Atmadharma magazine - Ank 031
(Year 3 - Vir Nirvana Samvat 2472, A.D. 1946)
(Devanagari transliteration).

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: १२८ : आत्मधर्म : वैशाख : २४७२ :
सम्यकत्व अरधन
जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा अने मोक्ष ए सात तत्त्वोनो यथावत् निश्चय, आत्मामां
तेनो वास्तविक प्रतिभास ते ज सम्यग्दर्शन छे. पंडित अने बुद्धिमान मुमुक्षुने मोक्षस्वरूप परम सुखस्थाने
निर्विघ्न पहोंचाडवामां ए प्रथम पगथीआरूप छे. ज्ञान, चारित्र अने तप ए त्रणे सम्यकत्व सहित होय तो ज
मोक्षार्थे सफळ छे, वंदनीय छे, कार्यगत छे. अन्यथा ते ज (ज्ञान, चारित्र अने तप) संसारना कारणरूपपणे ज
परिणम्ये जाय छे. टुंकामां सम्यकत्व रहित ज्ञान ते ज अज्ञान, सम्यकत्व रहित चारित्र ते ज कषाय अने
सम्यकत्व विनानुं तप ते ज कायकलेष छे. ज्ञान, चारित्र अने तप ए त्रणे गुणोने उज्वळ करनार एवी ए
सम्यकश्रद्धा प्रथम आराधना छे. बाकीनी त्रण आराधना एक सम्यकत्वना विद्यमानपणामां ज आराधक–भावे
प्रवर्ते छे. ए प्रकारे सम्यकत्वनो कोई अकथ्य अने अपूर्व महिमा जाणी ते पवित्र कल्याणमूर्तिरूप सम्यग्दर्शनने,
आ अनंत अनंत दुःखरूप एवा अनादि संसारनी आत्यंतिक निवृत्ति अर्थे हे भव्यो! तमे भक्तिपूर्वक अंगीकार
करो, समये समये आराधो.
[श्री आत्मानुशासन–पानुं ९]
चार आराधनामां सम्यकत्व आराधनाने प्रथम कहेवानुं शुं कारण? एवो शिष्यने प्रश्न थतां श्री आचार्य
तेनुं समाधान करे छे:–
शम बोध वृत्त तपसां, पाषाणस्यैवगौरवंपुषः
पूज्यं महामणेरिव, तदेवसम्यक्त्व संयुक्तम्।।
१५।।
आत्माने मंद कषायरूप उपशमभाव, शास्त्राभ्यासरूप ज्ञान, पापना त्यागरूप चारित्र अने
अनशनादिरूप तप एनुं जे महत्पणुं छे ते सम्यकत्व सिवाय मात्र पाषाणबोज समान छे, आत्मार्थ फळदाता
नथी. परंतु जो ते ज सामग्री सम्यकत्व सहित होय तो महामणि समान पूजनीक थई पडे, अर्थात् वास्तव्य
फळदाता अने उत्कृष्ट महिमा योग्य थाय.
पाषाण तथा मणि ए बंने एक पत्थरनी जातिनां छे अर्थात् जाति अपेक्षा तो ए बंने एक छे. तोपण
शोभा, झलक आदिना विशेषपणाने लईने मणीनो थोडो भार ग्रहण करे तोपण घणी ज महत्वताने पामे, पण
पाषाणनो घणो भार मात्र तेना उठावनारने कष्टरूप ज थाय छे, तेवी ज रीते मिथ्यात्वक्रिया अने
सम्यकत्त्वक्रिया ए बंने क्रिया अपेक्षाए तो एक ज छे; तथापि अभिप्रायना सत् असत्पणाना तथा वस्तुना
भान–बेभानपणाना कारणने लईने मिथ्यात्वसहित क्रियानो घणो भार वहन करे तोपण वास्तव्य महिमायुक्त
अने आत्मलाभपणाने पामे नहि. परंतु सम्यकत्व सहित अल्प पण क्रिया यथार्थ ‘आत्मलाभदाता’ अने अति
महिमा योग्य थाय.
(श्री आत्मानुशासन पानुं–११)
बे नयोनुं फळ
“शुद्धनय कतकफळना स्थाने छे तेथी जेओ शुद्धनयनो आश्रय करे छे तेओ ज सम्यक्
अवलोकन करता (होवाथी) सम्यग्द्रष्टि छे पण बीजा (जेओ अशुद्धनयनो आश्रय करे छे तेओ)
सम्यग्द्रष्टि नथी. माटे कर्मथी भिन्न आत्माना देखनाराओए व्यवहारनय अनुसरवा योग्य नथी.”
[श्री अमृतचंद्राचार्यदेव कृत टीका. समयसार गाथा–११. गुजराती समयसार पानुं–२०]
“अहीं एम समजवुं के जिनवाणी स्याद्वादरूप छे, प्रयोजनवश नयने मुख्य–गौण करीने
कहे छे. प्राणीओने भेदरूप व्यवहारनो पक्ष तो अनादिकाळथी ज छे. वळी जिनवाणीमां
व्यवहारनो उपदेश शुद्धनयनो हस्तावलंब जाणी बहु कर्यो छे; पण एनुं फळ संसार ज छे.
शुद्धनयनो पक्ष तो कदी आव्यो नथी अने एनो उपदेश पण विरल छे–क्यांक क्यांक छे, तेथी
उपकारी श्रीगुरुए शुद्धनयना ग्रहणनुं फळ मोक्ष जाणीने एनो उपदेश प्रधानताथी (मुख्यताथी)
दीधो छे के– ‘शुद्धनय भूतार्थ छे, सत्यार्थ छे; एनो आश्रय करवाथी सम्यग्द्रष्टि थई शकाय छे;
एने जाण्या विना ज्यां सुधी जीव व्यवहारमां मग्न छे त्यांसुधी आत्माना ज्ञानश्रद्धानरूप
निश्चयसम्यक्त्व थई शकतुं नथी.’ एम आशय जाणवो.”
[भावार्थ, गाथा–११, पानुं–२१]