Atmadharma magazine - Ank 033
(Year 3 - Vir Nirvana Samvat 2472, A.D. 1946)
(Devanagari transliteration).

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: अषाढ : २४७२ : आत्मधर्म : १५९ :

वर्ष त्रीजुं : सळंग अंक : अषाढ
अंक नव : ३३ : २४७२
() त्र् िरुद्ध ण्
१. घणा जीवो धर्म करवा मागे छे, पण तेमनो मोटो भाग धर्मनो अर्थ समजता नथी, अने कूळ–धर्ममां
चालता क्रियाकांड तथा धर्मनी मान्यताओने, विचार के परीक्षा कर्या वगर, साची मानी लईने ते मुजब
क्रियाकांड कर्या करे छे; शरीरनी क्रिया पोते करी शके छे एम माने छे तेथी शरीरनी क्रिया अमुक प्रकारनी होय तो
धर्म थाय अने शरीरनी क्रिया अमुक प्रकारनी होय तो पाप थाय एम ते माने छे; पण शरीरनी क्रिया जीव कदी
करी शकतो ज नथी, शरीरना एकेएक रजकणोनी लायकात अनुसार जीवथी भिन्नपणे स्वतंत्र तेनी क्रिया थाय
छे, अने ते शरीरनी कोई क्रियाथी जीवने कोई प्रकारनुं लाभ–नुकसान थतुं नथी, पण ते वखते जीवना पोताना
भाव अनुसार जीवने लाभ–नुकसान थाय छे. आ वात ते अज्ञानीओ समजता नथी.
२. वळी केटलाक जीवो दान, पूजा, दया, यात्रा वगेरेथी धर्म थाय एम माने छे अने तेमां पण दान
वखते पैसा वगेरे पोता पासेथी पर पासे जवानी क्रिया थई ते जडनी क्रियाथी दान थयुं अने तेनाथी धर्म थयो
एम माने छे.
३. भगवाननी पूजामां–ते वखते पूजानी सामग्री तरीके गणाती अक्षत वगेरे वस्तुओ सारी होय, सारा
अवाजे राग नीकळ्‌यो होय तथा शरीरनी ऊठ–बेसनी, अभिषेकनी वगेरे क्रियाओथी पूजा थई अने तेनाथी धर्म
थयो एम माने छे.
४. दयामां–ते वखते सामा जीवनुं मरण न थयुं तेमां पोताना शरीरादिनी जे क्रिया थई अने सामो जीव
न मर्यो तेथी दया थई अने तेनाथी धर्म थयो एम माने छे.
५. यात्रामां–जे डुंगर वगेरे स्थळने पोते पवित्र मानता होय तेना उपर चडवा–उतरवानी के जवा–
आववानी शरीरनी क्रिया थाय तेने जात्रा माने छे अने तेनाथी धर्म थयो एम माने छे.
६. प्रथम तो, शरीर वगेरेनी कोई पण क्रियाथी जीवने कदी पण धर्म के अधर्म थाय ज नहीं. जो ते वखते
जीवने मंद कषाय होय तो पुण्य थाय, अने जो मंद कषाय न होय पण अभिमान के कुतूहलभाव वगेरे
अशुभभाव होय तो पाप थाय.
७. वळी ते अज्ञानी जीवोना उपादाननी वर्तमान लायकात एवी होय छे के, ‘शरीरनी जे जे क्रियाओ
थाय छे ते जीव करी शके छे अने ते क्रियाथी तथा पुण्यथी धर्म थाय छे’ एम मनावनारा उपदेशकोना उपदेशनुं
निमित्त पण तेमने स्वयं मळी रहे छे.
८. –पण, शरीरनी क्रिया जीव करी शके अने पुण्यथी धर्म थाय–ए मान्यता धर्म विरुद्ध छे. शरीरादिनी
क्रिया जीव करी शकतो नथी अने मंद कषायरूप पुण्यनी प्रवृत्तिथी धर्म थतो ज नथी तेम ज ते पुण्य प्रवृत्ति
वर्तमानमां के भविष्यमां क्यारेय पण धर्ममां सहायक थती ज नथी. वळी, रसपूर्वक ते पुण्य क्रिया करतां करतां
शुद्ध परिणामरूप धर्म थशे एवी मान्यता पण सर्वांशे खोटी छे.
९. ‘पुण्यथी धर्म थाय’ ए मिथ्या मान्यता टाळवा माटे ‘पुण्यथी धर्म कदी पण न थाय, तेमज पुण्य
धर्मने सहायक न थाय’ आवी साची मान्यता करवानुं ज्यारे कहेवामां आवे छे त्यारे केटलाक ऊंधा जीवो एम
कहे छे के ‘त्यारे शुं अमारे पुण्य छोडीने पाप करवुं? ’ अरे! तेओ एटली वात पण समजी शक्ता नथी के, जे
पिता तेना बाळकोने लींबोळी कडवी छे माटे ते खावानी ना कहे छे ते पिता हळाहळ झेर खावानुं तो केम कहे?
‘पिता लींबोळी छोडीने हळाहळ झेर खावानुं कहे छे’ एम तो कोई बाळक पण मानी ले नहि; तो पछी श्री
सर्वज्ञ वीतराग प्रभु धर्मपिता छे तेओ ‘पुण्यथी धर्म थाय छे’ एवी मान्यता छोडवानुं कहे ते पुण्यने छोडीने
पाप करवानुं कदी पण कहे एम बने ज नहि, केमके पाप ते तो पुण्यथी पण विशेष खराब छे. परंतु जीव ज्यां
सुधी पोतानी ऊंधाई छोडे नहि त्यांसुधी तेनी ऊंधी मान्यता छूटे नहि, केमके ऊंधाईमां पण ते स्वतंत्र छे; तेथी
‘पुण्यथी धर्म नथी’ एम सांभळीने तेने तेवा भाव (पुण्य