करवामां आवे छे.
ज्ञानमां आचार्यदेव लई ल्ये छे. सर्वज्ञनुं केवळज्ञान पोतानी पर्यायमां तरवरे छे, आखा केवळज्ञानने प्रतीतमां
लई लीधुं छे. ज्ञानमां अधूराश छे तेथी सूत्रनुं निमित्त आवे छे, परंतु अहीं तो केवळज्ञान तरफना जोरथी
आचार्यदेव कहे छे के अमे तो पूरा केवळज्ञानने ज मानीए छीए, अपूर्णताने अमे प्रतीतमां लेता ज नथी.
अमारो स्वभाव पूरो छे अने स्वभावनी अवस्था पण पूरी ज छे, एम अमे सामान्य–विशेषने अभेदपणे
प्रतीतमां लईए छीए. आचार्य भगवानना अंतरमां पूर्णता तरफनुं घणुं जोर छे.
तेनाथी जुदुं ज छे, ज्ञान ते पौद्गलीक शब्दब्रह्मरूपे नथी, वाणीना शब्दो अने आत्मानुं ज्ञान ए बंने जुदां छे.
शब्दथी अने शब्द तरफना वलणथी ज्ञान नथी थतुं, अने खरेखर तो ते परने जाणतुं पण नथी. निश्चयथी ज्ञान
पोतानी वर्तमान ताकातने ज स्वयं जाणे छे अने ते पोते एकलुं संग–विकाररहित छे अने ज्यारे ज्ञान
पराश्रयरहित स्वसन्मुख थयुं त्यारे ज सूत्रने निमित्त कहेवाणां अने ते ज्ञानने ‘श्रुतज्ञान’कहेवाणुं.... परंतु जो
ज्ञान निमित्तनुं लक्ष छोडीने स्वसन्मुख न थाय तो तेने श्रुतनुं निमित्तपणुं पण न लागे....ज्ञान होय तो श्रुतने
निमित्त कहेवायने! पण ज्यां ज्ञान ज नथी त्यां श्रुतनो उपचार कोने लगाडवो? जो उपादान स्वयं होय तो
बीजाने निमित्त कहेवाय, पण ज्यां उपादान ज स्वयं नथी त्यां पछी बीजी चीजने निमित्त कोनुं कहेवुं?
‘निमित्त’ एवुं नाम तो उपादाननी अपेक्षा राखीने छे.... ज्यारे ज्ञानमां स्वसन्मुख दशा थई त्यारे तेने श्रुतनुं
निमित्त लागु पड्युं अने तेथी श्रुतज्ञान कहेवाणुं....परंतु श्रुतना कारणे ज्ञान थतुं ज नथी. श्रुत अने भगवाननी
साक्षात् वाणी एककोर रही जाय अने तेनुं लक्ष छूटीने आत्मामां एकाग्रताथी ज्ञानमां केवळज्ञानदशा
थाय....आमां निमित्त शुं करे? जे एकला सूत्रना ज लक्षमां रोकाणो छे तेने तो सूत्र ज्ञाननुं निमित्तरूप पण
नथी परंतु ज्यारे सूत्रनुं लक्ष छोडी दईने ज्ञानमां एकाग्र रही गयो त्यारे तेने ज्ञाननुं निमित्त कहेवायुं....जुओ
तो खरा, उपादान–निमित्तनी स्थिति! शास्त्रमां घणे ठेकाणे व्यवहार रत्नत्रयने निश्चयरत्नत्रयीनुं कारण
कहेवाय छे–परंतु क्यारे? उपरनी जेम समजवुं के ज्यांसुधी व्यवहाररत्नत्रयमां अटक्यो छे त्यांसुधी तो ते
व्यवहारने निश्चयरत्नत्रयना निमित्त तरीके पण कहेवातो नथी, परंतु ज्यारे पोते व्यवहारनुं लक्ष छोडीने
निश्चयरत्नत्रय प्रगटावे त्यारे ते व्यवहाररत्नत्रयने निमित्तरूप कहेवाय छे. व्यवहारनुं लक्ष छोडया पछी
व्यवहारने निमित्तरूप कहेवाय छे.
केवळज्ञान प्रगट करुं के जे केवळज्ञान निमित्त वगरनुं छे आम आचार्यदेवनी भावना छे....अत्यारे निमित्तनो
नकार करीने तेनुं लक्ष छोडी दऊं छुं एकला स्वभावना लक्षे केवळज्ञान थशे त्यारे ते केवळज्ञानमां बधुं जणाशे के
“पूर्वे आ निमित्त हतुं.”
माटे ज्ञानना भेदने गौण करीने अनुभवपणे बंने सरखां ज छीए–एम कहीए छीए. अहा, आवो ज
आत्मस्वभाव छे, तेनी प्रतीतमां केवळज्ञाननी शंकानुं स्थान छे ज क्यां? भवनुं स्थान क्यां छे? स्वभावमां
शंका नथी तेम भव पण नथी. अहीं स्वभावद्रष्टिनी निःशंकतानुं जोर छे, जेने अवस्थाना भेद उपर वजन छे
तेने निमित्त उपर द्रष्टि छे. अहीं तो स्वभाव पूरो ज छे तेनी पूर्णतानी अस्ति कबुलीने अपूर्णतानी नास्ति
कबुले छे. पूर्ण स्वरूपनी अखंड प्रतीत अने अनुभवना पुरुषार्थना जोरमां, पर्यायमां अपूर्णता छे तेनी नास्ति
कबूले छे अने पूर्णता नथी तेनी अस्ति