: वैशाख : २४७२ : आत्मधर्म : १३१ :
लेखांक – त्रीजो “ श्रीप्रवचनसारजी गाथा ८०
अरिहंत सौ जयवंत वर्तो
[परम पज्य सदगरुदवश्रन व्यख्यन. पष वद २. २४७२]
जे जाणतो अर्हंतने गुण द्रव्य ने पर्ययपणे,
ते जीव जाणे आत्मने तसु मोह पामे लय खरे. ८०.
[जे जीव अरिहंतने द्रव्य–गुण–पर्यायपणे जाणे छे ते पोताना आत्माने जाणे छे अने
तेनो मोह क्षय पामे ज छे, अरिहंतनुं स्वरूप सर्व प्रकारे शुद्ध छे तेथी शुद्ध आत्मस्वरूपना
प्रतिबिंब समान श्री अरिहंतनो आत्मा छे. अरिहंत जेवो ज आ आत्मानो शुद्ध
स्वभाव स्थापीने तेने जाणवानी वात करी छे. एकला अरिहंतनी ज वात नथी पण
पोताना आत्माने भेळवीने (–प्रतीत करीने) जाणवानुं छे, केमके अरिहंतमां अने आ
आत्मामां निश्चयथी तफावत नथी. जे जीव पोताना ज्ञानमां अरिहंतनो निर्णय करे ते
जीवना भावमां अरिहंतप्रभु हाजराहजुर मौजुद बिराजे छे, तेने अरिहंतनो विरह नथी.
आ रीते पोताना ज्ञानमां अरिहंतनी साची प्रतीत करतां पोताना आत्मानुं भान थाय
छे अने तेनो मोह अवश्य क्षय पामे छे. आ पूर्वे, (आत्मधर्म अंक २९–३० मां)
कहेवायेला कथननो टुंक सार छे. हवे द्रव्य–गुण–पर्यायनुं स्वरूप विशेषपणे बतावे छे अने
ते जाण्या पछी अंतरंगमां केवा प्रकारनी क्रिया करवाथी मोह क्षय पामे छे–ते कहेवाय छे.]
जे जीव पोताना पुरुषार्थ वडे आत्माने जाणे छे ते जीवनो मोह क्षय पामे ज छे–एम कह्युं छे, परंतु
मोहकर्मनुं जोर ओछुं थाय तो आत्माने जाणवानो पुरुषार्थ प्रगटी शके–एम कह्युं नथी, केमके मोहकर्म कंई
आत्माने पुरुषार्थ करवामां रोकतुं नथी. जीव पोताना ज्ञानमां साचो पुरुषार्थ करे त्यारे मोह क्षय थाय ज छे.
जीवनो पुरुषार्थ स्वतंत्र छे; ‘पहेलांं तुं ज्ञान कर तो मोह क्षय पामे’–आमां उपादानथी कार्य थाय एम सिद्ध कर्युं
छे. परंतु ‘पहेलांं मोह क्षय थाय तो तने आत्मानुं ज्ञान प्रगटे’ एम ऊंधेथी (–निमित्त तरफथी) लीधुं नथी,
केमके निमित्तने लईने जीवमां कांई पण थतुं नथी.
अरिहंत भगवानना स्वरूपमां द्रव्य, गुण, पर्याय कई रीते छे ते कहे छे. “त्यां अन्वय ते द्रव्य छे,
अन्वयनुं विशेषण ते गुण छे, अन्वयना व्यतिरेको (–भेदो) ते पर्यायो छे.” [गाथा ८० टीका, लाईन चोथी]
शरीर ते अरिहंत नथी पण द्रव्य–गुण–पर्यायस्वरूप आत्मा ते अरिहंत छे. अनंत अरिहंत अने अनंत
आत्माओनुं द्रव्य–गुण–पर्यायपणे शुं स्वरूप छे ते आमां बताव्युं छे.
– द्रव्य –
अहीं मुख्यपणे अरिहंत प्रभुना द्रव्य–गुण–पर्यायनी वात छे. अरिहंत प्रभुना स्वरूपमां अन्वय ते द्रव्य
छे. ‘अन्वय ते द्रव्य’ एटले शुं? जे अवस्था पलटे छे ते कंईक कायम रहीने पलटे छे; जेम पाणीमां मोजां ऊठे
छे ते पाणी अने शीतळता कायम रहीने ऊठे छे, पाणी वगर अधरथी मोजां ऊठे नहि, तेम आत्मामां
पर्यायरूपी मोजां (भाव) बदलाय छे; ते बदलाता एकेक भाव जेटलो आत्मा नथी पण बधा भावोमां
सळंगपणे टकी रहेनारो आत्मा छे, त्रिकाळ टकी रहेनार आत्मद्रव्यना आधारे पर्यायो परिणमे छे. पहेलांं अने
पछी बधां परिणामोमां कायम रहे ते द्रव्य छे. परिणामो तो दरेक समये एक पछी एक नवा नवा थाय छे, बधां
परिणामोमां सळंगपणे एक सरखुं रहेनार द्रव्य छे; पहेलांं पण ते ज हतुं अने पछी पण ते ज छे–एम पहेलांं–
पछीनुं एकपणुं ते अन्वय छे, अने अन्वय ते द्रव्य छे.
अरिहंतना संबंधमां; पूर्वे अज्ञानदशा हती, पछी ज्ञानदशा प्रगटी, आ अज्ञान अने ज्ञान बंने दशामां