Atmadharma magazine - Ank 031
(Year 3 - Vir Nirvana Samvat 2472, A.D. 1946)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 6 of 17

background image
: वैशाख : २४७२ : आत्मधर्म : १२९ :
• । दसण मल धम्म। •
‘धर्मनुं मूळ सम्यग्दर्शन छे’
शुभभाव ते धर्मनुं कारण छे एम अज्ञानीओनी मिथ्या मान्यता छे, परंतु शुभभाव तो विकार छे, ते
धर्मनुं कारण नथी; सम्यग्दर्शन पोते धर्म छे अने ते ज धर्मनुं मूळ कारण छे.
अज्ञानीने शुभभाव ते अशुभनुं पगथियुं छे, अने ज्ञानीने शुभनो अभाव ते शुद्धतानुं पगथियुं छे.
अशुभमांथी सीधो शुद्धभाव कोई ज जीवने न थई शके, पण अशुभ छोडीने प्रथम शुभभाव होय अने ते
शुभने छोडीने शुद्धमां जवाय छे, तेथी शुद्धभावनी पूर्वे शुभभावनी ज हैयाति होय छे; आवुं ज्ञानमात्र कराववा
शास्त्रमां शुभभावने शुद्धनुं कारण उपचारथी ज कह्युं छे–परंतु शुभभाव ते शुद्धनुं कारण जो खरेखर माने तो ते
जीवने शुभभावनी रुचि होवाथी तेनो शुभ ते पापनुं ज मूळ छे...शुभभावथी धर्म मानीने जे जीव शुभभाव
करे छे ते जीवने ते शुभ वखते ज मिथ्यात्वनुं सौथी महापाप बंधाय छे, एटले के तेने मुख्यपणे तो अशुभबंध
ज थाय छे; अने ज्ञानी जीव एम जाणे छे के आ शुभनो अभाव करवथी ज शुद्धता थाय छे तेथी तेमने कदापि
शुभनी रुचि होती नथी एटले तेओ अल्प काळमां शुभनो पण अभाव करीने शुद्धभावरूप थई जाय छे.
मिथ्याद्रष्टि जीव पुण्यनी रुचिपूर्वक शुभभाव करीने नवमी ग्रैवेयके गयो छतां त्यांथी नीकळीने
निगोदादिमां गयो, केमके अज्ञानसहितनो शुभभाव ते ज पापनुं मूळ छे. शुभभाव ते मोहराजानी कढी छे,
जेओ ते शुभरागनी रुचि करे छे तेओ ज मोहराजानी जाळमां फसाईने संसारमां रखडे छे. जीव मुख्यपणे
अशुभमां तो धर्म माने ज नहि परंतु शुभमां धर्म मानीने ते जीव अज्ञानी थाय छे. जे पोते अधर्मरूप छे एवो
राग भाव ते धर्मने तो कई रीते मदद करी शके? धर्मनुं कारण तो धर्मरूप भाव होय, के धर्मनुं कारण अधर्मरूप
भाव होय? अधर्मभावनो छेद ते ज धर्मभावनुं कारण छे एटले के अशुभ तेमज शुभ भावनो छेद ते ज
धर्मभावनुं कारण छे.
शुभभाव ते धर्मनुं पगथियुं नथी, पण सम्यक्–समजण ते ज धर्मनुं पगथियुं छे; केवळज्ञानदशा ते संपूर्ण
धर्म छे अने सम्यक्समजण ते अंशे धर्म (श्रद्धारूपी धर्म) छे, ते श्रद्धारूपी धर्म ए ज धर्मनुं पहेलुं पगथियुं छे.
आ रीते धर्मनुं पगथियुं ते धर्मरूप ज छे–पण अधर्मरूप एवो शुभभाव ते कदापि धर्मनुं पगथियुं नथी.
श्रद्धाधर्म पछी ज चारित्र धर्म होई शके छे तेथी ज श्रद्धारूपी धर्म ते धर्मनुं पगथियुं छे–भगवान श्री
कुंदकुंदाचार्यदेवे कह्युं छे के ‘
दंसण मूलो धम्मो–धर्मनुं मूळ दर्शन छे.’

जे कोई लज्जा, भय अने मोटाईथी पण कुत्सित्देवधर्मलिंगने वंदन करे छे, ते मिथ्याद्रष्टि छे. माटे जे
मिथ्यात्वनो त्याग करवा ईच्छे छे, ते कुदेवकुगुरुकुधर्मनो पहेलांं ज त्यागी थाय, सम्यक्त्वना पच्चीस मळदोषोना
त्यागमां पण अमूढद्रष्टि वा छ आयतनमां पण तेनो ज त्याग कराव्यो छे. माटे तेनो अवश्य त्याग करवो. वळी
ए कुदेवादिकना सेवनथी जे मिथ्यात्वभाव थाय छे, ते हिंसादि पापोथी पण महानपाप छे. कारण के–एना
फळथी निगोद–नर्कादिपर्याय प्राप्त थाय छे, त्यां अनंतकाळ सुधी महासंकट पामे छे, तथा सम्यग्ज्ञाननी प्राप्ति
पण महादुर्लभ थई जाय छे.
[मोक्षमार्ग प्रकाशक पानुं–१९८]
(ज्ञानगोष्टि अनुसंधान पा – १२६ थी)
७८. प्र–एक जैन निर्ग्रंथ मुनि छे ते एम माने छे के– ‘मारा उपदेश वडे हुं बीजाने धर्म पमाडी शकुं;’ तो
ते मुनि सम्यग्द्रष्टि छे के मिथ्याद्रष्टि? तमे केम नक्की कर्युं?
उ–ते मिथ्याद्रष्टि छे, केमके हुं पर जीवोने समजावी शकुं एम तेनी मिथ्या मान्यता छे; एक जीव बीजा
जीवने कंई करी शकतो नथी छतां ते परनुं कर्तृत्व माने छे तेथी एम नक्की थाय छे के ते मिथ्याद्रष्टि ज छे.