प्र.व.च.न.स.र
कारतक वद–३ गाथा ३३–३४
: जेठ : २४७२ : आत्मधर्म : १४३ :
शाश्वत सुखनो मार्ग दर्शावतुं मासिक
: वर्ष त्रीजुं : जेठ :
: अं क ८ : २४७२ :
परम पूज्य सद्गुरुदेव श्री कानजी स्वामीनुं व्याख्यान
श्रुत
अने ज्ञान
आ चालता अधिकारमां समस्त पर पदार्थोने जाणवानी मुख्यताथी भगवानने ‘केवळी’ नथी कह्या,
परंतु एकला शुद्ध केवळज्ञायक आत्माने जाणतां–अनुभवता होवाथी ‘केवळी’ कह्या छे; तेम श्रुतज्ञानी पण
पोताना ज्ञानवडे तेवा ज केवळ ज्ञायक आत्माने अनुभवे छे माटे ते पण ‘केवळी’ छे. अहीं आत्माने
अनुभववानी मुख्यताथी कथन करीने ‘केवळने अनुभवे ते केवळी’ एम कह्युं छे......
आत्मा ‘केवळ’ छे– एटले शुं? शरीरादि तथा कर्म वगेरे तो जड छे–जुदा ज छे, अने रागादि विकार
थाय ते पण खरेखर ज्ञायकभावमय आत्माथी जुदा छे, अने गुण–पर्यायना भेद पडे ते पण खरेखर आत्माना
स्वरूपमां नथी, तेथी आत्मा तो एकलो शुद्ध ‘केवळ’ छे. आवा ‘केवळ’ ना अनुभवनी अपेक्षाए तो भगवान
अने मुनि बंने समान छे, केमके बंनेने ‘केवळ’ नो ज अनुभव छे.
केवळीने अने श्रुतकेवळीने जाणपणामां तफावत छे केवळी भगवान जेमां चैतन्यना बधा विशेषो एक
साथे प्रवर्ते छे एवा केवळज्ञान वडे आत्माने अनुभवे छे अने श्रुतकेवळी जेमां केटलाक चैतन्यना विशेषो क्रमे
प्रवर्ते छे एवा श्रुतज्ञान वडे केवळ–आत्माने अनुभवे छे....केवळी सूर्य समान ज्ञान वडे आत्माने अनुभवे छे,
श्रुतज्ञानी दीवासमान ज्ञानवडे आत्माने अनुभवे छे, बंनेना अनुभवमां आवतो आत्मा एक ज प्रकारनो छे
तेथी ज्ञाननी हीनाधिकताना भेद अहीं गौण छे. स्वरूप स्थिरतानी अपेक्षाए श्रुतकेवळी अने केवळीमां
तरतमतारूप भेद छे ते ज मुख्य छे; तेथी स्वरूपस्थिरतानी मुख्यता अने ज्ञाननी गौणता करी आचार्य
भगवान कहे छे के अमे वधारे जाणवानी ईच्छाना क्षोभने मटाडीने स्वरूप स्थिरतामां ज निश्चल रहीए
छीए.... केवळज्ञानना विकल्पने छोडीने ‘केवळ’ ना अनुभवमां ज लीन थईए छीए, अने ते ज केवळज्ञाननो
उपाय छे....
स्वरूप स्थिरतानी निश्चलता ए ज केवळनो उपाय छे, परंतु ज्ञाननुं वधारे–ओछुं जाणपणुं ते केवळनुं
कारण नथी.... वधारे वधारे जाणतां जाणतां केवळज्ञान थतुं नथी, पण निश्चल स्वरूप अनुभवमां रहेतां ज
केवळज्ञान थाय छे. एकला ज्ञायक आत्मानुं ज्ञान अने श्रद्धान कर्या पछी तेमां निश्चलपणे न ठरी शकाय त्यारे
अशुभभावथी अटकवा माटे शुभभावनुं अवलंबन आवे पण खरेखर ज्ञानी तेने पोतानुं स्वरूप माने नहि;
पण ते रागने तोडीने केवळज्ञानरूपे थवानी ज भावना करे छे. पूर्ण पर्याय स्वरूप केवळज्ञानपणे आत्माज पोते
थाय छे, कोई राग के विकल्प केवळज्ञान पणे थतां नथी; आत्मा पोते ज केवळज्ञानपणे थाय छे अने तेनो
उपाय पण आत्म स्वरूपनी ज स्थिरता छे.... सौथी पहेलांं शुद्ध ज्ञायकने श्रद्धा ज्ञानमां लईने पछी तेना ज
अनुभवमां स्थिरता करवी ते ज केवळज्ञान प्राप्तिनो उपाय छे. ।।
३३।।
[गाथा ३४] तेत्रीसमी गाथामां ज्ञानने “श्रुतज्ञान” कह्युं, हवे आ गाथामां “श्रुत” शब्द दूर करीने
एकला ज्ञानने वर्णवे छे एटले के एकला ज्ञानमां परनी सहाय असर के उपाधि नथी.... ‘श्रुतज्ञान’ कहेतां तेमां
श्रुत [सूत्रो] ते तो निमित्त मात्र छे, हाजरीरूप छे तेथी ज्ञानने ‘श्रुतज्ञान’ कहेवाय छे, खरी रीते “विशेष वडे
सामान्यनो अनुभव छे” तेथी विशेष ते सामान्यमांथी ज प्रगटे छे; कोई श्रुतनी मददथी के परना अवलंबनथी
ज्ञान प्रगटतुं नथी. ‘श्रुतज्ञान’ खरेखर “श्रुतनुं ज्ञान” नथी परंतु आत्मानुं ज ज्ञान छे तेथी खरेखर ते ज्ञान
निरूपाधि ज छे–तेने ‘श्रुत’ तो मात्र उपाधिरूप छे.
जेम भगवान ‘केवळ’ने अनुभवे छे तेथी तेमने केवळी अने मुनिने ‘श्रुतकेवळी’ कह्या–त्यां ‘श्रुत’ शब्द
वधारे आव्यो ते फेरने हवे काढी नाखे छे, एटले श्रुत शब्द दूर करतां एकलुं ‘ज्ञान’ रही जाय छे. एटले
अनुभवना जोरे केवळीनी अने पोतानी समानता ज आचार्य भगवान करी नाखे छे.