पण ज्ञान होय छे; वाणीनुं लक्ष छोडीने एकला स्वभावमां स्थिरता करीने केवळज्ञान थाय छे. जाणवानी
अवस्थारूपे थनार भगवाननी वाणी नथी परंतु ज्ञान पोते जाणवानी अवस्था रूपे थाय छे. पहेलांं श्रुतनुं
निमित्त होय छे परंतु ते निमित्तनुं लक्ष छूटी जतां पण ज्ञान एकलुं निमित्त वगर रही शके छे; तो जे आत्मा
साथे रह्युं ते आत्मानुं के जे छूटी गयुं ते आत्मानुं? ज्ञान एकलुं टकी रहे छे, तेने श्रुतनी उपाधि नथी. शब्दोनी
हाजरी होवा छतां ज्ञान पोते ज्यां वाळे त्यां वळी शके छे; ज्यां ज्ञानने स्वभावमां वाळ्युं त्यां निमित्तोनुं लक्ष
छूटीने ज्ञान एकलुं रही जाय छे; निमित्तो होय तो ज ज्ञान टके–एम नथी. साक्षात् भगवान अने भगवाननी
वाणी तेओ परमां रही गया अने ज्ञान स्वमां रही गयुं.
आचार्यप्रभु खरेखर तो अधूरा ज्ञाननो ज नकार करे छे. अत्यारे अधूरा ज्ञानमां श्रुतनी उपाधि छे निमित्त छे
पण तेनो हुं आ वखते स्वभावना जोरे नकार करुं छुं अने स्वभावना अनुभवनी एकाग्रताथी ज्यारे
केवळज्ञान प्रगटशे त्यारे ते केवळज्ञानमां “पूर्वे छद्मस्थदशामां निमित्त हतुं” एवुं ज्ञान आवी
जशे....आचार्यदेवना हृदयमां घणी गंभीरता अने अंतरनुं घणुं जोर छे. अधूरानी वात ज नहि, बधेथी उपाडीने
एक केवळमां ज लावी मूके छे.
वस्तु–स्वभावनुं सामर्थ्य प्रगट करीए छीए. तुं कोने सांभळवा बेठो छो? स्वभावनी वात सांभळवा बेठो छो
के काळनी? क्षेत्र अने काळनी वात अमारी पासे नथी, अमे तो आत्मस्वभावने जेम छे तेम बतावीए छीए.
जेनुं लक्ष काळ उपर जाय छे अने काळ उपर ज द्रष्टिनुं जेने वजन छे तेणे आ स्वभावनी वात ज सांभळी
नथी. जो स्वभावनी वात सांभळे तो तेने भवनी शंका रहे नहि अने जो भवनी शंका रहे तो तेणे स्वभावनी
स्वभावनी वात मानी छे तेने भवनी शंका होती नथी.
प्रगटे; एटले तेने केवळज्ञान थवाना कोलकरार पोताना स्वभावनी निःशंकताथी वर्तमानमां आवी शके छे.
स्वरूपनी जेने खबर न होय ते तेमांथी शुं काढे? खबर वगर मूंझवण थया वगर रहे ज नहि, अने खबर थतां
मूंझवण न ज रहे....माटे पहेलांं जेम स्वभाव छे तेम ज्ञान करवुं जोईए.
वात बेसी नथी; मात्र कल्पनाथी मान्युं छे.
पण अस्ति ते सूचवे ए ज खरो निर्धार....
पोतानी सत्तामां थई छे ने!
ठर. अहीं निमित्तने दूर करीने स्वभावना जोरथी आचार्यदेव कहे छे के–अरे, केवळीमां अने अमारामां