Atmadharma magazine - Ank 032
(Year 3 - Vir Nirvana Samvat 2472, A.D. 1946)
(Devanagari transliteration).

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: १४६ : आत्मधर्म : जेठ : २४७२ :
कबूले छे के हुं पूर्ण ज छुं, निमित्तनी उपाधि मने नथी. प्रतीतमां केवळज्ञान ज छे, अधूरुं छे ज नहि;
केवळज्ञानीना अने अमारा अनुभवमां आंतरो नथी–आ भावमां “मने केवळ नथी अने केवळज्ञान प्रगट करूं”
एवा विकल्पने तोडी नाख्यो छे.
कोईने एम लागे के आ तो मोटी केवळज्ञाननी वात छे, तो खरेखर आ पोताना स्वभावनी ज वात छे.
जे पोतानी ज वात छे ते मोटी केम कहेवाय? पोताना स्वभावनी समजण तो सहज छे पण परिचय नथी तेथी
मोटी वात लागे छे. हा, एटलुं कही शकाय के पंचमकाळना छद्मस्थ मुनि आटलुं वीर्य स्फोरवी शके छे–ए हिसाबे
मोटुं छे.... मोटुं छे माटे पोते समजवानो उत्साह वधारवो. पंचमकाळमां केवळज्ञान नथी ए वात ज अत्यारे
लीधी नथी, अमे साधक संत मुनिओ केवळज्ञाननो पुरुषार्थ करीए छीए, तो जे छे तेनो पुरुषार्थ होय के जे
नथी तेनो होय? जे छे तेनो ज पुरुषार्थ करीए छीए; स्वभावमां शुं नथी? बधुं ज छे; ‘स्वभावमां छे’ तेनी
प्रतीतमां ‘छे–छे’ एम आवे के ‘नथी–नथी’ एम आवे? ‘छे’ नी प्रतीतमांथी तो ‘छे–छे’ एम ज आवे. बस!
जे छे तेनी तने प्रतीत होय तो ‘जे नथी’ ते संबंधीनो विकल्प काढी नाख! सम्यग्दर्शननी कळा वगर दर्शन–
ज्ञान–चारित्रनी एकता नहि थाय अने ते एकता वगर केवळज्ञान नहि प्रगटे.... नथी तेनी वात शुं? ‘छे’ तेनी
प्रतीतमांथी ज केवळज्ञान थवानुं छे. भाई रे! तने जो तारी पूरी हैयातिनी प्रतीत न मळे तो तुं कोनी पासे
पूर्णता मागीश? अनादिनिधन शुद्ध आत्मा के जे ‘केवळ’ छे तेना अनुभवथी ज ‘केवळीपणुं’ छे, ‘बधुं जाणे छे
माटे केवळी’ एवो निमित्तनो ध्वनि अमे काढी नाखीए छीए. अहा, जुओ आचार्यदेवनी केवळज्ञान दशानी
झंखना! एकेक शब्दमां केवळज्ञान ज रेडी दीए छे....पहेलांं आवी प्रतीत तो करो, प्रतीतनी जे घोलनदशा ते ज
चारित्र छे.
प्रश्नकार:– आ तो बहु महेनत पडे तेवुं आकरुं छे!
उत्तर:– अरे भाई! महेनत अने कंटाळो लागे ते तो दुःख छे, अने आ तो सुखना उपायनी वात चाले
छे. आ तो पोतानुं ज स्वरूप छे तेमां महेनत (–दुःख, कंटाळो) नथी, जेमां महेनत पडे ते स्वरूप नथी अने जे
स्वरूप छे तेमां महेनत नथी. सुख स्वरूपनो उपाय पण सुखरूप ज छे, धर्म करे अने जो ते धर्म करवामां दुःख
होय तो पछी जीवो धर्म करे ज शा माटे? धर्ममां दुःख होय शके नहि. दुःख ते आत्मानुं स्वरूप ज नथी. जेमां
दुःख छे ते सुखनो मार्ग नथी. जेने धर्मनी समजणनो मार्ग महेनतवाळो लाग्यो तेने विकार सहेलो लाग्यो
एटले तेने धर्मनी रुचि नथी पण विकारनी ज रुचि छे. “अहो, आत्मस्वरूपनी साची समजण अनंत काळे पण
बहु मोंघी छे” एम कहे छे त्यां तो समजणनो महिमा करीने पोतानी रुचि वधारवा माटे कहे छे, पण ‘मोंघुं छे’
एम कहीने छोडी देवा माटे नथी. जेने स्वरूप समजवानी रुचि जागृत थई छे तेने स्वभावनी मोंघप लागे ज
नहि पण स्वभावनो महिमा अने उल्लास आवे.
आचार्य भगवान आत्मस्वभावने घणी सहेली रीते समजावे छे. अहीं आचार्यदेव कहे छे के–ज्ञानने
शब्दनी उपाधि नथी, एकलुं ज्ञान अंतरमां ढळनारुं छे तेमां कोई निमित्तनुं लक्ष नथी. अमे एकला आत्माने
अनुभवीए छीए, अनुभववामां वच्चे न अनुभववापणुं आवे नहि–अनुभवमां वच्चे भंग पडे नहि एटले
अमे पण केवळज्ञानी भगवाननी जेम निरंतर आत्माने अनुभवीए छीए माटे अमे पण ‘केवळी’ जेवा ज
छीए. अधूरा–पूरा ज्ञानना भेदने अहीं गौण करी दीधा छे. अने अधूरी स्थिरता के पूरी स्थिरता एवा
आंतराने पण काढी नाख्यो छे.
ज्ञान उपाधि वगरनुं छे, ते कोई शब्द वगेरे परने अवलंबनारुं नथी पण केवळ आत्मामां ढळनारुं छे,
सूत्रने ज्ञाननुं कारण कहेवुं ते तो उपचारथी ज छे. “उपचारथी ज” एम कहीने उपचाररहित स्वभावनुं जोर
दीधुं छे. जेम अन्नने जीवननुं कारण कहेवाय छे ते मात्र उपचार छे, एटलेके जो माणस जीवतो होय तो अन्नने
कारणपणानो उपचार लागे, परंतु माणस जो जीवे नहि तो अन्नने निमित्त कहेवाय नहि. तेम जो जीव पोते
समजीने पोताना ज्ञानभावने जीवंत राखे तो उपचारथी श्रुतनुं कारण कहेवाय, पण जो जीव पोते समजे नहि
अने ज्ञानभाव करे नहि तो श्रुतने ज्ञाननुं कारण उपचारथी पण कही शकाय नहि; अहीं आचार्यभगवान तो
कहे छे के ज्ञानमां श्रुतनी उपाधि खरेखर छे ज नहि. जो श्रुतथी [शब्दोथी] ज्ञान होय तो ज्यां ज्यां वाणी होय
त्यां त्यां बधे श्रुतज्ञान होवुं ज जोईए, अने ज्यां वाणी न होय त्यां श्रुतज्ञान पण न ज होवुं जोईए–परंतु
श्रुतनी उपाधि