[गाथा ३४]
: १४४ : आत्मधर्म : जेठ : २४७२ :
श्रुतज्ञानीने “श्रुतकेवळी” केम कह्या? ‘केवळी’ ज केम न कह्या? शुं श्रुत शब्दथी कोई परनी उपाधि लागे
छे के कांई बीजो फेर छे? श्रुत शब्द केम रह्यो छे?
ज्ञानस्वभावी आत्माने अनुभवतां खरेखर केवळी–श्रुतकेवळी बंनेमां कांई तफावत नथी..... बंने
एकला ज्ञाननी ज ज्ञप्तिवडे आत्माने अनुभवे छे, कांई श्रुतकेवळी “श्रुतनी ज्ञप्तिथी” अनुभवता नथी, केमके
ज्ञप्ति श्रुतनी नथी पण ज्ञाननी ज छे....ते संबंधी गाथा कहे छे:–
सूत्तं जिणोवदिट्ठं पोग्गलदव्वप्पगेहिं वयणेहिं।
तं जाणणा हि णाणं सुत्तस्स य जाणणा भणिया।। ३४।।
पुद्गलस्वरूप वचनोथी जिन–उपदिष्ट जे ते सूत्र छे;
छे ज्ञप्ति तेनी ज्ञान, तेने सूत्रनी ज्ञप्ति कहे.।। ३४।।
अन्वयार्थ:– सूत्र एटले पुद्गलद्रव्यात्मक वचनो वडे जिनभगवंते उपदेशेलुं ते. तेनी ज्ञप्ति ते ज्ञान छे
अने तेने सूत्रनी ज्ञप्ति (श्रुतज्ञान) कही छे.
“श्रुतज्ञान” कहेतां श्रुतनो अर्थ सूत्र थाय छे अने सूत्र ते भगवाननो उपदेश छे.... भगवाने स्वयं जेवुं
ज्ञान कर्युं तेवुं ज उपदेशमां आव्युं–एवो ज्ञान अने वाणीनो संबंध छे...जे भगवाननो उपदेश ते सूत्र छे अने
ते सूत्र ‘स्यात्’ पद्थी चिह्नित छे. “स्यात्” एटले शुं? के जे एक वात करे ते बधी अपेक्षाथी तेम ज न होय,
पण कोई प्रकारे ते कथन होय छे.......... जेमके आत्मा नित्य छे–एम कहे, तो त्यां धु्रवपणानी अपेक्षाए नित्य
छे, परंतु सर्वथा उत्पाद व्ययनी अपेक्षाए पण नित्य नथी...जेवुं वस्तुनुं स्वरूप छे तेवा स्वरूपने लक्षमां लईने
जे कथन करवामां आवे छे–ते चोक्कस ज होय छे–अचोक्कस होतुं नथी.... स्याद्वाद तो वस्तुनां बधां पडखांनो
चोक्कसपणे निर्णय करे छे....गोटा नथी राखतो.... धर्म पोताना अंतर आत्मभावथी थाय, बीजा परभावथी
धर्म न थाय–एम बंने पडखेथी धर्मना स्वरूपने [अस्ति नास्ति द्वारा] बराबर नक्की करे छे....
वस्तुना गुणो तो ते वस्तुमां ज कार्य करे, वस्तुना कोई गुणो परमां कार्य करे ज नहि.... गुणनी एकता
ते स्ववस्तु छे तेनो संबंध पर साथे नथी... “स्यात्” एटले अपेक्षा, तेना अनेक प्रकार छे. जेमके कोई अपेक्षा
मात्र बोलवा पूरती होय, कोई खरेखर जाणवा माटे होय. (१) आत्मा पोतानुं तो खरेखर करे छे, अने
आत्मा परनुं करे एम कहेवुं ते मात्र बोलवानी अपेक्षाए छे. (२) आत्मा नित्य छे अने अनित्य पण छे आ
कांई मात्र बोलवानी अपेक्षाए नथी, परंतु खरेखर द्रव्यपणे वस्तु नित्य छे अने पर्यायपणे अनित्य छे–एम
बंने पडखां वस्तु स्वरूपमां ज छे.
पुण्यथी धर्म नथी छतां “पुण्यथी धर्म छे” एम कहेवुं ते बोलवा मात्र छे, पण ते कया प्रकारे बोलाणुं
छे? के ‘पुण्यथी धर्म नथी’ एम जाण्या पछी पुण्य रहित स्वरूपमां न ठरी शके त्यारे वच्चे पुण्य आवी जाय छे,
पण द्रष्टिमां तेनो नकार होवाथी तेने छोडीने वीतराग थशे–एम ख्यालमां लईने पुण्यथी धर्म थाय एम
कथंचित बोलाय– ते बोलवानी अपेक्षाए कह्युं परंतु पुण्य ते ज खरेखर धर्म छे– एम मानीने ते बोलवापणुं
नथी.... बोलवानी अपेक्षा पण वस्तुना मूळ स्वरूपने जाणीने पछी बोलाय छे.... एमां पुण्यनुं ज्ञान कराव्युं छे;
एटले पुण्यथी धर्म थाय एम बोलतां पुण्यनी हाजरी अने धर्मनुं तेनाथी जुदुं स्वरूप ए बंनेनुं ज्ञान कराव्युं
छे.... तेथी ते कथनने ‘स्यात् कथन’ कहेवाय छे....
ज्ञानमां सूत्रनुं निमित्त छे. ज्यारे ज्ञानमां ज्ञप्ति थाय छे त्यारे श्रुतनी हाजरीनुं निमित्त होय छे तेथी
उपचारथी ज्ञानने–‘श्रुतज्ञान’ कहेवामां आवे छे. आ उपचार कई जातनो छे? कारणमां कार्यनो उपचार नथी,
परंतु कार्य थया पछी तेमां कारणपणानो उपचार कर्यो छे....ज्ञानरूपी कार्य थया पछी ज सूत्रने कारणपणानो
उपचार आपीने एटलेके कार्यमां कारणनो उपचार करीने ‘श्रुत–ज्ञान’ कह्युं छे. खरेखर श्रुत अने ज्ञान जुदां
छे.... (का. वद–४)
ज्ञानमां श्रुतनुं निमित्त हतुं माटे पहेलांं “श्रुतज्ञान” कहीने निमित्तनुं ज्ञान कराव्युं, हवे तो निमित्त
काढीने एकला ज्ञाननुं स्वरूप दर्शावे छे....निमित्तनी उपाधि काढीने ज्ञान एक ज प्रकारनुं छे, तेमां कोई
उपाधिना भेद नथी–एम कहे छे.
सूत्रनुं ज्ञान छे एम कहेवुं ते उपचार छे, उपचार छे ते निमित्तनुं ज्ञान करावे छे, पण ते निमित्तनो
उपचार क्यारे थई शके? अनुपचरित–निरपेक्ष ज्ञान–स्वभाव जुदो छे, कोई सूत्रथी ज्ञान थतुं नथी एम प्रतीत
कर्या पछी ज्ञानमां जे निमित्तो होय तेने जाणीने उपचारथी कहे छे के आ सूत्रनुं ज्ञान छे. बार अंगनुं अने