Atmadharma magazine - Ank 032
(Year 3 - Vir Nirvana Samvat 2472, A.D. 1946)
(Devanagari transliteration).

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: १५२ : आत्मधर्म : जेठ : २४७२ :
अधर्मद्रव्य निमित्तरूप छे– (५). टोपी पहेलांं सीधी हती, अत्यारे वांकी छे अने हवे पछी अमुक वखत ते
रहेशे–आम जाण्युं त्यां ‘काळ’ सिद्ध थई गयो. भूत, वर्तमान, भविष्य अथवा तो जुनुं–नवुं, दिवस, कलाक
वगेरे जे भेदो प्रवर्ते छे ते भेदो कोई एक मूळ वस्तु वगर होई शके नहि, उपर्युक्त बधा भेदो काळ द्रव्यना छे,
जो काळ द्रव्य न होय तो ‘नवुं–जुनुं’ , ‘पहेलांं–पछी’ एवी कोई प्रवृत्ति होई शके नहि, माटे काळद्रव्य सिद्ध
थयुं– (६). आ रीते टोपी उपरथी छ द्रव्यो सिद्ध थया.
आ छ द्रव्योमांथी एक पण द्रव्य न होय तो जगत व्यवहार चाली शके नहि. जो पुद्गल न होय तो
टोपी ज न होय, जो जीव न होय तो टोपीनुं होवापणुं कोण नक्की करे? जो आकाश न होय तो टोपी क्यां छे ते
ओळखावी शकाय नहि, जो धर्मद्रव्य अने अधर्मद्रव्य न होय तो टोपीमां थतो फेरफार (क्षेत्रांतर अने स्थिरता)
ओळखावी शकाय नहि, अने जो काळद्रव्य न होय तो ‘पहेलांं’ जे टोपी सीधी हती ते ज अत्यारे वांकी छे’–एम
पूर्वे टोपीनुं होवापणुं नक्की न थई शके, माटे टोपीने सिद्ध करवा माटे छए द्रव्यनो स्वीकार करवो पडे छे.
जगतनी कोई पण एक वस्तुने कबुलतां व्यक्तपणे के अव्यक्तपणे छ ए द्रव्यनो स्वीकार थई जाय छे.
मनुष्य शरीर उपरथी छ द्रव्योनी सिद्धि
आ शरीर तो नजरे देखाय छे ते पुद्गलनुं बनेलुं छे अने शरीरमां जीव रहेलो छे. जीव अने पुद्गल
एक आकाशनी जग्यामां रह्या होवां छतां बंने जुदा छे, जीवनो स्वभाव जाणवानो छे अने पुद्गलनुं बनेलुं
आ शरीर कांई जाणतुं नथी. शरीरनो कोई भाग कपाई जवा छतां जीवनुं ज्ञान कपाई जतुं नथी, जीव तो
आखो ज रहे छे केमके शरीर अने जीव सदाय जुदा ज छे. बंनेनुं स्वरूप जुदुं छे अने बंनेना काम पण जुदां ज
छे. आ जीव अने पुद्गल तो स्पष्ट छे.–(१–२) जीव अने शरीर क्यां रहेलां छे? अमुक ठेकाणे पांच फूट
जग्यामां, बे फूट जग्यामां वगेरेमां रहेला छे, आ रीते ‘जग्या’ कहेतां आकाशद्रव्य सिद्ध थयुं– (३).
ए ध्यान राखवुं के जीव शरीर आकाशमां रह्यां छे एम कहेवाय छे त्यां खरेखर जीव, शरीर अने
आकाश त्रणे स्वतंत्र जुदा जुदा ज छे, कोई एक बीजाना स्वरूपमां घूसी गया नथी. जीव तो जाणनार स्वरूपे
ज रह्यो छे, रंग, गंध वगेरे शरीरमां ज छे पण आकाश के जीव वगेरे कोईमां ते नथी, आकाशमां रंग, गंध
वगेरे नथी तेमज ज्ञान पण नथी, ते अरूपी–अचेतन छे, जीवमां ज्ञान छे पण रंग, गंध वगेरे नथी एटले ते
अरूपी–चेतन छे, पुद्गलमां रंग, गंध वगेरे छे पण ज्ञान नथी एटले ते रूपी–अचेतन छे, आ रीते त्रणे द्रव्यो
एक बीजाथी जुदा–स्वतंत्र छे. स्वतंत्र वस्तुओने कोई बीजी वस्तु कांई करी शके नहि. जो एक वस्तुमां बीजी
वस्तु कांई करती होय तो वस्तुने स्वतंत्र केम कहेवाय?
जीव, पुदगल अने आकाश नक्की कर्यां. हवे काळ नक्की करीए; “तमारी उमर केटली? ” एम
पूछवामां आवे छे, (त्यां ‘तमारी’ एटले शरीर अने जीव बंनेनी उमरनी वात समजवी.) शरीरनी उमर
४०–५० वर्षो वगेरेनी कहेवाय छे अने जीव अनादि–अनंत होवापणे छे. ‘आ मारा करतां पांच वर्ष नाना,
आ पांच वर्ष मोटा’ एम कहेवाय छे, त्यां शरीरना कदथी नाना–मोटा–पणानी वात नथी पण काळ
अपेक्षाए नाना–मोटापणानी वात छे, जो काळद्रव्यनी अपेक्षा न ल्यो तो ‘आ नानो, आ मोटो, आ बाळक,
आ युवान, आ वृद्ध’ एम कही शकाय नहि. जुनी–नवी दशा बदलाया करे छे ते उपरथी काळद्रव्यनुं
होवापणुं नक्की थाय छे. (४).
क्यारेक जीव अने शरीर स्थिर होय छे अने क्यारेक गमन करतां होय छे. स्थिर होवा वखते तेमज
गमन करती वखते बंने वखते ते आकाशमां ज छे, एटले आकाश उपरथी तेमनुं गमन के स्थिर रहेवापणुं
नक्की थई शकतुं नथी. गमनरूपदशा अने स्थिर रहेवारूप दशा ए बंनेने जुदा जुदा ओळखवा माटे ते बंने
दशामां जुदा जुदा निमित्तरूप एवा बे द्रव्योने ओळखवा पडशे. धर्मद्रव्यना निमित्तवडे जीव–पुद्गलनुं गमन
ओळखी शकाय छे. अने अधर्मद्रव्यना निमित्त वडे जीव पुद्गलनी स्थिरता ओळखी शकाय छे. जो आ धर्म
अने अधर्मद्रव्यो न होय तो गमन अने स्थिरताना भेदने ओळखी शकाय नहीं. (५–६).
जो के धर्म–अधर्म द्रव्यो जीव–पुद्गलने कांई गति के स्थिति करवामां मददरूप नथी, परंतु एक द्रव्यना
भावने अन्यद्रव्यनी अपेक्षा वगर ओळखावी शकातां नथी. जीवना भावने ओळखवा माटे अजीवनी