लक्ष हतुं त्यारे परना लक्षे उत्तरोत्तर क्षणे भेदरूप पर्याय थती–अर्थात् क्षणेक्षणे पर्याय
हीणी थती; ज्यारे परनुं लक्ष छोडीने स्वमां अभेदना लक्षे एकाग्र थयो त्यारे स्वलक्षे उत्तरोत्तर क्षणे पर्याय
अभेद थवा मांडी अर्थात् क्षणेक्षणे पर्यायनी शुद्धता वधवा मांडी छे. सम्यग्दर्शन थयुं त्यां क्रमेक्रमे–पर्याये पर्याये
शुद्धतानी वृद्धि थईने केवळज्ञान ज थाय छे, वच्चे पडी जाय ए वात ज नथी. बस! सम्यकत्व कर्युं ते कयुं, हवे
उत्तरोत्तर क्षणे द्रव्य–पर्याय वच्चेना भेदने सर्वथा तोडीने केवळज्ञान लीधा वगर अटके नहि.
अहो! ज्ञानरूपी अवस्थाना कार्यमां अनंत केवळज्ञानीओनो निर्णय समाई जाय छे, एकेक पर्यायनुं
आवुं सामर्थ्य छे. जे ज्ञाननी पर्याये अरिहंतनो निर्णय कर्यो ते ज्ञानमां पोतानो निर्णय करवानी ताकात छे.
पर्यायनुं सामर्थ्य गमे तेटलुं होवा छतां ते पर्याय क्षणिक छे, एक पछी एक अवस्थानुं लक्ष करतां तेमां भेदनो
विकल्प ऊठे छे; केमके अवस्थामां खंड छे तेथी तेना लक्षे खंडनो विकल्प ऊठे छे, अवस्थाना लक्षमां अटकनार
वीर्य अने ज्ञान बंने रागवाळां छे, ज्यारे पर्यायनुं लक्ष छोडीने भेदना रागने तोडीने अभेद स्वभाव तरफ
वीर्यने ढाळीने त्यां ज्ञाननी एकाग्रता करे त्यारे निष्क्रिय चिन्मात्रभावनो अनुभव थाय छे, आ अनुभव ते ज
सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान छे.
अहीं चिन्मात्रभावने ‘निष्क्रिय’ केम कह्यो? त्यां परिणतिरूप क्रिया तो छे परंतु खंडरूप–रागरूप क्रियानो
अनुभव नथी. कर्ता–कर्म अने क्रियाना भेद नथी तेम ज कर्ता–कर्म–क्रिया संबंधी विकल्प नथी ए अपेक्षाए
‘निष्क्रिय’ कहेल छे, परंतु अनुभव वखते अभेदपणे परिणति तो थया ज करे छे. पहेलांं परलक्षे द्रव्य–पर्याय
वच्चे भेद पडता त्यारे विकल्परूप क्रिया हती पण स्वद्रव्यना लक्षे एकाग्रता करतां द्रव्य पर्याय वच्चेनो भेद
तुटीने बंने अभेद थया ए अपेक्षाए चैतन्यभावने निष्क्रिय कह्यो छे. जाणवा सिवाय जेनी बीजी कोई क्रिया
नथी एवा ज्ञानमात्र निष्क्रियभावने आ गाथामां कहेला उपाय वडे ज जीव पामे छे.
.मोहांधकार जरूर क्षय पामे छे.
अभेद अनुभव वडे ‘चिन्मात्रभावने पामे छे’ ते वात अस्तिथी करी; हवे, चिन्मात्रभावने पामतां ‘मोह
नाश पामे छे’ एम नास्तिथी वात करे छे. चिन्मात्रभावनी प्राप्ति अने मोहनो क्षय ए बंने एक ज समयमां छे.