Atmadharma magazine - Ank 033
(Year 3 - Vir Nirvana Samvat 2472, A.D. 1946)
(Devanagari transliteration).

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: १६८ : आत्मधर्म : अषाढ : २४७२ :
। ङ्क।
श्री सनातन जैन शिक्षण वर्ग – सोनगढ
– शुक्रवार – निबंध – ता. ३१ – ५ – ४६ –
“सम्यग्द्रष्टि जीव नरकमां पण सुखी छे अने मिथ्याद्रष्टि जीव स्वर्गमां पण
दुःखी छे” आ विषय उपर निबंध लखवा माटे वढवाणना भाईश्री मगनलाल
तलकशी तरफथी सूचन आवेल अने श्रेष्ठ निबंध लखनार विद्यार्थीने रूा. १० नां
पुस्तको ईनाम आपवानुं ठरावेल हतुं. ते सुचनानुसार २९ विद्यार्थीओए निबंध
लखेल हतो; तेमां राजकोटना भाई बिपिनचंद्र लाभशंकर महेताने श्रेष्ठ निबंधनुं
ईनाम मळ्‌युं हतुं. मळेला निबंधोमांथी बे निबंध अहीं आपवामां आवे छे.
[१]
विषय:– समकिति नरकमां होवा छतां सुखी छे अने मिथ्याद्रष्टि देवलोकमां होवा छतां दुःखी छे.
दुःख एटले शुं? दुःख एटले ममता. दुःख क्षेत्रमां नथी परंतु आत्मस्वभावने भूलीने परमां रुचि अने
ममता करवी ते छे. नवमी ग्रैवेयकनो देव होय परंतु ते समकिति नथी तेथी तेने दुःख छे तेने पर उपर रुचि
अने ममता छे. ज्यारे नरकना समकितिने पर उपरथी रुचि छूटी गई छे. तेने खात्री छे के ते बे त्रण भव पछी
अलौकिक अने अपूर्व अने आनंद स्वरूप केवळज्ञान पामीने मोक्ष जशे. दाखला तरीके एक केदी अने एक राजा
होय अने जो केदीने एम कहेवामां आवे के तने एक वर्ष पछी राजा बनावशुं अने राजाने केदी; तो केदीने सुख
छे कारणके तेने खबर छे के एक वर्ष पछी तो सुख छे अने तेथी तेनुं एक वर्ष क्यां पसार थई जाय छे तेनी
तेने खबर पडती नथी अने राजा ते वर्ष दुःखमां ज काढे छे कारणके तेने ए ज विचार आवे छे के एक वर्ष पछी
तो हुं केदी बनीश. तेवी ज रीते केदीने नरकनो समकिति लेखो अने राजाने मिथ्याद्रष्टि देव.
नारक समकितिने अनंतानुबंधी कषाय अने मिथ्यात्वनो क्षय, क्षयोपशम अने उपशम वर्ते छे. बहारनो
अनंतो प्रतिकूळ संयोग होवा छतां अंतरमां कषायनो अभाव वर्ते छे. तेना अंतरमां समाधि वर्ते छे. सुख अने
दुःख ते अंतरंग कषायने आधीन छे, नहि के अनुकूळ के प्रतिकूळ संयोगोने आधीन. नवमी ग्रैवेयकना देवने
घणा अनुकूळ संयोगो होय छे तो पण ते अनंतानुबंधी कषाय अने मिथ्यात्वनी आकुळताथी बळीझळीने दुःखी
थाय छे. बहारथी ते सुखी देखाय छे परंतु ते खरेखर तो दुःखी ज छे कारणके तेने मिथ्यात्व वर्ते छे. बाह्य सुख
अने दुःख ते तो कल्पना ज छे. ते खरूं सुखदुःख नथी. सुख अने दुःख ते तो अंतरनी आकुळता के निराकुळताने
आधीन छे. तेथी मिथ्याद्रष्टि देव एकांते दुःखी छे.
समकिति धर्मात्माने पोते चिदानंद आनंदकंद; वीतराग आनंद, अनेक गुणोना आनंद सहित, रसपिंड,
निर्मळानंद अभेद, अखंड अने छुटो गोळो अनंत परथी भिन्न एवी द्रढ प्रतीति निरंतर होय छे. सम्यक्ज्ञान
रूपी धारा निरंतर वह्या ज करे छे. तेणे जगतना बीजा पदार्थोना स्वाद करतां जुदो, अनंतो उपमारहित,
आत्माना सुख गुण अने आनंद गुणनो, अंशे सिद्ध परमात्मा जेवो स्वाद लीधो छे. तेथी ज ते सुखी छे.
देव ते समकिति न होवाथी दुःखी छे ज व्यवहारे कारणके ते बीजा देवोना वैभव जोईने अंतरथी बळी
ऊठे छे. तथा मंदारमाळाना करमाई जवाथी आभूषणो वगेरे झांखां देखावाथी तेने खबर पडी जाय छे के तेनुं
मरण थोडा वखतमां थवानुं छे; तेथी ते घणी हायवोय करे छे अने घणो ज दुःखी थाय छे ते उपरांत
अवधीज्ञानथी जोवाथी पोते हलकी कोटिमां जन्म लेवानो छे ते खबर पडतां पण घणो दुःखी थाय छे.
(नोंध:– आ निबंध राजकोटना विद्यार्थी बिपिनचंद्र लाभशंकर महेतानो लखेल छे.)
[२]
सम्यग्द्रष्टि नरकमां होवा छतां ते सुखी छे कारणके सुख दुःखनो आधार स्थानपर होतो नथी परंतु
भान (समजण) पर होय छे. मिथ्याद्रष्टि स्वर्गनो देव होवा छतां ते दुःखी छे. सुख दुःख जो