: १४२ : आत्मधर्म : जेठ : २४७२ :
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[‘भगवानश्री कुंदकुंद–कहान जैनशास्त्रमाळा’नुं आ ११ मुं पुष्प छे, तेना २४१ पानां छे. आ भागमां गाथा
१४ थी २२ तथा ३१ मीनां प्रवचनोनो समावेश थाय छे. आ पुस्तकनी पडतर किंमत लगभग रूा. २–०–० होवा
छतां, वधारे मुमुक्षुओ लाभ लई शके ते हेतुए तेनी किंमत घटाडीने रूा. १–८–० राखवामां आवी छे. आ पुस्तकना
लखाणनी थोडीक प्रसादी अहीं आपवामां आवे छे–]
१. [पानुं–१३] प्रश्न:– अमारुं मानेलुं तो कांई करवानुं कहेता नथी, प्रथम व्यवहार सुधारवानी वात केम
करता नथी?
उत्तर:–आत्मा पोतामां (अंदर ज्ञानमां) बधुं करी शके, परमां कांई करी शके नहि, तेथी बहारनुं करवानुं कांई
कहेता नथी. पोताने यथार्थ जाण्या विना, बहारनी एक पण वात साची समजाशे नहि, माटे दुनियानी दरकार छोडीने,
चोवीस कलाक आत्मानी मांडी छे. ... ... आवुं नहि समजे तो त्रसनी स्थिति पूरी करी, अनंतकाळ माटे अनंता जन्म–
मरण करवा एकेन्द्रिय वनस्पति निगोदमां चाल्यो जशे.
[पानुं–१४] अनंतकाळे महामोंघुं मनुष्यपणुं पाम्यो त्यारे पण सवळो थई, तत्त्वनो आदर करी, भवनी शंका
टाळी, निःसंदेह न थयो तो तेणे कांई कर्युं नथी. तेणे जे मान्युं के कर्युं ते बधुं स्वभावथी विरोधरूपे छे. जेने हजी भवनी
शंका रहे छे, स्वभावनी हा पाडवामां अनंतो सवळो पुरुषार्थ आवे छे ते वात हजी जेने बेसती नथी, ते भगवान (–
के जेने भव नथी ते) नी वाणी समजवानी ताकात क्यांथी लावशे? अंदर स्वभावनुं लक्ष कर्ये अनंतो सवळो पुरुषार्थ
अने भवनो अभाव थाय छे.
तत्त्वनी वात समजवा जेवी छे. जे समजवा मागे तेने समजाय, जेने रुचे ते माने, कोई व्यक्ति माटे सत् नथी.
सत्ने संख्यानी जरुर नथी. सत् सत्थी नभी रह्युं छे. सत्ने कोईनी दरकार नथी.
२. [पानुं–२३] ज्ञानी हरतां फरतां बधाने परमात्मा देखे छे, क्षणिक अवस्थाना विकारने स्वभावनी द्रष्टिमां
मुख्य करतां नथी. हुं प्रभु अने तुं पण प्रभु, बधा आत्मा प्रभु एम रातदिवस चैतन्य भगवाननां ज गाणां गाया करे छे.
[पा. २४]........ दरेक आत्मा पोताना स्वभावे प्रभु छे. प्रथम तारी मान्यतामां बंधन टळी पूर्ण प्रभुपणुं
देखाय तेनी वात कहेवाय छे, ना पाडीश नहि, हा ज लावजे. स्वभावना भानसहित स्वरूपमां आगळ वध, पाछो
पडवानी के अटकवानी वात वच्चे लावीश नहि.
३. ... ...पण आचार्य कहे छे के, ज्यारे अमारे स्वरूपमां समाई जवाना, विकल्प तोडीने स्थिर थवाना अवसर
आव्या अने तुं संसारना भ्रमणथी थाकीने अमारी पासे आव्यो त्यारे बीजुं बधुं भूलीने अमारो अनुभव समजी ले,
प्रथम धडाके एक वात सांभळी ले के तुं ज्ञायकस्वरूप छो, मुक्त ज छो. तारा स्वतंत्र स्वभावनी हा लाव.
कोई कहे: आखी जिंदगी बीजां संसारनां काममां ज रोकाणां, हवे घडीमां समजी शकीशुं? शुं बधा ज आ वात
समजी शकता हशे?
अरे! जे जे समजवा तैयार थया ते बधाने जरूर समजाय छे. स्वरूप न समजाय एवुं त्रणकाळमां नथी,
४. .... .... एकवार जुदा चैतन्यस्वभाव समीप आवीने अंतरद्रष्टिथी जो अने श्रद्धा कर! ते ज सम्यग्दर्शन छे.
मुक्तस्वभावनी हा पाडी, अंदरथी ऊछळीने सत्नो आदर कर्यो ते श्रद्धा ज मोक्षनुं बीज छे. स्वप्नदशामां पण ते ज
विचार, तेनो ज आदर अने तेना ज दर्शन थया करे.
[पानुं–२५] पहेले ज धडाके शुद्ध परमात्मा छो ए द्रष्टिथी ज वात उपाडी छे. पराश्रयरूप भेदने भूली जई
मुक्त–स्वभावनी हा पाड अने ते द्रष्टिनुं जोर लावी तेना ज गाणां गाया कर. अनादिनी भ्रमणा टाळवानो बीजो
उपाय नथी. स्वभाव माटे बहारना कोई साधननी त्रणकाळमां जरूर पडती नथी.
५ [पा–३०].... मृत्यु वखते ज्यारे भींस देखाय त्यारे स्वभावना भान वगर, शरीरने परपणे जाण्या वगर
शांति क्यांथी आवशे? तें तारा जुदा स्वभावने जाण्या वगर बाळ (–अज्ञान) मरण अनंतवार कर्यां छे. एकवार
साचुं भान करे के–परपणे नथी, परनो कर्ता नथी, पण स्वभावपणे छुं एवी श्रद्धा आत्मामां प्रगट करे तो ते ज
अनंतगुण अने अनंत सुख प्रगट करवानुं मूळ छे. साचो संवर अने प्रतिक्रमण पण ते ज छे. शुद्धनयनी द्रष्टिना जोरे
स्वभावनी अस्तिमां ठर्यो तेमां बधो धर्म आवी गयो
[पानुं–३२].... आ बधी वात सारी रीते मनन करी समजवा जेवी छे. कोई मध्यस्थपणे विचार करे तो जाते
नक्की थाय के त्रणेकाळे वस्तुस्वरूप आम ज होई शके. न समजे ते पण पोते स्वतंत्र छे, अने समजे तेना आनंदनी
तो वात ज शी?