केवळज्ञानीना अने अमारा अनुभवमां आंतरो नथी–आ भावमां “मने केवळ नथी अने केवळज्ञान प्रगट करूं”
एवा विकल्पने तोडी नाख्यो छे.
मोटी वात लागे छे. हा, एटलुं कही शकाय के पंचमकाळना छद्मस्थ मुनि आटलुं वीर्य स्फोरवी शके छे–ए हिसाबे
मोटुं छे.... मोटुं छे माटे पोते समजवानो उत्साह वधारवो. पंचमकाळमां केवळज्ञान नथी ए वात ज अत्यारे
लीधी नथी, अमे साधक संत मुनिओ केवळज्ञाननो पुरुषार्थ करीए छीए, तो जे छे तेनो पुरुषार्थ होय के जे
नथी तेनो होय? जे छे तेनो ज पुरुषार्थ करीए छीए; स्वभावमां शुं नथी? बधुं ज छे; ‘स्वभावमां छे’ तेनी
प्रतीतमां ‘छे–छे’ एम आवे के ‘नथी–नथी’ एम आवे? ‘छे’ नी प्रतीतमांथी तो ‘छे–छे’ एम ज आवे. बस!
जे छे तेनी तने प्रतीत होय तो ‘जे नथी’ ते संबंधीनो विकल्प काढी नाख! सम्यग्दर्शननी कळा वगर दर्शन–
ज्ञान–चारित्रनी एकता नहि थाय अने ते एकता वगर केवळज्ञान नहि प्रगटे.... नथी तेनी वात शुं? ‘छे’ तेनी
प्रतीतमांथी ज केवळज्ञान थवानुं छे. भाई रे! तने जो तारी पूरी हैयातिनी प्रतीत न मळे तो तुं कोनी पासे
माटे केवळी’ एवो निमित्तनो ध्वनि अमे काढी नाखीए छीए. अहा, जुओ आचार्यदेवनी केवळज्ञान दशानी
झंखना! एकेक शब्दमां केवळज्ञान ज रेडी दीए छे....पहेलांं आवी प्रतीत तो करो, प्रतीतनी जे घोलनदशा ते ज
चारित्र छे.
उत्तर:– अरे भाई! महेनत अने कंटाळो लागे ते तो दुःख छे, अने आ तो सुखना उपायनी वात चाले
स्वरूप छे तेमां महेनत नथी. सुख स्वरूपनो उपाय पण सुखरूप ज छे, धर्म करे अने जो ते धर्म करवामां दुःख
होय तो पछी जीवो धर्म करे ज शा माटे? धर्ममां दुःख होय शके नहि. दुःख ते आत्मानुं स्वरूप ज नथी. जेमां
एटले तेने धर्मनी रुचि नथी पण विकारनी ज रुचि छे. “अहो, आत्मस्वरूपनी साची समजण अनंत काळे पण
बहु मोंघी छे” एम कहे छे त्यां तो समजणनो महिमा करीने पोतानी रुचि वधारवा माटे कहे छे, पण ‘मोंघुं छे’
एम कहीने छोडी देवा माटे नथी. जेने स्वरूप समजवानी रुचि जागृत थई छे तेने स्वभावनी मोंघप लागे ज
नहि पण स्वभावनो महिमा अने उल्लास आवे.
अनुभवीए छीए, अनुभववामां वच्चे न अनुभववापणुं आवे नहि–अनुभवमां वच्चे भंग पडे नहि एटले
छीए. अधूरा–पूरा ज्ञानना भेदने अहीं गौण करी दीधा छे. अने अधूरी स्थिरता के पूरी स्थिरता एवा
आंतराने पण काढी नाख्यो छे.
दीधुं छे. जेम अन्नने जीवननुं कारण कहेवाय छे ते मात्र उपचार छे, एटलेके जो माणस जीवतो होय तो अन्नने
कारणपणानो उपचार लागे, परंतु माणस जो जीवे नहि तो अन्नने निमित्त कहेवाय नहि. तेम जो जीव पोते
समजीने पोताना ज्ञानभावने जीवंत राखे तो उपचारथी श्रुतनुं कारण कहेवाय, पण जो जीव पोते समजे नहि
अने ज्ञानभाव करे नहि तो श्रुतने ज्ञाननुं कारण उपचारथी पण कही शकाय नहि; अहीं आचार्यभगवान तो
श्रुतनी उपाधि