Atmadharma magazine - Ank 032
(Year 3 - Vir Nirvana Samvat 2472, A.D. 1946)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 8 of 17

background image
: जेठ : २४७२ : आत्मधर्म : १४७ :
ज्ञानने नथी तेथी भगवाननी वाणी सांभळवा छतां कोई जीवने श्रुतज्ञान नथी पण थतुं, अने वाणी वगर
पण ज्ञान होय छे; वाणीनुं लक्ष छोडीने एकला स्वभावमां स्थिरता करीने केवळज्ञान थाय छे. जाणवानी
अवस्थारूपे थनार भगवाननी वाणी नथी परंतु ज्ञान पोते जाणवानी अवस्था रूपे थाय छे. पहेलांं श्रुतनुं
निमित्त होय छे परंतु ते निमित्तनुं लक्ष छूटी जतां पण ज्ञान एकलुं निमित्त वगर रही शके छे; तो जे आत्मा
साथे रह्युं ते आत्मानुं के जे छूटी गयुं ते आत्मानुं? ज्ञान एकलुं टकी रहे छे, तेने श्रुतनी उपाधि नथी. शब्दोनी
हाजरी होवा छतां ज्ञान पोते ज्यां वाळे त्यां वळी शके छे; ज्यां ज्ञानने स्वभावमां वाळ्‌युं त्यां निमित्तोनुं लक्ष
छूटीने ज्ञान एकलुं रही जाय छे; निमित्तो होय तो ज ज्ञान टके–एम नथी. साक्षात् भगवान अने भगवाननी
वाणी तेओ परमां रही गया अने ज्ञान स्वमां रही गयुं.
अहा! आचार्यदेवे केटलुं रहस्य मूकयुं छे! भले, अधूरा ज्ञानमां निमित्त होय छे परंतु केवळ
ज्ञायकस्वभावना जोरे ते निमित्तनुं लक्ष छोड्युं त्यां हुं तो ए ज रह्यो पण निमित्तनुं लक्ष छोड्युं एटले
केवळज्ञान लई लईश.... एटले केवळज्ञान एकला स्वभावमांथी ज प्रगटे छे....श्रुतनी उपाधिने दूर करवामां
आचार्यप्रभु खरेखर तो अधूरा ज्ञाननो ज नकार करे छे. अत्यारे अधूरा ज्ञानमां श्रुतनी उपाधि छे निमित्त छे
पण तेनो हुं आ वखते स्वभावना जोरे नकार करुं छुं अने स्वभावना अनुभवनी एकाग्रताथी ज्यारे
केवळज्ञान प्रगटशे त्यारे ते केवळज्ञानमां “पूर्वे छद्मस्थदशामां निमित्त हतुं” एवुं ज्ञान आवी
जशे....आचार्यदेवना हृदयमां घणी गंभीरता अने अंतरनुं घणुं जोर छे. अधूरानी वात ज नहि, बधेथी उपाडीने
एक केवळमां ज लावी मूके छे.
कोई एम कहे के आ काळे तो केवळज्ञान थतुं नथी तो पछी केवळज्ञाननी वात केम करो छो? आचार्य
भगवान तेने कहे छे के–अरे भाई! कोण कहे छे के आ काळे वस्तुस्वभावमां केवळज्ञान नथी? अमे अहीं
वस्तु–स्वभावनुं सामर्थ्य प्रगट करीए छीए. तुं कोने सांभळवा बेठो छो? स्वभावनी वात सांभळवा बेठो छो
के काळनी? क्षेत्र अने काळनी वात अमारी पासे नथी, अमे तो आत्मस्वभावने जेम छे तेम बतावीए छीए.
जेनुं लक्ष काळ उपर जाय छे अने काळ उपर ज द्रष्टिनुं जेने वजन छे तेणे आ स्वभावनी वात ज सांभळी
नथी. जो स्वभावनी वात सांभळे तो तेने भवनी शंका रहे नहि अने जो भवनी शंका रहे तो तेणे स्वभावनी
वात नथी सांभळी पण ते विकारना ज लक्षमां अटकी गयो छे. स्वभावमां भव छे ज नहि, तेथी जेणे
स्वभावनी वात मानी छे तेने भवनी शंका होती नथी.
मोक्ष अने केवळज्ञान तो आत्माना स्वभावमांथी आवे छे के काळमांथी आवे छे? आत्मा छे त्यां तेनी
अवस्था रहे छे, कोई निमित्तमां रहेती नथी; माटे स्वभावमां एकाग्रता करी निमित्तनुं लक्ष छोड तो निर्मळ दशा
प्रगटे; एटले तेने केवळज्ञान थवाना कोलकरार पोताना स्वभावनी निःशंकताथी वर्तमानमां आवी शके छे.
आत्माना स्वभावने जेणे जाण्यो नथी अने स्वभाव घरमां शुं शुं सामर्थ्य छे तेनी जेने खबर नथी ते
केवळज्ञाननी पर्याय लावशे क्यांथी? ज्यांथी केवळज्ञान आवे छे ते स्वभावने तो तेणे जाण्यो नथी. जेना
स्वरूपनी जेने खबर न होय ते तेमांथी शुं काढे? खबर वगर मूंझवण थया वगर रहे ज नहि, अने खबर थतां
मूंझवण न ज रहे....माटे पहेलांं जेम स्वभाव छे तेम ज्ञान करवुं जोईए.
अहा! वस्तुस्वभावनी एकेक वातने कबूलतां आत्मानुं केवळज्ञान ज तरवरी जाय छे. कोई पण एक
वात स्वीकारे तो केवळज्ञाननो स्वीकार थई ज जाय छे. जो प्रतीतमां केवळज्ञान न तरवरे तो यथार्थपणे एके
वात बेसी नथी; मात्र कल्पनाथी मान्युं छे.
करी कल्पना द्रढ करे नाना नास्ति विचार
पण अस्ति ते सूचवे ए ज खरो निर्धार....
जुओ! जीवो नास्तिकपणानी मान्यता अनेक प्रकारे द्रढ करे छे परंतु नास्तिपणानी मान्यता छे ते ज
पोतानी अस्तिता सूचवे छे; ‘नास्ति’मांथी ज ‘अस्ति’नी सिद्धि थई जाय छे. नास्तिपणानी मान्यता पण
पोतानी सत्तामां थई छे ने!
अहीं तो आचार्यभगवान निमित्तनुं लक्ष छोडावीने स्वभावनुं लक्ष करावतां, ज्ञानमांथी श्रुतनी
उपाधिने दूर करे छे. ज्ञानना निमित्तो तरफ न जोतां ज्ञाननी अवस्था जेना आधारे थई ते तरफ जो अने तेमां
ठर. अहीं निमित्तने दूर करीने स्वभावना जोरथी आचार्यदेव कहे छे के–अरे, केवळीमां अने अमारामां
[श्रुतकेवळीमां]