: १७० : आत्मधर्म : अषाढ : २४७२ :
उत्तर – २
(क) अंतरात्माने द्रव्यकर्म, भावकर्म अने नोकर्म त्रणे होय छे; निकल परमात्माने द्रव्यकर्म भावकर्म के नोकर्म
एके होतां नथी; अने सकल परमात्माने चार अघाति द्रव्यकर्म तथा नोकर्म होय छे, भावकर्म होता नथी.
(ख) बहिरात्मा=बहारथी आत्मानुं माप करनार; जेने भेदविज्ञान नथी अने शरीर तथा आत्माने एक माने
छे, तेने अविवेकी अथवा मिथ्याद्रष्टि कहेवाय छे, ते बहिरात्मा छे. तेना पेटा भेद नथी.
अंतरात्मा=अंतरमां भेदविज्ञानथी शरीर अने आत्माने जुदा जाणे छे एटले के आत्माने परद्रव्योथी जुदो
जाणे छे ते अंतरात्मा छे.
अंतरात्माना त्रण भेद छे–उत्तम, मध्यम अने जधन्य.
उत्तमअंतरात्मा–अंतरंग अने बहिरंग परिग्रह रहित, ७ थी १२ गुणस्थान सुधीमां वर्तता, शुद्धोपयोगी
अध्यात्मयोगी दिगंबर मुनिने उत्तमअंतरात्मा कहेवाय छे.
मध्यअंतरात्मा–गृहादिरहित, छठ्ठा गुणस्थानवर्ती शुभोपयोगी दिगंबर मुनिने तेम ज व्रतधारी पांचमां
गुणस्थानवर्ती श्रावकने मध्यमअंतरात्मा कहेवाय छे.
जघन्यअंतरात्मा–चोथा गुणस्थानवर्ती व्रतरहित सम्यग्द्रष्टि जीवने जघन्य अंतरात्मा कहेवाय छे.
प्रश्न – ३
(क) सात तत्त्वोनां नाम लखी, संवर तथा निर्जरा तत्त्वनी बाबतमां मिथ्याद्रष्टि शी भूल करे छे ते लखो.
(ख) मिथ्यात्व अने रागादि प्रगट दुःख आपनार छे, छतां तेनुं सेवन करवामां कोण सुख माने छे, अने ते
कया तत्त्वनी भूल छे?
(ग) त्रस एटले चाली शके ते अने स्थावर एटले न चाली शके ते, एवी जो व्याख्या करीए तो शो दोष
आवे ते द्रष्टांत आपी समजावो.
उत्तर – ३
(क) जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा अने मोक्ष ए सात तत्त्वो छे. (पुण्य अने पापनो समावेश
आस्रव अने बंधमां थाय छे.)
संवर तत्त्वमां मिथ्याद्रष्टिनी भूल–सम्यग्दर्शन–सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्चारित्र तथा ते पूर्वकनो वैराग्य, तेमज अज्ञान
अने राग–द्वेष छोडवारूप संवर आत्माने लाभदायक छे छतां तेने कष्टदायक मानवां ते संवर तत्त्वनी भूल छे.
निर्जरा तत्त्वमां मिथ्याद्रष्टिनी भूल–आत्मस्वभावना भानसहित शुभाशुभ ईच्छाओने रोकवी ते तप छे अने
ते तपथी निर्जरा थाय छे, छतां ते अज्ञानीने कष्टदायक लागे छे अने आत्माना ज्ञानादि गुणने भूली जईने पांच
ईन्द्रियोना विषयोनुं सेवन करे छे अने तेमां सुख माने छे ते निर्जरा तत्त्वनी भूल छे.
(ख) मिथ्यात्व अने रागादि आत्माने प्रगट दुःख देनारां छे छतां मिथ्याद्रष्टि जीव तेनुं सेवन करवामां सुख माने
छे, ते आस्रवतत्त्वनी भूल छे. केमके मिथ्यात्वादि आस्रव प्रगट दुःखदायक होवा छतां तेने सुखदायक माने छे.
(ग) ‘त्रस एटले चाली शके ते अने स्थावर एटले न चाली शके ते’ –एवी जो व्याख्या करीए तो
अतिव्याप्ति दोष आवे छे. जेमके (१) पवन, पाणी वगेरे स्थावरो पण चाले छे तेथी तेने त्रस गणतां अतिव्याप्तिदोष
आवे छे. अने (२) अयोगी केवळी त्रस छे पण ते चालतां नथी तेथी तेने स्थावर गणतां अतिव्याप्ति दोष आवशे,
माटे उपर कहेली व्याख्या साची नथी; परंतु, एकेन्द्रिय ते स्थावर अने बेईन्द्रियथी पंचेन्द्रिय सुधीना त्रस छे–एवी
त्रस–स्थावरनी व्याख्या छे.
प्रश्न – ४
(क) शरीरोनां नाम आपो अने कया जीवने एक, बे, चार अने पांच शरीर होय?
(ख) अगृहीत मिथ्यात्व, प्रतिजीवी गुण, बंध, भावहिंसा अने समुद्घातनी फक्त व्याख्या लखो.
उत्तर – ४
(क) १. औदारिक, २. वैक्रियिक, ३. आहारक, ४. तैजस अने ५. कार्माण ए पांच शरीरो छे.
एक शरीर कोई पण जीवने होतुं नथी.
बे शरीर विग्रहगतिमां रहेला जीवने होय छे अर्थात् ज्यारे जीव एक भवमांथी बीजा भवमां जतो होय त्यारे
तेने तैजस अने कार्माण ए बे शरीर होय छे.
चार शरीर छठ्ठागुणस्थानवर्ती कोई मुनिने होय छे (औदारिक, तैजस, कार्मण अने आहारक).
पांच शरीरो कोई पण जीवने होतां नथी.