Atmadharma magazine - Ank 033
(Year 3 - Vir Nirvana Samvat 2472, A.D. 1946)
(Devanagari transliteration).

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: अषाढ : २४७२ : आत्मधर्म : १६९ :
स्थानमां होत एटले के नरकमां जो दुःख ज होत तो ज्यारे जीव केवळी समुद्घात करे छे त्यारे ते केवळी
भगवानना आत्मप्रदेशो समस्त (बधा) लोकमां फेलाय जाय छे. एटले के नरकमां पण फेलाय जाय छे. केवळी–
समुद्घात वखते भगवान अरिहंत महान सुखनो भोगवटो नरकक्षेत्रमां पण करी रह्या छे त्यारे अज्ञानी
नारकी जीवो देह अने आत्मानुं भेद विज्ञान नहि होवाथी महान दुःखनो भोगवटो करी रह्यां छे. जुओ! स्थान
तो बन्नेने एक ज छे परंतु भानमां फेर छे. वळी
मोक्षमां सिद्ध शिलाना स्थानमां सुख छे–एम नथी. कारणके ते सिद्ध शिलानुं स्थान सुख देनारुं होत तो
ते सिद्ध शिलामां एकेन्द्रिय जीवो (पृथ्वीकायिक) छे, तो ते एकेन्द्रियने पण महान सुख होत, परंतु एम नथी.
माटे सुख कंई स्वर्गोमां छे एवुं नथी. मिथ्याद्रष्टि स्वर्गोमां छे त्यां ते देह अने आत्माने एक माने छे एटले के
देहने पोतानो माने छे एटले देहने सगवडता आपवा वाळी सामग्री उपर तेने राग भाव छे अने प्रतिकूल
सामग्री उपर द्वेष करे छे एटले ते रागी द्वेषी छे. वळी ते मिथ्यात्वने सेवे छे अने मिथ्यात्व ज अनंत संसारनुं
मूळ छे अने अनंत दुःखनुं कारण छे कारणके मिथ्यात्वनुं फळ निगोद छे; जेना फळमां दुःख छे तेना कारणमां
पण दुःख होय छे माटे मिथ्यात्वमां अनंतु दुःख होवाथी पर वस्तुथी लाभ माननारो अने आकूळता सहीत
मिथ्याद्रष्टि जीव मिथ्यात्वना सेवनथी अनंतु दुःख तेज क्षणे भोगवी रह्यो छे त्यारे सम्यग्द्रष्टि नरकमां छे छतां
ते महान सुखनो स्वाद लई रह्यो छे. ते जाणे छे के सामग्रीमां सुख दुःख छे ज नहि. आत्म स्वभावमां सुख छे
माटे ते आकूळता टाळी स्वभाव दर्शन करी रह्यो छे. वळी ते जाणे छे के आत्माना भाने भवनो अभाव अने
अभाने भवनी वृद्धि छे, माटे तेने अनंता भवरूप दुःख तो टळी गयुं छे अने सम्यग्दर्शन प्रगटाव्युं होवाथी
अनंतानुबंधी कषायनो अभाव थयो छे. ते स्वभवमांथी सुख लेवा प्रयत्न करे छे माटे तेनी विपरीतता पण
टळी गई छे अने ते पर संयोगो (नरक वगेरे) नुं लक्ष छोडी स्वभावमां ठरी अनंत सुखनो भोगवटो करे छे.
अहा!
धन्य छे एवा जीवोने के जेणे गमे तेवा तुच्छ विषयोमां प्रवेश्या छतां आत्मानो वेग स्व तरफ ज वाळ्‌यो छे.
नोंध:– आ निबंध लाठीना विद्यार्थी प्रवीणचंद्र शामजी पारेखनो लखेल छे.
परीक्षा
समय: सवारना ९ – ३०थी १ ता. ३१ – ५ – ४६ शुक्रवार
प्रश्न – १
(क) अर्थपर्याय अने व्यंजनपर्यायनी व्याख्या लखो.
(ख) त्रिकाळ स्वभावव्यंजनपर्याय कया द्रव्योने होय?
(ग) प्रदेशोनी संख्यानी अपेक्षाए कया कया द्रव्यो सरखां छे?
(घ) अरूपी द्रव्यो कया कया ने तेमां जड, चेतन कया कया?
(ड) सादि अनंत स्वभावअर्थपर्याय कोने होय?
उत्तर – १
(क) अर्थपर्याय=प्रदेशत्व गुण सिवायना अन्य समस्त गुणोना फेरफारने (–परिणमनने) अर्थपर्याय कहेवाय छे.
व्यंजनपर्याय=प्रदेशत्व गुणना फेरफारने व्यंजनपर्याय कहेवाय छे.
(ख) धर्म, अधर्म, आकाश अने काळ ए चार द्रव्योने त्रिकाळ स्वभावव्यंजनपर्याय होय छे.
(ग) जीव, धर्म अने अधर्म ए त्रण द्रव्योने असंख्य प्रदेशो समान छे; काळ अने पुद्गल ए बंने द्रव्यो एक प्रदेशी छे.
(घ) जीव, धर्म, अधर्म, आकाश अने काळ ए पांच द्रव्यो अरूपी छे, तेमां जीव चेतन छे अने बाकीना बधा जड छे.
(ड) सिद्धोने सादि–अनंत स्वभावअर्थपर्याय होय छे.
प्रश्न – २
(क) अंतरात्मा, निकल परमात्मा अने सकल परमात्माने द्रव्यकर्म, भावकर्म अने नोकर्ममांथी शुं शुं होय?
(ख) बहिरात्मा तथा अंतरात्मानुं स्वरूप लखो; तेमां कोईना भेद होय तो ते पण लखो अने तेनुं स्वरूप समजावो.