Atmadharma magazine - Ank 031
(Year 3 - Vir Nirvana Samvat 2472, A.D. 1946)
(Devanagari transliteration).

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: वैशाख : २४७२ : आत्मधर्म : १२७ :
शाश्वत सुखनो मार्ग दर्शावतुं मासिक
वर्ष त्रीजुं वै शा ख
अंक सात २ ४ ७ २
श्रद्धा – ज्ञान – चारित्र
सम्यक्दर्शननुं परम माहात्म्य छे. द्रष्टिनुं माहात्म्य करवा माटे सम्यग्द्रष्टिना भोगने पण निर्जरानुं कारण
कह्युं छे. समयसार गाथा–१९३ मां कह्युं छे के–सम्यग्द्रष्टि जीव जे ईन्द्रियो वडे चेतन तथा अचेतन द्रव्यनो
उपभोग करे छे ते सर्व निर्जरानुं निमित्त छे; अने तेमां ज मोक्षअधिकारमां छठ्ठा गुणस्थाने मुनिने जे
प्रतिक्रमणादिनी शुभवृत्ति उठे तेने विषकुंभ कहेल छे. सम्यग्द्रष्टिनी अशुभ लागणी ते निर्जरानुं कारण अने
मुनिनी शुभ लागणी ते झेर–आनो मेळ कई रीते छे?
ज्यां सम्यग्द्रष्टिना भोगने निर्जरानुं कारण कह्युं छे त्यां ‘भोग सारां छे’ एम बताववुं नथी पण द्रष्टिनुं
महात्म्य बताववुं छे. अबंधस्वभावनी द्रष्टिनुं जोर बंधने स्वीकारतुं नथी–तेनो महिमा कर्यो छे एटले के द्रष्टि
अपेक्षाए ते वात करी छे.
ज्यां मुनिनी व्रतादिनी शुभ लागणीने झेर कह्युं छे त्यां चारित्र अपेक्षाए वात करी छे. अरे, मुनि! तें
शुद्धात्मचारित्र अंगीकार कर्युं छे, परम केवळज्ञाननी उत्कृष्ट साधकदशा प्राप्त करी छे अने हवे जे व्रतादिनी
लागणी उठे ते तारा शुद्धात्म चारित्रने अने केवळज्ञानने रोकनार छे माटे ते झेर छे.
सम्यग्द्रष्टिने स्वभावद्रष्टिनुं जोर छे ते निर्जरानुं कारण छे, अने द्रष्टिमां तेओ बंधने पोतानुं स्वरूप
मानता नथी, रागना कर्ता पोते थता नथी तेथी तेमने अबंध कह्या छे, परंतु चारित्र अपेक्षाए तो तेमने बंधन
छे. जो भोगथी निर्जरा थती होय तो वधारे भोगथी वधारे निर्जरा थाय!! एम तो होय नहि. सम्यग्द्रष्टिने जे
रागनी वृत्ति उठे छे तेने द्रष्टि अपेक्षाए तो ते पोतानी मानता ज नथी, ज्ञान अपेक्षाए ‘पोताना पुरुषार्थनी
नबळाई छे तेथी राग थाय छे’ एम जाणे छे अने चारित्र अपेक्षाए ते रागने झेर माने छे, दुःख–दुःख लागे छे.
आ रीते दर्शन–ज्ञान अने चारित्रमांथी ज्यारे दर्शननी मुख्यताथी वात चालती होय त्यारे सम्यग्द्रष्टिना भोगने
पण निर्जरानुं ज कारण कहेवाय छे. स्वभावद्रष्टिना जोरे समये समये तेनी पर्याय निर्मळ थती जाय छे एटले
क्षणे क्षणे ते मुक्त ज थता जाय छे. राग थाय छे तेने जाणे छे खरा, परंतु स्वभावमां तेने अस्तिपणे मानता
नथी; अने आ मान्यताना जोरे ज रागनो सर्वथा अभाव करे छे. तेथी साची द्रष्टिनो अपार महिमा छे.
साची श्रद्धा होवा छतां जे राग थाय छे ते राग चारित्रने नुकशान करे छे परंतु साची श्रद्धाने नुकशान
करतो नथी, माटे श्रद्धाअपेक्षाए तो सम्यग्द्रष्टिने राग थाय ते बंधनुं कारण नथी पण निर्जरानुं ज कारण छे–
एम कहेवामां आवे छे, परंतु श्रद्धा साथे चारित्रनी अपेक्षा भूलवी न जोईए.
चारित्र अपेक्षाए छठ्ठागुणस्थाने वर्तता मुनिनी शुभवृत्तिने पण झेर कह्युं तो पछी सम्यग्द्रष्टिना
भोगना अशुभभावनी तो वात ज शुं? अहो! परम शुद्धस्वभावना भानमां मुनिनी शुभवृत्तिने पण जे झेर
माने ते अशुभ लागणीने तो सारी केम माने? जेणे स्वभावना भानमां शुभवृत्तिने पण झेर मान्युं छे ते जीव
स्वभावना जोरे शुभवृत्तिने तोडीने पूर्ण शुद्धता प्रगट करशे, परंतु अशुभने तो कदापि आदरणीय नहि माने.
सम्यग्द्रष्टि जीव श्रद्धा अपेक्षाए तो पोताने पूर्ण परमात्मा ज माने छे; छतां चारित्र अपेक्षाए, अधूरी
पर्याय होवाथी तरणांतुल्य माने छे एटले के हजी अनंत अधूराश छे एम जाणीने स्वभावनी स्थिरताना
प्रयत्नवडे ते टाळवा मांगे छे, ज्ञान अपेक्षाए, जेटलो राग छे तेनो सम्यग्द्रष्टि ज्ञाता छे पण रागने निर्जरा के
मोक्षनुं कारण मानता नथी, अने जेम जेम पर्यायनी शुद्धता वधारतां राग टळतो जाय छे तेम तेम तेनुं ज्ञान
करे छे. आ रीते श्रद्धा–ज्ञान अने चारित्र ए त्रणे अपेक्षाए आ स्वरूप समजवुं जोईए.
(सं. २००२ मागसर सुद–९ समयसार)