निर्विघ्न पहोंचाडवामां ए प्रथम पगथीआरूप छे. ज्ञान, चारित्र अने तप ए त्रणे सम्यकत्व सहित होय तो ज
मोक्षार्थे सफळ छे, वंदनीय छे, कार्यगत छे. अन्यथा ते ज (ज्ञान, चारित्र अने तप) संसारना कारणरूपपणे ज
परिणम्ये जाय छे. टुंकामां सम्यकत्व रहित ज्ञान ते ज अज्ञान, सम्यकत्व रहित चारित्र ते ज कषाय अने
सम्यकत्व विनानुं तप ते ज कायकलेष छे. ज्ञान, चारित्र अने तप ए त्रणे गुणोने उज्वळ करनार एवी ए
सम्यकश्रद्धा प्रथम आराधना छे. बाकीनी त्रण आराधना एक सम्यकत्वना विद्यमानपणामां ज आराधक–भावे
प्रवर्ते छे. ए प्रकारे सम्यकत्वनो कोई अकथ्य अने अपूर्व महिमा जाणी ते पवित्र कल्याणमूर्तिरूप सम्यग्दर्शनने,
आ अनंत अनंत दुःखरूप एवा अनादि संसारनी आत्यंतिक निवृत्ति अर्थे हे भव्यो! तमे भक्तिपूर्वक अंगीकार
करो, समये समये आराधो.
पूज्यं महामणेरिव, तदेवसम्यक्त्व संयुक्तम्।।
नथी. परंतु जो ते ज सामग्री सम्यकत्व सहित होय तो महामणि समान पूजनीक थई पडे, अर्थात् वास्तव्य
फळदाता अने उत्कृष्ट महिमा योग्य थाय.
पाषाणनो घणो भार मात्र तेना उठावनारने कष्टरूप ज थाय छे, तेवी ज रीते मिथ्यात्वक्रिया अने
भान–बेभानपणाना कारणने लईने मिथ्यात्वसहित क्रियानो घणो भार वहन करे तोपण वास्तव्य महिमायुक्त
अने आत्मलाभपणाने पामे नहि. परंतु सम्यकत्व सहित अल्प पण क्रिया यथार्थ ‘आत्मलाभदाता’ अने अति
महिमा योग्य थाय.
सम्यग्द्रष्टि नथी. माटे कर्मथी भिन्न आत्माना देखनाराओए व्यवहारनय अनुसरवा योग्य नथी.”
व्यवहारनो उपदेश शुद्धनयनो हस्तावलंब जाणी बहु कर्यो छे; पण एनुं फळ संसार ज छे.
शुद्धनयनो पक्ष तो कदी आव्यो नथी अने एनो उपदेश पण विरल छे–क्यांक क्यांक छे, तेथी
उपकारी श्रीगुरुए शुद्धनयना ग्रहणनुं फळ मोक्ष जाणीने एनो उपदेश प्रधानताथी (मुख्यताथी)
दीधो छे के– ‘शुद्धनय भूतार्थ छे, सत्यार्थ छे; एनो आश्रय करवाथी सम्यग्द्रष्टि थई शकाय छे;
एने जाण्या विना ज्यां सुधी जीव व्यवहारमां मग्न छे त्यांसुधी आत्माना ज्ञानश्रद्धानरूप
निश्चयसम्यक्त्व थई शकतुं नथी.’ एम आशय जाणवो.”